Saturday, April 28, 2012



कर्मों की गति... 

"गंगा-पुत्र" भीष्म... ने ऐसा कौन सा पाप किया था कि उन्हें शर-शैया का अपार असहनीय कष्ट भुगतना पडा ??? 
भीष्म जब शर-शैया पर थे, तो भगवान् श्री कृष्ण उनसे मिलने आये... 
शर शैया पर पड़े भीष्म ने कहा, " मैं अपने पिछले एक सौ जन्मों को देख सकता हूँ... मुझे स्मरण नहीं आता कि मैने कोई ऐसा पाप किया हो कि मुझे शर शैया पर सोने का कष्ट भोगना पड़ रहा है" ?
भगवान् श्री कृष्ण मुस्कराये और बोले, " पितामह, आप ने एक और जन्म पीछे जा कर देखा होता, तो आप को अपने प्रश्न का उत्तर मिल जाता... अपने १०१ वें जन्म पूर्व में भी आप एक राजकुमार थे और एक बार शिकार के समय, एक सांप को उसकी पूंछ से पकड़ कर आप ने जो फेंका था, वो कांटो पर जा कर गिरा और मर गया | उस पाप के फलस्वरूप तुम्हें यह शर शैया प्राप्त हुई है |"
भीष्म का प्रश्न था, " इस पाप का फल १०१ वर्ष बाद आज क्यों ? पहले किसी जन्म में क्यों नहीं मिला "?
भगवान् श्री कृष्ण ने उत्तर दिया, " आपके ये समस्त जन्म शुभ कर्मों से युक्त थे... अतः कहीं उस पाप को भोगने का कारण नहीं बना... अवसर नहीं मिला... वह पाप शुभ कर्मों के प्रभाव से दबा रहा |"
भीष्म ने पुन: प्रश्न किया, " प्रभु ! तो इस जन्म में मैने ऐसा क्या किया" ?
प्रभु मुस्कराये और बोले, " पितामह ! इस जन्म में आपने अपने अहंकार स्वरुप अपने वचन में फंसकर दुष्ट कौरवों का अन्न खाया... और जानते हुए भी द्रोपदी को सभा में अपमानित करने वालों का विरोध करना तो दूर, अपितु शांत रहे... इस कारण इस जन्म में आपके पूर्व के उस पाप के फल को अवसर प्राप्त हुआ |"
कर्मों की गति बड़ी विचित्र और अटल है... व्यक्ति को प्रत्येक शुभ-अशुभ कर्मों का फल... कभी न कभी भुगतना ही पड़ता है... यही इस प्रकृति का अटल नियम विधान है... 
अत: हमें प्रत्येक क्षण अपने देहिक और मानसिक... दोनों प्रकार के... कर्मों का... भली-भाँती बड़ी सावधानी से अध्ययन करते रहना चाहिए... क्यूंकि वर्तमान ही भविष्य का अतीत है... 

जय श्री कृष्ण... ॐ नमः शिवाय...
by वंदे मातृ संस्कृति

OM SAI RAM


Tuesday, April 24, 2012

*** सच्चा साईं अराध्या,सच्चे के गुण गाये |******
***घट घट वासी पारब्रह्म,जान लियो मन मांहे ||***
एकै ने सब खेल रचाया |
जो दीखे वो सब है माया ||
सर्व घटा एको आकाश |
सब घटा में जिसका प्रकाश ||
एको एक एक भगवान |
दो को सद ही माया जान ||
बाहर भरम भुले संसार |
अंदर आत्म साईं अपार ||
जा को आप चाहें भगवन्त |
सोई जाने साईं अनन्त ||

Saturday, April 14, 2012



हसन अब्दाल - वली कंधारी का अहंकार तोड़ना (पंजा साहिब)
गुरु जी होती मरदान और नौशहरे से होते हुआ हसन अब्दाल से बहार पहाड़ी के नीचे आकर बैठ गए| उस पहाड़ी पर एक वली कंधारी रहता था जिसे अपनी करामातो पर बहुत अहंकार था| इसके साथ की पहाड़ी पर ही पानी का एक चश्मा निकलता था| गुरु जी ने उसका अहंकार तोड़ने के लिए मरदाने को उस पहाड़ी पर चश्मे का पानी लाने के लिए भेजा| पर वली कंधारी ने वहाँ से पानी लाने को मना कर दिया| उसने कंधारी के आगे बहुत मिन्नतें की पर वली ने कहा अगर तेरा पीर शक्तिशाली है तो वह नया चश्मा निकालकर तुम्हे पानी दे|जब यह बातें मरदाने ने आकर गुरु जी को बताई तो गुरु जी (Shri Guru Nanak Dev Ji) ने मरदाने से कहा की सतिनाम कहकर एक पत्थर उठाकर दूसरी तरफ रखदो, करतार के हुक्म से पानी का चश्मा चल पड़ेगा| जब पत्थर के नीचे से पानी का चश्मा निकला तो इसके चलने से ही पहाड़ी पर वली कंधारी का चश्मा बंद हो गया|

जब वली कंधारी ने यह देखा की उसका चश्मा बंद हो गया है और नीचे की पहाड़ी का चश्मा चल रहा है तो उसने क्रोध में आकर अपनी पूरी शक्ति के साथ पहाड़ी की एक चट्टान को गुरु जी की तरफ फैंक दिया| पर गुरु जी ने उसे अपने हाथ के पंजे से रोक दिया| गुरु जी की यह दोनो शक्तियाँ, पहले पानी का चश्मा नीचे लेके आना और दूसरा पहाड़ को पंजे से रोकना, से वली कंधारी का अहंकार टूट गया और गुरु जी से अपने अपमान भरे शब्दों के कारण माफ़ी मांगने लगा|

गुरु जी (Shri Guru Nanak Dev Ji) के हाथ से लगा हुआ पंजे वाला पत्थर अभी तक गुरुद्वारा पंजा साहिब-हसन अब्दाल में दर्शन दे रहा है| हजारों संगते श्रदा के साथ इसके दर्शन करके गुरु जी (Shri Guru Nanak Dev Ji) की महिमा गाते हुए सुनी व देखी गयी हैं|

Wednesday, April 11, 2012

कलयुग से वार्तालाप

कलयुग से वार्तालाप


गुरु जी मरदाने के साथ बैठकर शब्द कीर्तन कर रहे थे तो अचानक अँधेरी आनी शुरू हो गई, जिसका गुबार पुरे आकाश में फ़ैल गया|  इस भयानक अँधेरी में भयानक सूरत नजर आनी शुरू हो गई, जिसका सिर आकाश के साथ व पैर पाताल के साथ के साथ थे| मरदाना यह सब देखकर घबरा गया| तब गुरु जी मरदाने से कहने लगे, मरदाना तू वाहेगुरु का सिमरन कर, डर मत| यह बला तेरे नजदीक नहीं आएगी| उस भयानक सूरत ने कई भयानक रूप  धारण किए पर गुरु जी अडोल ही बैठे रहे| आप की अडोलता व निर्भयता को देखकर उसने मानव का रूप धारण करके गुरु जी को नमस्कार की और कहने लगा इस युग का मैं राजा हूँ| मेरा सेनापती झूठ और निंदा, चुगली व मर धाड़ है| जुआ शराब आदि खोटे करम मेरी फ़ौज है| आप मेरे युग के अवतार है, मैं आपको मोतियों से जड़े हुए सोने के मंदिर तैयार कर देता हूँ, आप इसमे निवास करना| ऐसे मंदिर चन्दन व कस्तूरी से लिपे होंगे, केसर का छिड़काव होगा| आप उसमे सुख लेना व आनंदित रहना|


तब गुरु जी ने इस शब्द का उच्चारण किया:


मोती त मंदर उसरहि रतनी त होए जड़ाऊ || 
कस्तू रि  कुंगू अगरि चंदनि लीपि आवै चाऊ || 
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||   
धरती त हीरे लाल जड़ती पलघि लाल जड़ाऊ || 
मोहणी मुखि मणी सोहै करे रंगि  पसाऊ || 
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ || 
हुकमु हासलु करी बैठा नानका सभ वाऊ || 
मतु देखि भूला विसरै तेरा चिति न आवै नाऊ ||
 

गुरु जी के ऐसे बचन सुनकर कलयुग ने कहा, महाराज! मुझे निरंकार की आज्ञा है की मैं सभ जीवो की बुधि उलट दू, जिसके कारण वह चोरी यारी झूठ निंदा व चुगली आदि खोटे कर्म करे, गुणवान का निरादर हो और मूर्खों को राजे के पास बिठाकर आदर करा ऊ| जत सत का नाम ना रहना दूँ, ऊँच व नीच को बराबर कर दूँ| पर आप मुझे जैसे हुक्म करेंगे में उसकी पलना करूँगा| गुरु जी ने कहा, जो हमारे प्रेमी श्रद्धावान व हरी कीर्तन, सत्संग इत्यादि में लिप्त हो उनपर यह सेना धावा ना बोले| फिर तेरा प्रभाव हमारे उन प्रेमियों पर भी ना पड़े जिन्हें हमारे बचनों पर भरोसा है| कलयुग ने तभी हाथ जोड़े  और कहा, महाराज! जो व्यक्ति निरंकार के सिमरण को अपने ह्रदय में बसाए रखेगा, उनपर हमारा प्रभाव कम पड़ेगा| ऐसा भरोसा देकर कलयुग अंतर्धयान हो गया|


दुसरो के प्रति भलाई करने से आप न केवल अपने पापों को नष्ट करते है बल्कि अपने भीतर शमाशिलता, धेर्य आदि गुणों को भी विकसित करने से आप बाबा के अधिक निकट हो जाते है ! लोगो से कभी भी कोई अपेक्षा (उम्मीद) मत रखिये क्युकी इससे आपको केवल दुःख और निराशा ही मिलेगी आपको जो भी अपेक्षा (उम्मीद) करनी है वो बाबा से ही कीजिये क्योकि उपयुक्त समय आने पर आपको बाबा की कृपा अवश्य प्राप्त होगी ! हमे बाबा से हमेशा ये प्रार्थना करनी चाहिए की बाबा आप हमेशा हमे सही मार्ग पर चलाना और सही दिशा दिखाना, हमारे कर्मो की पूँजी हमारे भविष्य में हमारी सहायता के लिए संचित है ! दुसरो की सहायता करने के भाव को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए!

Tuesday, April 10, 2012



यह सौंप दिया सारा जीवन, साईंनाथ तुम्हारे चरणों में|
अब जीत तुम्हारे चरणों में, अब हार तुम्हारे चरणों में|| 

मैं जग में रहूं तो ऐसे रहूं, ज्यों जल में कमल का फूल रहे|
मेरे अवगुण दोष समर्पित हों, हे नाथ तुम्हारे चरणो में||
अब सौंप दिया...

मेरा निश्चय है बस एक यही, इक बार तुम्हें मैं पा जाऊं|
अर्पित कर दूं दुनियाभर का सब प्यार तुम्हारे चरणों में||
अब सौंप दिया...

जब-जब मानव का जन्म मिले, तब-तब चरणों का पुजारी बनूं|
इस सेवक की एक-एक रग का हो तार तुम्हारे हाथ में||
अब सौंप दिया...

मुझमें तुमसें भेद यही, मैं नर हूं, तुम नारायण हो|
मैं हूँ संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे चरणों में||

यह सौंप दिया सारा जीवन, साईंनाथ तुम्हारे चरणों में|

Sunday, April 8, 2012

ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं



ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं
"बाबा जो भी तुम्हारी स्तुति गाये |
बिन मांगे सब कुछ पा जाये" ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 

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{जन्नत श्री गुरु के चरणों में है तो इसका कब और कैसे अनुभव होता है?}

श्री गुरु के जीवनकाल में उनके चरणों की पूजा करना, पाद-सेवन करना नवधा भक्ति में से एक भक्ति भाव है! श्री गुरु के समाधि लेने के पश्चात् उनके चरणों का ध्यान किया जा सकता है ! केवल चरणों का ही नहीं, बाबा के अनुसार "चरणों से सर तक, और सर से चरणों तक का ध्यान करना चाहिए" गुरु-चरणों को मन में रखने का अभिप्राय हमारे दास-भाव, से है! यहाँ हम समभाव, बंधू-भाव नहीं रखते, बल्कि दास भाव रखते है, चरण पूजा का मतलब है - दास भाव, मतलब गुरु के वचनों का अनुसरण और बिना पूछे उनके आदेशो का पालन करना!


श्री साई सच्चरित्र



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Sai Aartian साईं आरतीयाँ