Saturday, August 11, 2012

Sandesh



उर्स का रामनवमी के त्यौहार में समन्वय
----------------------------------------------

सब कार्यक्रम इसी तरह उत्तम प्रकार से चलता रहा और मेले का महत्व शनैः शनैः बढ़ता ही गया । सन् 1911 में एक परिवर्तन हुआ । एक भक्त कृष्णराव जोगेश्वर भीष्म (श्री साई सगुणोपासना के लेखक) अमरावती के दादासाहेब खापर्डे के साथ मेले के एक दिन पूर्व शिरडी के दीक्षित-वाड़े में ठहरे । जब वे दालान में लेटे हुए विश्राम कर रहे थे, तब उन्हें एक कल्पना सूझी । इसी समय श्री. लक्ष्मणराव उपनाम काका महाजनी पूजन सामग्री लेकर मसजिद की ओर जा रहे थे । उन दोनों में विचार-विनिमय होने लगा ओर उन्होने सोचा कि शिरडी में उरुस व मेला ठीक रामनवमी के दिन ही भरता है, इसमें अवश्य ही कोई गुढ़ रहस्य निहित है । रामनवमी का दिन हिन्दुओं को बहुत ही प्रिय है । कितना अच्छा हो, यदि रामनवमी उत्सव (अर्थात् श्री राम का जन्म दिवस) का भी श्री गणेश कर दिया जाय । काका महाजनी को यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ । अब मुख्य कठिनाई हरिदास के मिलने की थी, जो इस शुभ अवसर पर कीर्तन व ईश्वर-गुणानुवाद कर सकें । परन्तु भीष्म ने इस समस्या को हल कर दिया । उन्होंने कहा कि मेरा स्वरचित राम आख्यान, जिसमें रामजन्म का वर्णन है, तैयार हो चुका है । मैं उसका ही कीर्तन करुँगा और तुम हारमोनियम पर साथ करना तथा राधाकृष्णमाई सुंठवडा़ (सोंठ का शक्कर मिश्रित चूर्ण) तैयार कर देंगी । तब वे दोनों शीघ्र ही बाबा की स्वीकृति प्राप्त करने हेतु मसजिद को गये । बाबा तो अंतर्यामी थे । उन्हें तो सब ज्ञान था कि वाड़े में क्या-क्या हो रहा है । बाबा ने महाजनी से प्रश्न किया कि वहाँ क्या चल रहा था । इस आकस्मिक प्रश्न से महाजनी घबडा गये और बाबा के शब्दों से पुछा कि क्या बात है । भीष्म ने रामनवमी-उत्सव मनाने का विचार बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया तथा स्वीकृति देने की प्रार्थना की । बाबा ने भी सहर्ष अनुमति दे दी । सभी भक्त हर्षित हहुये और रामजन्मोत्सव मनाने की तैयारियाँ करने लगे । दूसरे दिन रंग-बिरंगी झंडियों से मसजिद सजा दी गई । श्रीमती राधाकृष्णमाई ने एक पालना लाकर बाबा के आसन के समक्ष रख दिया और फिर उत्सव प्रारम्भ हो गया । भीष्म कीर्तन करने को खड़े हो गये और महाजनी हारमोनियम पर उनका साथ करने लगे । तभी बाबा ने महाजनी को बुलाबा भेजा । यहाँ महाजनी शंकित थे कि बाबा उत्सव मनाने की आज्ञा देंगे भी या नहीं । परन्तु जब वे बाबा के समीप पहुँचे तो बाबा ने उनसे प्रश्न किया यह सब क्या है, यह पलना क्यों रखा गया है महाजनी ने बतलाया कि रामनवमी का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया और इसी कारण यह पालना यहाँ रखा गया । बाबा ने निम्बर पर से दो हार उठाये । उनमें से एक हार तो उन्होंने काका जी के गले में डाल दिया तथा दूसरा भीष्म के लिये भेज दिया । अब कीर्तन प्रारम्भ हो गया था । कीर्तन समाप्त हुआ, तब श्री राजाराम की उच्च स्वर से जयजयकार हुई । कीर्तन के स्थान पर गुलाल की वर्षा की गई । जब हर कोई प्रसन्नता से झूम रहा था, अचानक ही एक गर्जती हुई ध्वनि उनके कानों पर पड़ी । वस्तुतः जिस समय गुलाल की वर्षा हो रही थी तो उसमें से कुछ कण अनायास ही बाबा की आँख में चले गये । तब बाबा एकदम क्रुदृ होकर उच्च स्वर में अपशव्द कहने व कोसने लगे । यह दृश्य देखकर सब लोग भयभीत होकर सिटपिटाने लगे । बाबा के स्वभाव से भली भाँति परिचित अंतरंग भक्त भला इन अपशब्दों का कब बुरा माननेवाले थे । बाबा के इन शब्दों तथा वाक्यों को उन्होंने आर्शीवाद समझा । उन्होंने सोचा कि आज राम का जन्मदिन है, अतः रावण का नाश, अहंकार एवं दुष्ट प्रवृतिरुपी राक्षसों के संहार के लिये बाबा को क्रोध उत्पन्न होना सर्वथा उचित ही है । इसके साथ-साथ उन्हें यह विदित था कि जब कभी भी शिरडी में कोई नवीन कार्यक्रम रचा जाता था, तब बाबा इसी प्रकार कुपित या क्रुदृ हो ही जाया करते थे । इसलिये वे सब स्तब्ध ही रहे । इधर राधाकृष्णमाई भी भयभीत थी कि कही बाबा पालना न तोड़-फोड़ डालें, इसलिये उन्होंने काका महाजनी से पालना हटाने के लिए कहा । परन्तु बाबा ने ऐसा करने से उन्हें रोका । कुछ समय पश्चात् बाबा शांत हो गये और उस दिन की महापूजा और आरती का कार्यक्रम निर्विध्र समाप्त हो गया । उसके बात काका महाजनी ने बाबा से पालना उतारने की अनुमति माँगी परन्तु बाबा ने अस्वीकृत करते हुये कहा कि अभी उत्सव सम्पूर्ण नहीं हुआ है । अगने दिन गोपाल काला उत्सव मनाया गया, जिसके पश्चात् बाबा ने पालना उतारने की आज्ञा दे दी । उत्सव में दही मिश्रित पौहा एक मिट्टी के बर्तन में लटका दिया जाता है और कीर्तन समाप्त होने पर वह बर्तन फोड़ दिया जाता है, और प्रसाद के रुप में वह पौहा सब को वितरित कर दिया जाता है, जिस प्रकार कि श्री कृष्ण ने ग्वालों के साथ किया था । रामनवमी उत्सव इसी तरह दिन भर चलता रहा । दिन के समय दो ध्वजों जुलूस और रात्रि के समय चन्दन का जुलूस बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ निकाला गया । इस समय के पश्चात ही उरुस का उत्सव रामनवमी के उत्सव में परिवर्तित हो गया । अगले वर्ष (सन् 1912) से रामनवमी के कार्यक्रमों की सूची में वृदिृ होने लगी । श्रीमती राधाकृष्णमाई ने चैत्र की प्रतिपदा से नामसप्ताह प्रारम्भ कर दिया । (लगातार दिन रात 7 दिन तक भगवत् नाम लेना नामसप्ताह कहलाता है) सब भक्त इसमें बारी-बारी से भागों से भाग लेते थे । वे भी प्रातःकाल सम्मिलित हो जाया करते थीं । देश के सभी भागों में रामनवमी का उत्सव मनाया जाता है । इसलिये अगले वर्ष हरिदास के मिलने की कठिनाई पुनः उपस्थित हुई, परन्तु उत्सव के पूर्व ही यह समस्या हल हो गई । पाँच-छः दिन पूर्व श्री महाजनी की बाला बुवा से अकस्मात् भेंट हो गी । बुवासाहेब अधुनिक तुकाराम के नाम से प्रसिदृ थे और इस वर्ष कीर्तन का कार्य उन्हें ही सौंपा गया । अगले वर्ष सन् 1913 में श्री हरिदास (सातारा जिले केबाला बुव सातारकर) बृहद्सिदृ कवटे ग्राम में प्लेग का प्रकोप होने के कारण अपने गाँव में हरिदास का कार्य नहीं कर सकते थे । इस इस वर्ष वे शिरडी में आये । काकासाहेब दीक्षित ने उनके कीर्तन के लिये बाबा से अनुमति प्राप्त की । बाबा ने भी उन्हें यथेष्ट पुरस्कार दिया । सन् 1914 से हरिदास की कठिनाई बाबा ने सदैव के लिये हल कर दी । उन्होंने यह कार्य स्थायी रुप से दासगणू महाराज के सौंप दिया । तब से वे इस कार्य को उत्तम रीति से सफलता और विदृतापूर्वक पूर्ण लगन से निभाते रहे । सन् 1912 से उत्सव के अवसर पर लोगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृदि होने लगी । चैत्र शुक्ल अष्टमी से दृदशी तक शिरडी में लोगों की संख्या में इतनी अधिक वृदि हो जाया करती थी, मानो मधुमक्खी का छत्ता ही लगा हो । दुकानों की संख्या में बढ़ती हो गई । प्रसिदृ पहलवानों की कुश्तियाँ होने लगी । गरीबों को वृहद् स्तर पर भोजन कराया जाने लगा । राधाकृष्णमाई के घोर परिश्रम के फलस्वरुप शिरडी को संस्थान का रुप मिला । सम्पत्ति भी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी । एक सुन्दर घोड़ा, पालकी, रथ ओर चाँदी के अन्य पदार्थ, बर्तन, पात्र, शीशे इत्याति भक्तों ने उपहार में भेंट किये । उत्सव के अवसर पर हाथी भी बुलाया जाता था । यघपि सम्पत्ति बहुत बढ़ी, परन्तु बाबा उल सब से सदा साधारण वेशभूषा घारण करते थे । यह ध्यान देने योग्य है कि जुलूस तथा उत्सव में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही साथ-साथ कार्य करते थे । परन्तु आज तक न उनमें कोई विवाद हुआ और न कोई मतभेद ही । पहनेपहन तो लोगों की संख्या 5000-7000 के लगभग ही होता थी । परन्तु किसी-किसी वर्ष तो यह संख्या 75000 तक पहुँच जाती थी । फिर भी न कभी कोई बीमारी फैली और न कोई दंगा ही हुआ । 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री साई सच्चरित्र



श्री साई सच्चरित्र

आओ मिलकर पढ़ें और साथ जुड़ें !

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 1

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 2


आओ मिलकर पढ़ें और साथ जुड़ें !

Sai Aartian साईं आरतीयाँ