Monday, December 31, 2012

Sai

साईं परोपकार की प्रीतमा थे I परोपकाराथ्र उन्होंने अपने शरीर को कष्ट दिया I वे सर्वदा निवैरधर्म (द्वेष की भावना से रहित) की स्थिति में रहे I उन्होंने अच्छे कार्यो में स्वयं को समर्पित कर दिया I 
Sai was the very embodiment of benevolence. He wore out of his body for that purpose. His nature was such that he had no enmity towards anyone and he always engaged in doing good deeds.

Sunday, December 30, 2012

In Chapter X of Shri Sai Satcharitra,


It is written that Lord or Bhagwan is said to have six qualities, viz. (1) Fame, (2) Wealth, (3) Non-attachment, (4) Knowledge, (5) Grandeur and (6) Liberality. Baba had all these in Him. He incarnated in flesh, for the sake of Bhaktas. Wonderful was His grace and kindness, for He drew the devotees to Him, or how else one could have known Him. For the sake of His Bhaktas, Baba spoke such words, the Goddess of Speech could not utter. Here is a specimen. Baba spoke very humbly as follows : "Slave of slaves I am your debtor. I am satisfied at your darshan. It is a great favour that I saw your feet. I consider Myself blessed thereby."

Saturday, December 29, 2012

In chapter X of Shri Sai Satcharitra,


Sai Baba's nature is described.
Outwardly, Baba seemed to enjoy sense-objects, He had not the least flavour in them, nor even the consciousness of enjoying them. Though, He ate, He had no taste and though, He saw, He never felt any interest in what He saw. Regarding passion, He was as perfect a celibate as Hanuman. He was not attached to anything. He was pure consciousness, the resting place of desire, anger, envy and other feelings. In short, He was disinterested, free and perfect.
A striking instance is given below :
There was in Shirdi; a very quaint and queer fellow, by name Nanavali. He looked to Baba's work and affairs. He once approached Baba, Who was seated on his Gadi(seat) and asked Him to get up , as he wanted to occupy the same. Baba, at once got up and left the seat, which he had occupied. After sitting there a while Nanavali got up, and asked Baba to resume His seat. Then, Baba sat down and Nanavali fell at His feet. Baba did not show the slightest displeasure in being dictated or ousted.

This Nanavali loved Baba so much that, he breathed his last, on the thirteenth day of Baba's Maha-samadhi.

Friday, December 28, 2012

श्री साईं कथा आराधना





श्री साईं कथा आराधना 

शिरडी के साईं ईश्वर का अवतार थे भक्तों,
दुखियों के दुःख हरने को आये थे वो, भक्तों !
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिये ।।
गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से था कहा
जब-जब बढ़ेगा पाप, धरा पे मैं आऊंगा,
करुणा के रूप में वो बन साईं आ गए
और साईं बाबा बनकर दुनिया में छा गए.....
प्रकटा है संत शिर्डी में सब लोगों ने कहा,
एक झलक उसकी पाने को हर दिल मचल गया ,
वो नौजवान फकीर समाधी मे लीन था,
चारों ओर उसके फैला प्रकाश था
अल्लाह है सबका मालिक वो कहता था सदा
बस नीम के ही नीचे बैठा रहता था सदा
उसकी छवि को देख के व्याकुल थे सबके मन
चरणों में कुछ ने कर दिया सर्वस्व था अर्पण
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
लोगों ने उससे एक दिन पूछ ही लिया
तुम कौन हो, यहां क्यूं डेरा ही डाल दिया
इस पेड़ के नीचे मेरे गुरु की है समाधी
बाबा ने उन्हें यह बतला कर शांत कर दिया
गाँव वालों ने फिर उसकी इस बात को परखा
उस जगह के दृश्य का अपना ही था जलवा
समाधी पे कुछ ताज़े फूल थे बिखरे
और चारों कोनों पे जल रहे थे दीये
ऐसा देख लोगों की श्रद्धा बढ़ गई
आपस में उसके बारे में चर्चाएं मिट गई
किसी ने बाबा को दिव्य पुरुष मान लिया
तो किसी ने बाबा को इश्वर ही मान लिया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
कुछ लोग अब भी जलते रहते थे रात-दिन
अपशब्द भी कहते थे, सताते थे रात दिन
उसने ना कभी उन पर क्रोध था किया
समझा-बुझा के लोगों को बस माफ़ था किया
फिर एक दिन शिर्डी को वो छोड़ ही गया
पलभर में पूरी नगरी को अनाथ कर गया
भगवान मान लोगों ने कभी था उसे पूजा
जिनके लिए भगवान था न कोई भी दूजा
वो रात-दिन भक्ति में रहते थे बाबा की
दिन-रात राह तकते थे वो अपने बाबा की
माँ बायजा रोटी ले जंगल में खोजतीं
रूठ माँ से कहां चला गया ये ही सोचतीं
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
लौटा वो फिर किसी बारात की शान में
म्हालसापति ने साईं कहा उसके मान में
लोगों ने दी हंसकर आपस में बधाई
और साईं को दी फिर ना जाने की दुहाई
खंडोबा जी के मंदिर में मेला-सा जुड़ गया
फकीर लौट आया है किस्सा ये छिड गया
म्हाल्सापति ने आओ साईंश्री कह के पुकारा
उस साईं को फिर सबने अपने दिल में उतारा
तब साईं ने मस्ज़िद को अपना घर बना लिया
हिन्दू-मुस्लिम सबको गले लगा लिया
मस्ज़िद में बैठ के सबकी पीड़ाएं वो हरता
और द्वारकामाई सदा उसको वो कहता
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
हर भाव में हर रूप में पाया उन्हें भगवंत
श्री साईंनाथ अनंत उनकी कथा है अनंत
दत्तात्रेय-जगदीश्वर का रूप थे साईं
श्रद्धा-सबुरी और भक्ति साईं से पाई 
सीधा-सादा रूप था श्री साईंनाथ का
जिसने भी देखा वो हो गया साईंनाथ का
दर्शन इनके जो भी एक बार पा गया
भाव-बंधन से पल में वो मुक्ति पा गया
साईं की दृष्टि में न कोई ऊंचा न नीचा
हर एक को साईं ने अपने प्रेम से सींचा
शिर्डी नगर को आटे से ऐसा बंधाया
की हैजे से शिर्डी को एक पल में बचाया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
बाबा की लीलाओं को जो भी ध्यान से सुनता
मिलती है उसे मुक्ति, परमधाम है मिलता
रोहिला के कुविचार को जब ख़त्म साईं ने किया
तो जड़ चेतन में खुद होने का भान दे दिया
गौली बुवा की श्रद्धा से साईं विट्ठल भी बने
काका को भी उसी भाव में दर्शन दे दिए
बाबा ने गुरु महिमा को ऐसा मान दे दिया
की गुरु के स्थान को पूजास्थल बना दिया
बाबा ने श्रद्धा का एक चमत्कार दिखाया
दास गणु को निज चरणों में ही प्रयाग दिखाया
यौगिक क्रियाओं का साईं को था अद्भुत ज्ञान
पर इस बात का कभी था ना कोई मान
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
श्री साईं को फूलों से बेहद लगाव था
बच्चों की भांति उनका उन्हें बड़ा ध्यान था
बाबा नित पौधों को खुद जल से सींचते
जल के लिए घड़े वामन तांत्या ही देते।
शिर्डी है भाग्यशाली, उसने पाया है हीरा
गंगागीर संत ने ऐसा कहा होके अधीरा।
बाबा की मेहनत से वहां फुलवारी बन गई
भक्तों की साईं में और श्रद्धा बढ़ गई
श्री साईं जिस नीम के नीचे रहते थे
उसके पत्ते कड़वे नहीं, बड़े ही मीठे थे
उसके नीचे ही पादुकाएं स्थापित हो गई
जो साईं-अवतरण की प्रतीक बन गई।
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए॥
बाबा रोज़ मस्ज़िद में दीपक जलाते थे
बनियों से भिक्षा में वो तेल मांग लाते थे
एक रोज़ दीवाली पे किसी ने तेल न दिया
बाबा ने फिर भी उन्हें आशीष ही दिया
बाबा ने उस रात भी दीवाली थी मनाई
सारी रात पानी से ज्योति जगाई
ये देख लोग अत्यंत शर्मिन्दा हो गए
और साईं के चरणों में नतमस्तक हो गए
बाबा ने अहं त्यागने की बात उनसे की
कोई शिकता, कोई शिकायत ना उनसे की
बाबा की इस लीला से सब हैरान हो गए
और साईं ही भगवान हैं ऐसा वे मान गए
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
श्री साईं ने सब धर्मों का था भेद मिटाया
रामनवमी के संग-संग उर्स मनाया
सब ही धर्मों का मालिक एक है भाई
हर भक्त को येही शिक्षा देते थे साईं
जब जिसने जिस भाव में साईं को ध्याया
वैसे ही रूप में साईं ने खुद को दिखाया
कोई उन्हें अपने गुरू रूप में पाता
कोई उन्हें ईश मान सिर को झुकाता
साईं के प्रति सबके दिल में सम्मान था रहता
कोई उन्हें चन्दन, कोई इत्र लगाता
लाखों बार धन्य है वो धरती माता
प्रकटे जहां पे श्री शिर्डी के नाथा
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए॥
हर प्राणी में ईश्वर का वास बताया,
सब जीवों से प्यार करो ये भी सिखाया
भूखे को दिए भोजन में स्वयं को तृप्त दिखाकर
इस सृष्टि में खुद होने का आभास कराया
दिखने में साईं एक सामान्य पुरुष थे
मात्र भक्तों के कल्याण की चिंता में रहते थे
वैराग्य, तप, ज्ञान, योग उनमें भरा था
वो सत्पुरुष एकदम आसक्ति रहित था
शरणागत भक्तों के साईं बने आश्रयदाता
हर जन के वो प्रभु सबके भाग्य विधाता
उनके भक्तों का उन पर अटूट प्रेम था
श्री साईं का दिव्य स्वरुप ऐसा ही था
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
साईं की लीला सुन के लोग दौड़े थे आते
और उनके आगे बैठ के फरियाद सुनाते
भिक्षा में मिले भोजन को साईं बाँट के खाते
कुत्ते बिल्ली को दे के वो तृप्त हो जाते
बाबा ने कभी किसी से न घृणा ही करी
रोगी और अपाहिज की खुद सेवा ही करी
भागो जी की काया में जहां-तहां घाव थे भरे
वो कोढ़ से पीड़ित हो सह रहे थे कष्ट बड़े
साईं-कृपा से भागो जी कष्ट से मुक्ति पा गए
और साईं सेवा करके तो धन्य ही हो गए
सचमुच करुणा के अवतार थे साईं
हर कष्ट, दुःख से जिन्होंने मुक्ति दिलाई
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
साईं की शरण में जो एक बार आ गया
साईं-कृपा को वो तो पल में ही पा गया
ममता की मूरत बन कर साईं आए थे शिर्डी
आंचल की छांव आज भी देती वही शिर्डी
साईं जी ने दी थी कोढ़ी को भी काया
फिर भागो जी की सेवा ले के मान बढ़ाया
श्री साईं ने दौलत से ना कभी प्यार था किया
भिक्षा पे ही अपना जीवन बिता दिया
गर दक्षिणा जो लेते साईं कभी किसी से
लौटाते उसको अपने हज़ार हाथों से
शिर्डी में एक दिन घोर झंझावात आया
बाबा उस पे गरजे और शांत कराया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
बाबा के चरणकमलों में सारे धाम हैं बसे
उनमें ही राम-श्याम हैं, रहमान हैं बसे
उनमें ही गीता, बाइबिल, उनमें कुरान है
उनमें ही सारे वेद सारे पुराण हैं
इंसानियत के धर्म का प्रतीक थे साईं
धूनी जला के लोगों की पीड़ा थी मिटाई
काका ने जब गीता का था श्लोक सुनाया
तब साईं ने ही उसका अर्थ बताया
बाबा के गीता-ज्ञान से हैरान थे सभी
बाबा की लीलाओं से अनजान थे सभी
साईं हर भक्त की पीड़ा खुद पे लेते
और बदले में उसको सुख-शांति देते
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
एक बार भीमा जी को क्षयरोग हो गया
तब साईं भक्त नाना ने उसको बताया
अब एक मार्ग शेष है बस साईं चरण का
उनकी कृपा से ही जाएगा रोग तन का
भीमा जी पहुँचे शिर्डी और बाबा से कहा
मुझपे दया करो मैं आया हूं यहां
इस विनती से बाबा का दिल पिघल गया
की ऐसी दया उस पर रोग नष्ट हो गया
साईं ने सपने में हृदय पर पाषाण घुमाया
और पल भर में क्षयरोग को मार भगाया
आनंदित हो भीमा जी निज गाँव आ गया
फिर उसने नया सत्य साईं व्रत चलाया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
जो काम, क्रोध, अहंकार में है दब गया,
वो इंसान जीते जी मानों मर गया
उस व्यक्ति को ब्रह्मज्ञान प्राप्त कैसे हो सकता
जो इंसान मोह-माया में उलझ गया
बाबा के पास ऐसा ही एक व्यक्ति आया,
वो ब्रह्मज्ञान चाहता पर उससे छूटी न माया
बाबा ने उसे जेब की ब्रह्मरूपि माया को दिखाया
साईं की सर्वज्ञता से वह द्रवित हो गया 
साईं के चरणों में गिरकर वो माफी मांगने लगा
रोने लगा और गिड़गिड़ाने भी लगा
बाबा की शिक्षा का उसपे फिर असर पड़ गया
संतोषपूर्वक वो अपने घर को लौट गया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
साईं ने हेमांड से जो था लिखाया
जिसने भी आत्मसात् किया, मुक्ति पा गया
फिर दासगणु को भी आशीष दे दिया
वो भी साईं चरणों में जगह पा गया
बाबा का यश फिर चारों ओर फैल गया
और देखते ही देखते शिर्डी तीर्थ बन गया
साईं दोनों हाथों से ऊदी को देते
भक्तों के कल्याण हेतु शिक्षा भी देते
बाबा की छवि थी सारे जग से ही न्यारी
लीलाएं उनकी अनंत थी, बड़ी चमत्कारी
साईं के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम थे
जो उसका हो गया, वो बड़ा खुशनसीब था
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
कभी कृष्ण बन कर रिझाते थे साईं
कभी घुंघरू बांध नाचते थे साईं
कभी उन्होंने चंडी का रूप धर लिया
कभी शिव भोला बन जाते थे साईं
श्री साईं बाबा सदा आत्मलीन रहते थे
सुखों की कभी न कोई चाह करते थे
उनके लिए अमीर-गरीब एक समान थे
बाबा हर भक्त का रखते ध्यान थे
वे सदा एक आसन पर बैठे रहते थे
भक्तों के कल्याण में ही लगे रहते थे
अल्लाह मालिक सदा ही उनके होठों पे रहता
वो संत पूर्ण ब्रह्मज्ञानी प्रतीत-सा होता
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
श्री साईं खुद को मालिक का दास कहते थे
भक्तों की सारी विपदाएं अपने ऊपर लेते थे
बाबा दया के सागर थे और धाम करुणा के
वो ही हरते थे दुःख सारे जग के
जिनके हृदय में बस गए श्री साईंनाथा
उनका कोई अमंगल करने ना पाता
कांशीराम नाम का एक साईं भक्त था
वो बाबा को हमेशा ही दक्षिणा देता था
बाबा उन पैसों को औरों को बांटते
दक्षिणा ले के दान का सही मर्म बताते
कांशीराम के दिल में एक दिन बात ये आई
मेरा ही धन औरों में बांटने से इनकी कौन बड़ाई
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
अंतर्यामी साईं ने उसका अहं है जान लिया
एक झटके में उसका सारा धन समेट लिया
निर्धन फिर बन गया कांशी भाई
अपनी ही चतुराई उसके काम ना आई
कांशीराम अहं पे अपने लज्जित हो गया
बाबा के चरणों में वो आकर गिर गया
श्री साईं को उस पे फिर दया आ गई
लीला रच के लौटा दी उसकी सारी कमाई
इस जग में कौन दाता है, कौन भिखारी
कांशीराम को ये बातें फिर समझ हैं आईं
साईं बाबा में है सारी दुनिया समाई
बाबा की लीलाएं किसी की समझ न आई
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
श्री साईं भक्तों की इच्छा का मान थे रखते
किसी एक में दूजे की मर्ज़ी सहन ना करते
कभी भक्तों से विनोदपूर्ण हास्य भी करते
कभी उनके क्रोध से भक्त थे डरते
सभी भक्त मिल साईं से प्रार्थना करते
चरणों में उनके सब अपना अर्पण करते
हे प्रभु साईं, प्रवृत्ति को हमारी अंतर्मुखी बना दो
सत्य और असत्य का हम में विवेक जगा दो
बाबा की दृष्टि से सब रोग नष्ट हो जाते
मरणासन्न रोगी भी जीवनदान पा जाते
व्रत और उपवास कुछ भी जब काम ना आता
तो साईं-साईं ही प्रभु से भेंट कराता
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
शिर्डी में एक बार भजन मंडली आई
भजनों से धन कमाने का संग लक्ष्य भी लाई
मंडली बहुत ही सुंदर भजन गाती थी
उनमें से एक स्त्री बाबा पे श्रद्धा रखती थी
साईं उसकी भक्ति से उस पर प्रसन्न हो गए
श्री राम रूप में उसे दर्शन भी दे दिए
निज ईष्ट के दर्शन से वह द्रवित हो गई
आँखों से उसके आंसुओं की धारा बह गई
वो प्रेम में डूब-डूब नाचने लगी
खुश हो-हो कर ताली बजाने लगी
श्री साईं के चरणों में फिर ऐसी दृष्टि गड़ गई
मन से वह शांत, स्थिर और संतृप्त हो गई
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
शिर्डी आना-जाना सब साईं के वश में
भक्तों की चाह को वो पूरी करते हैं पल में
उनकी इच्छा बिना ना कोई शिर्डी से जा सका
साईं की मर्ज़ी के बिना ना शिर्डी ही आ सका
काका जी एक बार आना चाहते थे शिर्डी
बाबा की इच्छा से ही शामा संग आ गए शिर्डी
बाबा की छवि देख काका तृप्त हो गए
लीलाएं उनकी सुनकर शरणागत ही हो गए
ठीक ऐसे ही बाबा ने रामलाल को कहा
सपने में उसको शिर्डी आने को कहा
गद्गद् हो कर रामलाल शिर्डी आ गया
फिर शिर्डी से कहीं और नहीं वो गया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
संजीवनी समान ऊदी देते साईंनाथ
माथे पे सबके लगा दुआ देते साईंनाथ
ऊदी ने ऐसे-ऐसे चमत्कार दिखाए
जैसे साईं से सारा जग जीवन है पाए
जब एक बार मैना की प्रसव-पीड़ा बढ़ गई
तब बाबा की ऊदी उसकी रक्षक बन गई
स्वयं साईं ही गाड़ी ले जामनेर थे आए
पर अपनी इस लीला को थे सबसे छुपाए
ऊदी का घोल पीने से सब ठीक हो गया
मैना के सुत से हर दिल प्रसन्न हो गया
कोई ना जान सका था प्रभु की ये माया
भक्तों की खातिर बाबा ने हर रूप बनाया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
मेधा का भ्रम दूर करने की चाह में,
सपने में साईं ने उसे त्रिशूल था दिया
शिव चरणों में फिर अपनी प्रीत के कारण
मेधा ने बाबा को शिव-शंकर ही मान लिया
साईं का न कोई रूप था और न कोई अंत
सर्वभूतों में व्याप्त श्री साईं थे अनंत
साईं साईं साईं साईं जिसने जप लिया
भव के सागर से वो तो पार उतर गया
जो भी श्री साईं की नित स्तुति है गाता
बिन मांगे वो सब ही शीघ्र है पाता
मेधा की मौत पे साईं ने शोक जताया
और उसको अपना सच्चा भक्त बताया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
किस काम में भक्तों का भला साईं ही जानते
हर भक्त को सदा इसलिए वो ही काम कराते
भक्तों के लिए कल्पतरू हैं श्री साईंनाथ
असंभव को संभव बनाते श्री साईंनाथ
शामा श्री साईं का एक अनन्य भक्त था
बाबा की कृपादृष्टि से वो भरा-पूरा था
बाबा की लीलाएं किसी की समझ में ना आई
शामा हेतु रामदास की पोथी चुराई
रामदास हठी था, वो शामा से भिड़ गया
बाबा के समझाने पर वह शांत हो गया
निज पोथी के बदले पंचरत्नी गीता थी पाई
दोनों के लिए क्या सही, ये जानते थे साईं
श्री साईं गाथा सुनिए जय साईंनाथ कहिए
जब कष्ट अधिक देने लगी नासूर की पीड़ा
तब पिल्लई जी दुखी हो गए और अति अधीरा
वे मन ही मन बाबा से विनती करने लगे
जहां में तुम सा कोई नहीं, कहने ये लगे
बाबा ने अचानक उसे मस्जिद में बुलाया
और अब्दुल को ही उसका चिकित्सक था बनाया
फिर अब्दुल का पैर घाव पे पड़ गया
समझाने-बुझाने का तो वक्त ही निकल गया
पेहले पिल्लई चिल्लाए, फिर शांत हो गए
और गाने की मस्ती में वो खो गए
जहाँ में नुमायां तेरी ही शान है
तू ही दोनों आलम का सुल्तान है
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
जिसने भी साईं बाबा को दिल से जब था पुकारा
साईं ने दिया उसको तुरंत बढ़ के सहारा
साईं को जब भी श्रद्धा से तुम याद करोगे
तब ही साईं को अपने पास पाओगे
वीर-चैनब में जब था भेद समाया
तो दोनों ने सर्प-मेंडक की योनि को पाया
इस जन्म में भी दोनों में बैर बढ़ गया
तब साईं के प्रयत्नों से उनका मतभेद मिट गया
हैं धन्य साईंनाथ, उनकी महिमा अति भारी
हृदय में बस जाए, ऐसी छवि भी है प्यारी
भगवान भी भक्तों के अधीन हैं रहते
संकट पड़ता भक्त पे तो पीछे ना रहते
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
बाबा ने अन्नदान को महादान बताया
भूखे की भूख मिटाने को ही पूजा बताया
बाबा भक्तों को खुद भोजन कराते थे
खाना खुद पकाते और बांटते भी थे
कभी-कभी साईं दाल-मटुकुले बनाते
कभी मीठे चावल और पुलाव बनाते
खाने से पहले मौलवी फातिहा भी पढ़ते
फिर म्हालसापति, तांत्या का हिस्सा अलग ही रखते
धन्य रहे वे लोग, जिन्होंने ऐसा भोजन खाया
बाबा का उसके संग आशीष भी पाया
हैं साईंनाथ ऐसा भाग्य सब को ही दे दो
अमृत रूप में अपनी करुणा सब को ही दे दो
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
रंग साईं का मन पे चढ़ गया जो एक बार
साईं भक्ति में झूमेगा वो तो हज़ार बार
बाबा ने कहा जब भी मुझे तुम याद करोगे
सात समंदर पार भी मुझको अपने पास पाओगे
एक दिन बाबा से मिलने गोवा से सज्जन थे आए
दोनों ही बाबा के लिए कुछ दक्षिणा भी लाए
बाबा ने एक से ले, दुसरे को अस्वीकार कर दिया
और उनका सारा हाल सबको सच बता दिया
बाबा के ऐसा करने पर वे आश्चर्यचाकित हो गए
साईं की महिमा जान दोनों के आंसू ही बह गए
श्री साईं सर्वव्यापी अनंत परब्रह्मस्वरूप हैं
शिर्डी के बाहर भी उनका व्यापा स्वरूप है
श्री साईं गाथा सुनिए जय साईंनाथ कहिए
साईं को एक ईंट से बेहद लगाव था
आत्मचिंतन करने में उसका बड़ा हाथ था
दिन में साईं उस पर हाथ टेक कर रखते
और रात में सिर के नीचे रख शयन थे करते
एक दिन किसी बालक से वो ईंट टूट गई
बाबा ने कहा, मेरी तो किस्मत ही फूट गई
बाबा को वेह अपने प्राणों से थी अति प्यारी
हर चीज़ के प्रीत उनकी ममता थी अति न्यारी
बाबा के निर्वाण पूर्व का यह एक अपशकुन था
कहने को ईंट का टूटना एक सूचना स्वरूप था
मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाला तत्त्व साईं हैं
जिसका न रूप है, न अंत है, वही तो साईं है
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
साईं तो है इस पूरे ब्रह्मांड के नायक
दुःख हरते सब तरह से बनते हैं सहायक
माँ बायजा का ऋण साईं ने ऐसे चुकाया
तांत्या का जीवन मौत के हाथों बचाया
तांत्या बच गया और साईं चले गए 
देखते ही देखते समाधिस्थ हो गए
जिसने भी सुना वो स्तब्ध रह गया
एक पल में शिर्डी में मातम ठहर गया
देह छोड़ने से पहले बाबा ने लक्ष्मी से था कहा
तेरी भक्ति को याद रखेगा ये सारा जहाँ
बाबा ने उसे भक्ति के नौ रूप थे दिए
नौ सिक्कों के रूप में भक्ति के नए अर्थ दे दिए
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
बाबा के देह त्यागने की जब खबर फैल गई
शिर्डी में चारों ओर से भीड़ जमा हो गई
शिर्डी के नर-नारी मस्जिद की ओर दौड़ पड़े
कुछ रोने लगे और कुछ बेसुध होकर गिर पड़े
अब बाबा की अंतिम क्रिया की बहस चल पड़ी
साईं हिन्दू थे या मुसलमान, चर्चा ये चल पड़ी
कुछ यवन बाबा को दफ़नाने को कहने लगे,
कुछ बाबा को बूटीवाडे में रखने की फरियाद करने लगे
आखिर में सबने बूटीवाडे में रखने का फैंसला किया
इसके लिए उसका बीच का भाग खोदा गया
बाबा बूटीवाडे को सार्थक कर गए
मुरलीधर की जगह साईं खुद मुरलीधर ही बन गए
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
कहने को तो साईं का साकार रूप लुप्त हो गया
बाबा का हाथ भक्तों के सिर पे से उठ गया
पर आज भी शिर्डी में बाबा विराजमान हैं
समाधी में जैसे श्री साईं के बसे प्राण हैं
साईं ने ग्यारह वचनों में वरदान जो दिए
वो सब के सब आज भी पूरे हैं किए
साईं बाबा आज भी कष्टों को हैं हरते
अन्न-धन देकर सबकी झोलियाँ हैं भरते
शिर्डी में साईं की धूनी आज भी है जलती
भक्तों की सारी आशाएं पूरी है करती
हर वीरवार बाबा का दरबार यहाँ सजता
पालकी के संग-संग मेला-सा जुड़ता
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
शिर्डी में आज भी दुनिया भर से लोग हैं आते
मुहमांगी मुरादें यहाँ से पल में पा जाते
जब भोर के समय होती है काकड़ आरती
कहते हैं उस समय देवता भी शिर्डी में हैं आते
धरती से ले के आकाश तक साईं नाम गूंजता
छोटा-बड़ा हर प्राणी साईं-भक्ति में झूमता
फिर मंगल-स्नान साईं का जब है होता
हर भक्त उसमें अपना सहयोग है देता
कोई फूल-हार, कोई चादर है लाता
अपने-अपने ढंग से हर कोई साईं को रिझाता
समाधि पे तब साईं की, सब सिर को झुकाते
अपने-अपने दिल का हाल अपने साईं को सुनाते
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
शिर्डी में गुरुस्थान की महिमा है अपरंपार
जो भी लगाता चक्कर इसके ग्यारह ही बार
हर पीड़ा से भक्त वो मुक्ति पा जाता
जो बैठ यहाँ साईं नाम है गाता
साईं का नीम आज भी भक्तों को छांव है देता
पत्तों के उससे हर कोई मिठास ही लेता
गुरुस्थान में बाबा के गुरु को शीश नवाकर
हर कोई उनसे भी है आशीष ही पाता
बाबा की चरण-पादुका पे फूल-हार चढ़ाकर
लोबान और अगरबत्ती यहाँ पे जलाकर
हर भक्त सुख-शांति सब प्यार है पाता
और साईं की दुआओं को संग अपने पाता
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
महिमा द्वारिकामाई की भी है अति न्यारी
भक्तों की माँ जैसी यह सबकी दुलारी
जो भी इसकी गोद में एक बार बैठता
अपने सारे दुःख माँ की झोली में डालता
रात-दिन यहाँ जलती है धूनी माई
देख जिसको याद आ जाते हैं जय श्री साईं
धूनी की भस्म ऊदी को हर भक्त माथे पे लगाता
और साथ ले के उसको अपने घर भी आता
ऊदी में आज भी वही संजीवनी शक्ति
साईं की दुआ से ये बढ़ाती साईं-भक्ति
जिसने भी यहाँ भूखों को भोजन करा दिया
वो साईं-भक्त साईं-कृपा को पल में ही पा गया
श्री साईं गाथा सुनिए। श्री साईंनाथ सुनिए।।
साईं की चावडी भी अद्भुत अति सुंदर ,
लगता है साईं विश्राम कर रहे हैं अब भी अन्दर
गुरूवार के दिन यहाँ पे रंगोली है सजती,
हर्षाये मन से सबकी आँखे उसे तकती 
स्वर्ग से भी सुन्दर दृश्य यहाँ पे सजता 
साईं मनो हर रूप में सबके कष्ट हरता 
ढोल - मंजीरे सब वाद्य भी बजते,
और भक्त लोग झूम झूम साईं आरती करते
बाबा की सारी लीलाएं तब सजीव हो जातीं
जब फूलों की बरखा यहाँ हैं होती
मस्जिद से चलकर जब आती है पालकी 
शिव भोले की हो मानो विवाह की झांकी 
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईं नाथ कहिये।।
साईं में शिव और शिव में हैं साईं 
यही लीला साईं नाथ ने भी दिखाई 
शिव-साईं की महिमा तो है बड़ी न्यारी 
भोले में बसी साईं की छवि है प्यारी 
मंदिर परिसर में भी साईं ने बनाया शिव मंदिर 
साईं में शिव की झलक दिखाता यही मंदिर 
शिव का जो भी भक्त यहाँ दर्शन करता 
और ॐ साईं, ॐ साईं, मुंह से कहता 
सब कर्मों की गति से वह तुरंत छूट जाता,
यहीं शनि प्रतिमा के आगे जो दीपक जलाता 
इस मंदिर के दर्शन जो एक बार कर गया
वो साईं-भक्त साईं का प्यार पा गया
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
बाबा ने कहा था जो मुझे प्रेम है करता
वह सदा ही अपनी झोलियां हैं भरता
उसके लिए मेरे बिना ये संसार है सूना
वह सतत मेरा ही ध्यान है करता 
जो मुझे अर्पण किए बिना भोजन नहीं करता
वह सदा ही मेरा कृपा का पात्र है बनता 
जो व्यक्ति दूसरों को पीड़ा देता है
वह उसे नहीं, मुझको भी दुःख देता है 
भक्तों की भलाई हेतु साईं ने अवतार था लिया 
देह को नश्वर मान उनको था मुक्त किया 
जगतारण बन कर ही आये थे साईं 
दुष्टजनों के संग भी उन्होंने प्रीती दिखाई 
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए।।
श्री साईं सारी सृष्टि के कण - कण में हैं बसे 
हर प्राणी की हर सांस में भी हैं वो बसे 
फूलों की खुशबू में भी साईं नाम है बसता
पक्षियों के मधुर गान में भी साईं नाम गूंजता 
श्रीराम साईं हैं और रहीम है साईं
गीता, बाइबिल और कुरान हैं साईं
मंदिर के घंटे की गूँज में हैं साईं
मस्जिद की हर अज़ान में भी हैं साईं
साईं बाबा आज भी भक्तों के हैं आश्रयदाता
वही सबके प्रभु हैं इस जग के विधाता 
ऐसे सर्वेश्वर को सौ बार नमन है मेरा 
दीनों के नाथ को प्रणाम है मेरा 
श्री साईं गाथा सुनिए। जय साईंनाथ कहिए ।।
Anuradha Ramani


sai

जो साईं शरणागत होते हैं, वे उन्हें सरंक्षण प्रदान करते हैं I उनके इसी वचन के कारण भक्त उनके चरणों का आलिंगन करते हैं और वे भी (बाबा) भक्तो को दूर नहीं करते I 
It is because of Sai's sacred credo that he protects those that have surrendered to him that devotee embrace his feet and he will not drive him away.

Thursday, December 27, 2012

श्री साई सच्चरित्र अध्याय (8)


अध्याय 8 

मानव जन्म का महत्व, श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति, बायजाबई की सेवा-शुश्रूशा, श्री साईबाबा का शयनकक्ष, खुशालचन्तद पर प्रेम ।
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जैसा कि गत अध्याय में कहा गया है, अब श्री हेमाडपन्त मानव जन्म की महत्ता को विस्तृत रुप में समझाते हैं । श्रीसाईबाबा किस प्रकार भिक्षा उपार्जन करते थे, बायजाबाई उनकी किस प्रकार सेवा-शुश्रूशा करती थी, वे मस्जिद में तात्या कोते और म्हालसापति के साथ किस प्रकार शयन करते तथा खुशानचन्द पर उनका कैसा स्नेह था, इसका आगे वर्णन किया जायेगा ।

मानव जन्म का महत्व
इस विचित्र संसार में ईश्वर ने लाखों प्राणियों (हिन्दू शास्त्र के अनुसार 84 लाख योनियों) को उत्पन्न किया है (जिनमें देव, दानव, गन्धर्व, जीवजन्तु और मनुष्य आदि सम्मिलित है), जो स्वर्ग, नरक, पृथ्वी, समुद्र तथा आकाश में निवास करते और भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं । इन प्राणियों में जिनका पुण्य प्रबल है, वे स्वर्ग में निवास करते और अपने सत्कृत्यों का फल भोगते हैं । पुण्य के क्षीण होते ही वे फिर निम्न स्तर में आ जाते हैं; और वे प्राणी, जिन्होंने पाप या दुष्कर्म किये हैं, नरक को जाते और अपने कुकर्मों का फल भोगते हैं । जब उनके पाप और पुण्यों का समन्वय हो जाता है, तब उन्हें मानव-जन्म और मोक्ष प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है । जब पाप और पुण्य दोनों नष्ट हो जाते है, तब वे मुक्त हो जाते हैं । अपने कर्म तथा प्रारब्ध के अनुसार ही आत्माएँ जन्म लेतीं या काया-प्रवेश करती हैं ।

मनुष्य शरीर अनमोल
यह सत्य है कि समस्त प्राणियों में चार बातें एक समान है – आहार, निद्रा, भय और मैथुन । मानव प्राणी को ज्ञान एक विशेष देन हैं, जिसकी सहायता से ही वह ईश्वर-दर्शन कर सकता है, जो अन्य किसी योनि में सम्भव नहीं । यही कारण है कि देवता भी मानव योनि से ईष्रर्य़ा करते हैं तथा पृथ्वी पर मानव-जन्म धारण करने के हेतु सदैव लालायित रहते है, जिससे उन्हें अंत में मुक्ति प्राप्त हो ।
किसी-किसी का ऐसा भी मत है कि मानव-शरीर अति दोषयुक्त है । यह कृमि, मज्जा और कफ से परिपूर्ण, क्षण-भंगुर, रोग-ग्रस्त तथा नश्वर है । इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कथन अंशतः सत्य है । परन्तु इतना दोषपूर्ण होते हुए भी मानव शरीर का मूल्य अधिक है, क्योंकि ज्ञान की प्राप्ति केवल इसी योनि में संभव है । मानव-शरीर प्राप्त होने पर ही तो ज्ञात होता है कि यह शरीर नश्वर और विश्व परिवर्तनशीन है; और इस प्रकार धारणा कर इन्द्रिय-जन्य विषयों को तिलांजलि देकर तथा सत्-असत् का विवेक कर ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है । इसलिये यदि हम शरीर को तुच्छ और अपवित्र समझ कर उसकी उपेक्षा करे तो हम ईश्वर दर्शन के अवसर से वंचित रह जायेंगे । यदि हम उसे मूल्यवान समझ कर उसका मोह करेंगे तो हम इन्द्रिय-सुखों की ओर प्रवृत्त हो जायेंगे और तब हमारा पतन भी सुनिशि्चत ही हैं ।
इसलिये उचित मार्ग, जिसका अवलम्बन करना चाहिये, यह है कि न तो देह की उपेक्षा ही करो और न ही उसमें आसक्ति रखो । केवल इतना ही ध्यान रहे कि किसी घुड़सवार का अपनी यात्रा में अपने घोड़े पर तब तक ही मोह रहता है, जब तक वह अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच कर लौट न आए।
इसलिये ईश्वर दर्शन या आत्मसाक्षात्कार के निमित्त शरीर को सदा ही लगाये रखना चाहिये, जो जीवन का मुख्य ध्येय है । ऐसा कहा जाता है कि अनेक प्राणियों की उत्पत्ति करने के पश्चात् भी ईश्वर को संतोष नहीं हुआ; कारण यह है कि कोई भी प्राणी उसकी अलौकिक रचना और सृष्टि को समझने में समर्थ न हो सका और इसी कारण उसने एक विशेष प्राणी अर्थात् मानव जाति की उत्पत्ति की और उसे ज्ञान की विशेष सुविधा प्रदान की । जब ईश्वर ने देखा कि मानव उसकी लीला, अद्भभुत रचनाओं तथा ज्ञान को समझने के योग्य है, तब उन्हें अति हर्ष एवं सन्तोष हुआ । (भागवत स्कंध 11-9-28 के अनुसार) । इसलिये मानव जन्म प्राप्त होना बड़े सौभाग्य का सूचक है । उच्च ब्राह्मण कुल में जन्म लेना तो परम सौभाग्य का लक्षण है, परन्तु श्री साई-चरणाम्बुजों में प्रीति और उनकी शरणागति प्राप्त होना इन सभी में अति श्रेष्ठ हैं ।

मानव का प्रत्यन
इस संसार में मानव-जन्म अति दुर्लभ है । हर मनुष्य की मृत्यु ते निश्चित ही है और वह किसी भी क्षण उसका आलिंगन कर सकती है । ऐसी ही धारणा कर हमें अपने ध्येय की प्राप्ति में सदैव तत्पर रहना चाहिये । जिस प्रकार खोये हुये राजकुमार की खोज में राजा प्रत्येक सम्भव उपाय प्रयोग में लाता है, इसी प्रकार किंचित् मात्र भी विलंब न कर हमें अपने अभीष्ट की सिद्धि के हेतु शीघ्रता करनी ही सर्वथा उचित है । अतः पूर्ण लगन और उत्सुकतापूर्वक अपने ध्येय, आलस्य और निद्रा को त्याग कर हमें ईश्वर का सर्वदा ध्यान रखना चाहिये । यदि हम ऐसा न कर सकें तो हमें पशुओं के स्तर पर ही अपने को समझना पड़ेगा ।

कैसे प्रवृत्त होना ?
अधिक सफलतापूर्वक और सुलभ साक्षात्कार को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है - किसी योग्य संत या सदगुरु के चरणों की शीतल छाया में आश्रय लेना, जिसे कि ईश्वर-साक्षात्कार हो चुका हो । जो लाभ धार्मिक व्याख्यानों के श्रवण करने और धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन करने से प्राप्त नहीं हो सकता, वह इन उच्च आत्मज्ञानियों की संगति से सहज ही में प्राप्त हो जाता है । जो प्रकाश हमें सूर्य से प्राप्त होता है, वैसा विश्व के समस्त तारे भी मिल जायें तो भी नहीं दे सकते । इसी प्रकार जिस आध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि हमें सदगुरु की कृपा से हो सकती है, वह ग्रन्थों और उपदेशों से किसी प्रकार संभव नहीं है । उनकी प्रत्येक गतिविधि, मृदु-भाषण, गुह्य उपदेश, क्षमाशीलता, स्थिरता, वैराग्य, दान और परोपकारिता, मानव शरीर का नियंत्रण, अहंकार-शून्यता आदि गुण, जिस प्रकार भी वे इस पवित्र मंगल-विभूति द्वारा व्यवहार में आते है, सत्संग 
द्वारा भक्त लोगों को उसके प्रत्यक्ष दर्शन होते है । इससे मस्तिष्क की जागृति तथा उत्तरोत्तर आध्यात्मिक उन्नति होती है । श्री साईबाबा इसी प्रकार के एक संत या सदगुरु थे । यद्यपि वे बाह्यरुप से एक फकीर का अभिनय करते थे, परन्तु वे सदैव आत्मलीन रहते थे । वे समस्त प्राणियों से प्रेम करते और उनमें भगवत्-दर्शन का अनुभव करते थे । सुखों का उनको कोई आकर्षण न था और न वे आपत्तियों से विचलित होते थे । उनके लिये अमीर और फकीर दोनों ही एक समान थे । जिनकी केवल कृपा से भिखारी भी राजा बन सकता था, वे शिरडी में द्वार-द्वार घूम कर भिक्षा उपार्जन किया करते थे । यह कार्य वे इस प्रकार करते थे –

श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति
शिरडीवासियों के भाग्य की कौन कल्पना कर सकता है कि जिनके द्वार पर परब्रह्म भिक्षुक के रुप में खड़े रहकर पुकार करते थे, "ओ माई । एक रोटी का टुकड़ा मिले" और उसे प्राप्त करने के लिये अपना हाथ फैलाते थे । एक हाथ में वे सदा 'टमरेल' लिये रहते तथा दूसरे में एक 'झोली' । कुछ गृहों में तो वे प्रतिदिन ही जाते और किसी-किसी के द्वार पर केवल फेरी ही लगाते थे । वे साग, दूध या छाँछ आदि पदार्थ तो टिनपाट में लेते तथा भात व रोटी आदि अन्य सूखी वस्तुएँ झोली में डाल लेते थे । बाबा की जिव्ह्या को कोई स्वाद-रुचि न थी, क्योंकि उन्होंने उसे अपने वश में कर लिया था । इसलिये वे भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वाद की चिन्ता क्यों करते? जो कुछ भी भिक्षा में उन्हें मिल जाता, उसे ही वे मिश्रित कर सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे ।
अमुक पदार्थ स्वादिष्ट है या नही, बाबा ने इस ओर कभी ध्यान ही न दिया, मानो उनकी जिव्ह्या में स्वाद बोध ही न हो । वे केवल मध्याहृ तक ही भिक्षा-उपार्जन करते थे। यह कार्य बहुत अनियमित था । किसी दिन तो वो छोटी सी फेरी ही लगाते तथा किसी दिन बारह बजे तक। वे एकत्रित भोजन एक कुण्डी में डाल देते, जहाँ कुत्ते, बिल्लियाँ, कौवे आदि स्वतंत्रतापूर्वक भोजन करते थे । बाबा ने उन्हें कभी नहीं भगाया । एक स्त्री भी, जो मस्जिद में झाडू लगाया करती थी, रोटी के दस-बारह टुकड़े उठाकर अपने घर ले जाती थी, परन्तु किसी ने कभी उसे नहीं रोका। जिन्होंने स्वप्न में भी बिल्लियों और कुत्तों को कभी दुतकार कर नहीं भगाया, वे भला निस्सहाय गरीबों को रोटी के कुछ टुकड़ो को उठाने से क्यों रोकते? ऐसे महान् पुरुष का जीवन धन्य हैं। शिरडीवासी तो पहले पहल उन्हें केवल एक 'पागल' ही समझते थे और वे शिरडी में इसी नाम से विख्यात भी हो गये थे । जो भिक्षा के कुछ टुकडो पर निर्वाह करता हो, भला उसका कोई आदर कैसे करता? परंतु ये तो उदार हृदय, त्याती और धर्मात्मा थे । यद्यपि वे बाहर से चंचल और अशान्त प्रतीत होते थे, परन्तु अन्तःकरण से दृढ़ और गंभीर थे । उनका मार्ग गहन तथा गूढ़ था । फिर भी ग्राम में कुछ ऐसे श्रद्धावान् और सौभाग्यशाली व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें पहचान कर एक महान् पुरुष माना । ऐसी ही एक घटना नीचे दी जाती हैं ।

बायजाबई की सेवा
तात्या कोते की माता, जिनका नाम बायजाबाई था, दोपहर के समय एक टोकरी में रोटी और भाजी लेकर जंगल को जाया करती थीं । वे जंगल में कोसों दूर जाती और बाबा को ढूँढ़कर उनके चरण पकड़ती थीं । बाबा तो शान्त और ध्यानमग्न बैठे रहते थे । वे एक पत्तल बिछाकर उस पर सब प्रकार के व्यंजनादि जैसे-रोटी, साग आदि परोसती और बाबा से भोजन कर लेने के लिये आग्रह करती । उनकी सेवा तथा श्रद्धा की रीति बड़ी ही विलक्षण थी – प्रतिदिन दोपहर को जंगल में बाबा को ढूँढ़ना और भोजन के लिये आग्रह करना । उनकी सेवा और उपासना की स्मृति बाबा को अपने अन्तिंम क्षणों तक बनी रही । उनकी सेवा का ध्यान कर बाबा ने उनके पुत्र को बहुत लाभ पहुँचाया । माँ और बेटे दोनों की ही फकीर पर दृढ़ निष्ठा थी । उन्होंने बाबा को सदैव ईश्वर के समान ही पूजा । बाबा उनसे कभी-कभी कहा करते थे कि "फकीरी ही सच्ची अमीरी है । उसका कोई अन्त नहीं । जिसे अमीरी के नाम से पुकारा जाता है, वह शीघ्र ही लुप्त हो जाने वाली है ।" कुछ वर्षों के बाद बाबा ने जंगल में विचरना त्याग दिया । वे गाँव में ही रहने और मस्जिद में ही भोजन करने लगे । इस कारण बायजाबाई को भी उन्हें जंगल में ढूँढ़ने के कष्ट से छुटकारा मिल गया ।

तीनों का शयन-कक्ष
वे सन्त पुरुष धन्य है, जिनके हृदय में भगवान वासुदेव सदैव वास करते है । वे भक्त भी भाग्यशाली है, जिन्हें उनका सालिध्य प्राप्त होता है । ऐसे ही दो भाग्यशाली भक्त थे ।
तात्या कोते पाटील और
भगत म्हालसापति ।
दोनों ने बाबा के सानिध्य का सदैव पूर्ण लाभ उठाया । बाबा दोनों पर एक समान प्रेम रखते थे । ये तीनों महानुभाव मस्जिद में अपने सिर पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर की ओर करते और केन्द्र में एक दूसरे के पैर से पैर मिलाकर शयन किया करते थे । बिस्तर में लेटे-लेटे ही वे आधी रात तक प्रेमपूर्वक वार्तालाप और इधर-उधर की चर्चायें किया करते थे । यदि किसी को भी निद्रा आने लगती तो दूसरा उसे जगा देता था । यदि तात्या खर्राटे लेने लगते तो बाबा शीघ्र ही उठकर उसे हिलाते और सिर पकड़ कर जोर से दबाते थे । यदि कहीं वह म्हालसापति हुए तो उन्हें भी अपनी ओर खींचते और पैंरों पर धक्का देकर पीठ थपथपाते थे । इस प्रकार तात्या ने 14 वर्षों तक अपने माता-पिता को गृह ही पर छोड़कर बाबा के प्रेमवश मस्जिद में निवास किया । कैसे सुहाने दिन थे वे । उनकी क्या कभी विस्मृति हो सकती है ? उस प्रेम के क्या कहना? बाबा की कृपा का मूल्य कैसे आँका जा सकता था ? पिता की मृत्यु होने के पश्चात तात्या पर घरबार की जिम्मेदारी आ पड़ी, इसलिये वे अपने घर जाकर रहने लगे ।

राहाता निवासी खुशालचन्द
शिरडी के गणपत तात्या कोते को बाबा बहुत ही चाहते थे । वे राहाता के मारवाड़ी सेठ श्री. चन्द्रभान को भी बहुत प्यार करते थे । सेठजी का देहान्त होने के उपरांत बाबा उसके भतीजे खुशालचन्द को भी अधिक प्रेम करते थे । वे उनके कल्याण की दिनरात फिक्र किया करते थे । कभी बैलगाड़ी में तो कभी ताँगें में वे अपने अंतरंग मित्रों के साथ राहाता को जाया करते थे । ग्रामवासी बाबा के गाँव के फाटक पर आते ही उनका अपूर्व स्वागत करते और उन्हें प्रणाम कर बड़ी धूमधाम से गाँव में ले जाते ते । खुशालचन्द बाबा को अपने घर ले जाते और कोमल आसन पर बिठाकर उत्तम सुस्वादु भोजन कराते और आनन्द तथा प्रसन्नचित्त से कुछ काल तक वार्तालाप किया करते थे । फिर बाबा सबको आनंदित कर और आशीर्वाद देकर शिरडी वारिस लौट आते थे ।
एक ओर राहाता (दक्षिण में) तथा दूसरी ओर नीमगाँव (उत्तर में) था । इन दोनों ग्रामों के मध्य में शिरडी स्थित हैं । बाबा अपने जीवनकाल में कभी भी इन सीमाओं के पार नहीं गये । उन्होंने कभी रेलगाड़ी नहीं देखी और न कभी उसमें प्रवास ही किया, परन्तु फिर भी उन्हें सब गाड़ियों के आवागमन का समय ठीक-ठीक ज्ञात रहता था । जो भक्तगण बाबा से लौटने की आनुमति माँगते और जो आदेशानुकूल चलते, वे कुशलतापूर्वक घर पहुँच जाते थे । परन्तु इसके विपरीत जो अवज्ञा करते, उन्हें दुर्भाग्य व दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता था । इस विषय से सम्बन्धित घटनाओं और अन्य विषयों का अगले अध्याय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया जायेगा ।

विशेष
इस अध्याय के नीचे दी हुई टिप्पणी बाबा के खुशालचन्द पर प्रेम के संबंध में है । किस प्रकार उन्होंने काकासाहेब दीक्षित को राहाता जाकर खुशालचन्द को लिवा लाने को कहा और उसी दोपहर को खुशालचन्द से स्वप्न में शिरडी आने को कहा, इसका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है, क्योंकि इसका वर्णन इस सच्चरित्र के 30वें अध्याय में किया जायेगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Guru

अपने गुरु की महानता का गुणगान या श्रवण करने से चित्त शुद्ध होता है और अगर उनके नाम का जाप करके द्रढता से उनका चिंतन-मनन किया जाए तो परमानद देने वाला उनका स्वरूप तुम्हारे समक्ष प्रकट हो जाएगा I 
While singing the greatness of one own's Guru and listening about him, the mind will be purified. The repetition of his name with steady concentration, will result in the manifestation of the embodiment of bliss.

Wednesday, December 26, 2012

Sai is very fond

जिन्हें वास्तव में आध्यात्मक का मार्ग अति प्रिय था, वे साईं को अति प्रिय थे I उनकी समस्त कठिनाइयों को दूर करके वे उन्हें आत्मानंद की प्राप्ति करवाने में सहायता करते थे I 
Sai is very fond of those who have true love for spirituality. Removing all their difficulties, he enjoins them to bliss.

Tuesday, December 25, 2012

ll ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ll

धूल तेरे चरणों की बाबा चन्दन और अबीर बनी |
जिसने लगाई निज मस्तक पर उसकी तो तकदीर बनी ||
श्री सच्चिदानंद सद्गुरु साईं नाथ महाराज के चरण कमलों में कोटि कोटि प्रणाम

Monday, December 24, 2012

Guru's feet

स्थिति चाहे अच्छी हो या बुरी, देह कभी भी कर्मो से मुक्त नहीं होता I इसलिए प्रीतिपूर्वक अपने मन को गुरु चरणों की और ले जाओ I 
Whatever be the condition, good or bad, the body must do its duties as destined. But introvert your senses towards the Guru's feet with all the love.

Sunday, December 23, 2012

guru sai shree sai jai jai sai


आज निन्दित विचारों के तट पर माया-मोह के झंझावात से धैर्य रुपी वृक्ष की जड़ें उखड़ गई है । अहंकार रुपी वायु की प्रबलता से हृदय रुपी समुद्र में तूफान उठ खड़ा हुआ है, जिसमें क्रोध और घृणा रुपी घड़ियाल तैरते है और अहंभाव एवं सन्देह रुपी नाना संकल्प-विकल्पों के भँवरों में निन्दा, घृणा और ईर्ष्यारुपी अगणित मछलियाँ विहार कर रही है । यद्यपि यह समुद्र इतना भयानक है तो भी हमारे सदगुरु साई महाराज उसमें अगस्त्य स्वरुप ही है । इसलिये भक्तों को किंचितमात्र भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । हमारे सदगुरु तो जहाज हैं और वे हमें कुशलतापूर्वक इस भयानक भव-समुद्र से पार उतार देंगे ।
(श्री साई सच्चरित्र)

Saturday, December 22, 2012

In chapter VI of Shri Sai Satcharitra,


It is stated that, If any one prostrates before Sai and surrenders heart and soul to Him, then all the chief objects of life, viz., Dharma (righteousness), Artha (wealth), Kama (Desire) and Moksha (Deliverance), are easily and attained unsolicitedly.

Friday, December 21, 2012

shirdi sai say's


shirdi sai baba teachings


श्री साई के दरबार में तरह-तरह के लोगों का दर्शन होता था । देखो, ज्योतिषी लोग आ रहे है और भविष्य का बखान कर रहे है । दूसरी ओर राजकुमार, श्रीमान्, सम्पन्न और निर्धन, सन्यासी, योगी और गवैये दर्शनार्थ चले आ रहे है । यहाँ तक कि एक अतिशूद्र भी दरबार में आता है और प्रणाम करने के पश्चात् कहता है कि, "साई ही मेरे माँ या बाप है और वे मेरा जन्म मृत्यु के चक्र से छुटकारा कर देंगें ।" और भी अनेकों –तमाशा करने वाले, कीर्तन करने वाले, अंधे, पंगु, नाथपन्थी, नर्तक व अन्य मनोरंजन करने वाले दरबार में आते थे, जहाँ उनका उचित मान किया जाता था। 
(श्री साई सच्चरित्र)

Thursday, December 20, 2012

श्री साई सच्चरित्र अध्याय (7)


अध्याय 7 

अदभुत अवतार । श्री साईबाबा की प्रकृति, उनकी यौगिक क्रयाएँ, उनकी सर्वव्यापकता, कुष्ठ रोगी की सेवा, खापर्डे के पुत्र प्लेग, पंढरपुर गमन, 

अदभुत अवतार
श्री साईबाबा समस्त यौगिक क्रियाओं में पारंगत थे । 6 प्रकार की क्रियाओं के तो वे पूर्ण ज्ञाता थे । 6 क्रियायें, जिनमें धौति ( एक 3" चौड़े व 22 ½" लम्बे कपड़े के भीगे हुए टुकड़े से पेट को स्वच्छ करना), खण्ड योग (अर्थात् अपने शरीर के अवयवों को पृथक-पृथक कर उन्हें पुनः पूर्ववत जोड़ना) और समाधि आदि भी सम्मिलित हैं । यदि कहा जाये कि वे हिन्दू थे तो आकृति से वे यवन-से प्रतीत होते थे । कोई भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता था कि वे हिन्दू थे या यवन । वे हिन्दुओं का रामनवमी उत्सव यथाविधि मनाते थे और साथ ही मुसलमानों का चन्दनोत्सव भी । वे उत्सव में दंगलों को प्रोत्साहन तथा विजेताओं को पर्याप्त पुरस्कार देते थे । गोकुल अष्टमी को वे 'गोपाल-काला' उत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाते थे । ईद के दिन वे मुसलमानों को मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिये आमंत्रित किया करते थे । एक समय मुहर्रम के अवसर पर मुसलमानों ने मस्जिद में ताजिये बनाने तथा कुछ दिन वहाँ रखकर फिर जुलूस बनाकर गाँव से निकालने का कार्यक्रम रचा । श्री साईबाबा ने केवल चार दिन ताजियों को वहाँ रखने दिया और बिना किसी राग-देष के पाँचवे दिन वहाँ से हटवा दिया ।
यदि कहें कि वे यवन थे तो उनके कान (हिन्दुओं की रीत् के अनुसार) छिदे हुए थे और यदि कहें कि वे हिन्दू थे तो वे सुन्ता कराने के पक्ष में थे । (नानासाहेब चाँदोरकर, जिन्होंने उनको बहुत समीप से देखा था, उन्होंने बतलाया कि उनकी सुन्नत नहीं हुई थी । साईलीला-पत्रिका श्री. बी. व्ही. देव द्वारा लिखित शीर्षक "बाबा यवन की हिन्दू" पृष्ठ 562 देखो ।) यदि कोई उन्हें हिन्दू घोषित करें तो वे सदा मस्जिद में निवास करते थे और यदि यवन कहें तो वे सदा वहाँ धूनी प्रज्वलित रखते थे तथा अन्य कर्म, जो कि इस्लाम धर्म के विरुद्ध है, जैसे - चक्की पीसना, शंख तथा घंटानाद, होम आदि कार्य करना, अन्नदान और अघ्र्य द्वारा पूजन आदि सदैव वहाँ चलते रहते थे ।

यदि कोई कहे कि वे यवन थे तो कुलीन ब्राहमण और अग्निहोत्री भी अपने नियमों का उल्लंघन कर सदा उनको साष्टांग नमस्कार किया करते थे । जो उनके स्वदेश का पता लगाने गये, उन्हें अपना प्रश्न ही विस्मृत हो गया और वे उनके दर्शनमात्र से मोहित हो गया । अस्तु इसका निर्णय कोई न कर सका कि यथार्थ में साईबाबा हिन्दू थे या यवन । इसमें आश्चर्य ही क्या है? जो अहं व इन्द्रियजन्य सुखों को तिलांजलि देकर ईश्वर की शरण में आ जाता है तथा जब उसे ईश्वर के साथ अभिन्नता प्राप्त हो जाती है, तब उसकी कोई जाति-पाति नहीं रह जाती । इसी कोटि में श्री साईबाबा थे । वे जातियों और प्राणियों में किंचित् मात्र भी भेदभाव नहीं रखते थे । फकीरों के साथ वे अमिष और मछली का सेवन भी कर लेते थे । कुत्ते भी उनके भोजन-पात्र में मुँह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे, परन्तु उन्होंने कभी कोई भी आपत्ति नहीं की । ऐसा अपूर्व और अद्भभुत श्री साईबाबा का अवतार था ।
गत जन्मों के शुभ संस्कारों के परिणामस्वरुप मुझे भी उनके श्री चरणों के समीप बैठने और उनका सत्संग-लाभ उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मुझे जिस आनन्द व सुख का अनुभव हुआ, उसका वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ ? यथार्थ में बाबा अखण्ड सच्चिदानन्द थे । उनकी महानता और अद्वितीय का बखान कौन कर सकता है ? जिसने उनके श्री चरण-कमलों की शरण ली, उसे साक्षात्कार की प्राप्ति हुई । अनेक सन्यासी, साधक और अन्य मुमुक्षु जन भी श्री साईबाबा के पास आया करते थे । बाबा भी सदैव उनके साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते, उनसे वार्तालाप कर उनका चित्तरंजन किया करते थे । 'अल्लाह मालिक' सदैव उनके होठों पर था । वे कभी भी विवाद और मतभेद में नहीं पडते थे तथा सदा शान्त और स्थिर रहते थे । परन्तु कभी-कभी वे क्रोधित हो जाया करते थे । वे सदैव ही वेदान्त की शिक्षा दिया करते थे । कोई भी अंत तक यह नहीं जान सका कि श्री साईबाबा वास्तव में कौन थे ? अमीर और गरीब दोनों उनके लिए एक समान थे । वे लोगों के गुह्य व्यपार को पूर्णतया जानते थे और जब वे रहस्य स्पष्ट करते तो सब विस्मत हो जाते थे । स्वयं ज्ञानावतार होकर भी वे सदैव अज्ञानता का प्रदर्शन किया करते थे । उन्हें आदरसत्कार से सदैव अरुचि थी । इस प्रकार का श्री साईबाबा का वैशिष्टय था । थे तो वे शरीरधारी, परन्तु कर्मों से उनकी ईश्वरीयता स्पष्ट झलकती थी । शिरडी के सकल नर-नारी उन्हें परब्रह्म ही मानते थे ।

बाबा की प्रकृति
मैं मूर्ख जो हूँ, श्री साईबाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन नहीं कर सकता । शिरडी के प्रायः समस्त मंदिरों का उन्होंने जीर्णोधार किया । श्री तात्या पाटील के द्वारा शनि, गणरति, शंकर, पार्वती, ग्राम्यदेवता और हनुमानजी आदि के मंदिर ठीक करवाये । उनका दान भी विलक्षण था । दक्षिणा के रुप में जो धन एकत्रित होता था, उसमें से वे किसी को बीस रुपये, किसी को पंद्रह रुपये या किसी को पचास रुपये, इसी प्रकार प्रतिदिन स्वच्छन्दतापूर्वक वितरण कर देते थे । प्राप्तिकर्ता उसे शुद्ध दान समझता था । बाबा की भी सदैव यही इच्छा थी कि उसका उपयुक्त रीति से व्यय किया जाय ।
बाबा के दर्शन से भक्तों को अनेक प्रकार का लाभ पहुँचता था । अनेकों निष्कपट और स्वस्थ बन गये, दुष्टात्मा पुण्यातमा में परिणत हो गये । अनेकों कुष्ठ रोग से मुक्त हो गए और अनेकों को मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई । बिना कोई रस या औषधि सेवन किये, बहुत से अंधों को पुनः दृष्टि प्राप्त हो गई, पंगुओं की पंगुता नष्ट हो गई । कोई भी उनकी महानता का अन्त न पा सका । उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैलती गई और भिन्न-भिन्न स्थानों से यात्रियों के झुंड के झुंड शिरडी आने लगे । बाबा सदा धूनी के पास ही आसन जमाये रहते और वहीं विश्राम किया करते थे । वे कभी स्नान करते और कभी स्नान किये बिना ही समाधि में लीन रहते थे । वे सिर पर एक छोटी सी साफी, कमर में एक धोती और तन ढँकने के लिए एक अंगरखा धारण करते थे । प्रारम्भ से ही उनकी वेशभूषा इसी प्रकार थी । अपने जीवनकाल के पू्र्वार्दृ में वे गाँव में चिकित्साकार्य भी किया करते थे । रोगियों का निदान कर उन्हें औषधि भी देते थे और उनके हाथ में अपरिमित यश था । इस कारण से वे अल्प काल में ही योग्य चिकित्सक विख्यात हो गये । यहाँ केवल एक ही घटना का उल्लेख किया जाता है, जो बड़ी विचित्र-सी है ।

विलक्षण नेत्र चिकित्सा
एक भक्त की आँखें बहुत लाल हो गई थी । उन पर सूजन भी आ गई थी । शिरडी सरीखे छोटे ग्राम में डाक्टर कहाँ । तब भक्तगण ने रोगी को बाबा के समक्ष उपस्थित किया । इस प्रकार की पीडा में डाँक्टर प्रायः लेप, मरहम, अंजन, गाय का दूध तथा कपूरयुक्त औषधियों को प्रयोग में लाते हैं । पर बाबा की औषधि तो सर्वथा ही भिन्न थी । उन्होंने भिलावाँ पीस कर उसकी दो गोलियाँ बनायीं और रोगी के नेत्रों में एक-एक गोली चिपका कर कपड़े की पट्टी से आँखें बाँध दी । दूसरे दिन पट्टी हटाकर नेत्रों के ऊपर जल के छींटे छोड़े गये । सूजन कम हो गई और नेत्र प्रायः नीरोग हो गये । नेत्र शरीर का एक अति सुकोमल अंग है, परन्तु बाबा की औषधि से कोई हानि नहीं पहुँची, वरन् नेत्रों की व्याधि दूर हो गई । इस प्रकार अनेक रोगी नीरोग हो गये । यह घटना तो केवन उदाहरणस्वरुप ही यहाँ लिखी गई है ।

बाबा की यौगिक क्रियाएँ
बाबा को समस्त यौगिक प्रयोग और क्रियाएँ ज्ञात थी । उनमें से केवल दो का ही उल्लेख यहाँ किया जाता है –
धौति क्रिया (आतें स्वच्छ करने की क्रिया) - प्रति तीसरे दिन बाबा मस्जिद से प्रयाप्त दूरी पर, एक वट वृक्ष के नीचे किया करते थे । एक अवसर पर लोगों ने देखा कि उन्होंने अपनी आँतों को उदर के बाहर निकालकर उन्हें चारों ओर से स्वच्छ किया और समीप के वृक्ष पर सूखने के लिये रख दिया । शिरडी में इस घटना की पुष्टि करने वाले लोग अभी भी जीवित हैं । उन्होंने इस सत्य की परीक्षा भी की थी ।
साधारण धौति क्रिया एक 3” चौडे व 22 ½ फुट लम्वे गीले कपड़े के टुकड़े से की जाती है । इस कपड़े को मुँह के द्वारा उदर में उतार लिया जाता हैं तथा इसे लगभग आधा घंटे तक रखे रहते है, ताकि उसका पूरा-पूरा प्रभाव हो जावे । तत्पश्चात् उसे बाहर निकाल लेते निकाल लेते हैं । पर बाबा की तो यह धौति क्रिया सर्वथा विचित्र और असाधारण ही थी ।
खण्डयोग – एक समय बाबा ने अपने शरीर के अवयव पृथक-पृथक कर मस्जिद के भिन्न-भिन्न स्थानों में बिखेर दिये । अकस्मात् उसी दिन एक महाशय मस्जिद में पधारे और अंगों को इस प्रकार यहाँ-वहाँ बिखरा देखकर बहुत ही भयभीत हुए । पहले उनकी इच्छा हुई कि लौटकर ग्राम अधिकारी के पास यह सूचना भिजवा देनी चाहिये कि किसी ने बाबा का खून कर उनके टुकडे-टुकडे कर दिये हैं । परन्तु सूचना देने वाला ही पहले पकड़ा जाता हैं, यह सोचकर वे मौन रहे । दूसरे दिन जब वे मस्जिद में गये तो बाबा को पूर्ववत् हष्ट पुषट ओर स्वस्थ देखकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ । उन्हें ऐसा लगा कि पिछले दिन जो दृश्य देखा था, वह कहीं स्वप्न तो नहीं था?
बाबा बाल्याकाल से ही यौगिक क्रियायें किया करते थे और उन्हें जो अवस्था प्राप्त हो चुकी थी, उसका सत्य ज्ञान किसी को भी नहीं था । चिकित्सा के नाम से उन्होंने कभी किसी से एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया । अपने उत्तम लोकप्रिय गुणों के कारण उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई । उन्होंने अनेक निर्धनों और रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान किया । इस प्रसिदृ डाँक्टरों के डाँक्टर (मसीहों के मसीहा) ने कभी अपने स्वार्थ की चिन्ता न कर अनेक विघ्नों का सामना किया तथा स्वयं असहनीय वेदना और कष्ट सहन कर सदैव दूसरों की भलाई की और उन्हें विपत्तियों में सहायता पहुँचाई । वे सदा परकल्याणार्थ चिंतित रहते थे। ऐसी एक घटना नीचे लिखी जाती है, जो उनकी सर्वव्यापकता तथा महान् दयालुता की द्योतक हैं ।

बाबा की सर्वव्यापकता और दयालुता
सन् 1910 में बाबा दीवाली के शुभ अवसर पर धूनी के समीप बैठे हुए अग्नि ताप रहे थे तथा साथ ही धूनी में लकड़ी भी डालते जी रहे थे । धूनी प्रचण्डता से प्रज्वलित थी । कुछ समय पश्चात उन्होने लकड़ियाँ डालने के बदले अपना हाथ धूनी में डाल दिया । हाथ बुरी तरह से झुलस गया । नौकर माधव तथा माधवराव देशपांडे ने बाबा को धूनी में हाथ डालते देखकर तुरन्त दौड़कर उन्हें बलपूर्वक पीछे खींच लिया ।
माधवराव ने बाबा से कहा, "देवा! आपने ऐसा क्यों किया?" बाबा सावधान होकर कहने लगे, "यहाँ से कुछ दूरी पर एक लुहारिन जब भट्टी धौंक रही थी, उसी समय उसके पति ने उसे बुलाया । कमर से बँधे हुए शिशु का ध्यान छोड़ वह शीघ्रता से वहाँ दौड़कर गई । अभाग्यवश शिशु फिसल कर भट्टी में गिर पड़ा । मैंने तुरन्त भट्टी में हाथ डालकर शिशु के प्राण बचा लिये हैं । मुझे अपना हाथ जल जाने का कोई दुःख नहीं हैं, परन्तु मुझे हर्ष हैं कि एक मासूम शिशु के प्राण बच गये ।"

कुष्ठ रोगी की सेवा
माधवराव देशपांडे के द्वारा बाबा का हाथ जल जाने का समाचार पाकर श्री नानासाहेव चाँदोरकर, बम्बई के सुप्रसिद्ध डाँक्टर श्री परमानंद के साथ दवाईयाँ, लेप, लिंट तथा पट्टियाँ आदि साथ लेकर शीघ्रता से शिरडी को आये । उन्होंने बाबा से डाँक्टर परमानन्द को हाथ की परीक्षा करने और जले हुए स्थान में दवा लगाने की अनुमति माँगी । यह प्रार्थना अस्वीकृत हो गई । हाथ जल जाने के पश्चात एक कुष्ठ-पीडित भक्त भागोजी शिंदे उनके हाथ पर सदैव पट्टी बाँधते थे । उनका कार्य था प्रतिदिन जले हुए स्थान पर घी मलना और उसके ऊपर एक पत्ता रखकर पट्टियों से उसे पुनः पूर्ववत् कस कर बाँध देना । घाव शीघ्र भर जाये, इसके लिये नानासाहेब चाँदोरकर ने पट्टी छोड़ने तथा डाँ. परमानन्द से जाँच व चिकित्सा कराने का बाबा से बारंबार अनुरोध किया । यहाँ तक कि डाँ. परमानन्द ने भी अनेक बार प्रर्थना की, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए टाल दिया कि केवल अल्लाह ही मेरा डाँक्टर है । उन्होंने हाथ की परीक्षा करवाना अस्वीकार कर दिया । डाँ. परमानन्द की दवाइयाँ शिरडी के वायुमंडल में न खुल सकीं और न उनका उपयोग ही हो सका । फिर भी डाँक्टर साहेव की अनुमति मिल गई । कुछ दिनों के उपरांत जब घाव भर गया, तब सब भक्त सुखी हो गये, परन्तु यह किसी को भी ज्ञात न हो सका कि कुछ पीडा अवशेष रही थी या नहीं । प्रतिदिन प्रातःकाल वही क्रम-घृत से हाथ का मर्दन और पुनः कस कर पट्टी बाँधना-श्री साई बाबा की समाधि पर्यन्त यह कार्य इसी प्रकार चलता रहा । श्री साई बाबा सदृश पूर्ण सिदृ को, यथार्थ में इस चिकित्सा की भी कोई आवश्यकता नहीं थी, परन्तु भक्तों के प्रेमवश, उन्होंने भागोजी की यह सेवा (अर्थात् उपासना) निर्विघ्र स्वीकार की । जब बाबा लेण्डी को जाते तो भागोजी छाता लेकर उनके साथ ही जाते थे । प्रतिदिन प्रातःकाल जब बाबा धूनी के पास आसन पर विराजते, तब भागोजी वहाँ पहले से ही उपस्थित रहकर अपना कार्य प्रारम्भ कर देते थे । भागोजी ने पिछले जन्म में अनेक पाप-कर्म किये थे । इस कारण वे कुष्ठ रोग से पीड़ित थे । उनकी उँगलियाँ गल चुकी थी और शरीर पीप आदि से भरा हुआ था, जिससे दुर्गन्ध भी आती थी । यद्यपि बाहृ दृष्टि से वे दुर्भागी प्रतीत होते थे, परंतु बाबा का प्रधान सेवक होने के नाते, यथार्थ में वे ही अधिक भाग्यशाली तथा सुखी थे । उन्हें बाबा के सानिध्य का पूर्ण लाभ प्राप्त हुआ ।

बालक खापर्डे को प्लेग
अब मैं बाबा की एक दुसरी अद्भभुत लीला का वर्णन करुँगा । श्रीमती खापर्डे (अमरावती के श्री दादासाहेब खापर्डे की धर्मपत्नी) अपने छोटे पुत्र के साथ कई दिनों से शिरडी में थी । पुत्र तीव्र ज्वर से पीड़ित था, पश्चात उसे प्लेग की गिल्टी (गाँठ) भी निकल आई । श्रीमती खापर्डे भयभीत हो बहुत घबराने लगी और अमरावती लौट जाने का विचार करने लगी । संध्या-समय जब बाबा वायुसेवन के लिए वाड़े (अब जो समाधि मंदिर कहा जाता है) के पास से जा रहे थे, तब उन्होंने उनसे लौटने की अनुमति माँगी तथा कम्पित स्वर में कहने लगी कि मेरा प्रिय पुत्र प्लेग से ग्रस्त हो गया है, अतः अब मैं घर लौटना चाहती हूँ । प्रेमपूर्वक उनका समाधान करते हुए बाबा ने कहा, "आकाश में बहुत बादल छाये हुए हैं । उनके हटते ही आकाश पूर्ववत् स्वच्छ हो जायगा ।" ऐसा कहते हुए उन्होंने कमर तक अपनी कफनी ऊपर उठाई और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को चार अंडों के बराबर गिल्टियाँ दिखा कर कहा, "देखो, मुझे अपने भक्तों के लिये कितना कष्ट उठाना पड़ता हैं । उनके कष्ट मेरे हैं ।" यह विचित्र और असाधारण लीला दिखकर लोगों को विश्वास हो गया कि सन्तों को अपने भक्तों के लिये किस प्रकार कष्ट सहन करने पड़ते हैं । संतों का हृदय मोम से भी नरम तथा अन्तर्बाहृ मक्खन जैसा कोमन होता है । वे अकारण ही भक्तों से प्रेम करते और उन्हे अपना निजी सम्बंधी समझते हैं ।

पंढरपुर-गमन और निवास
बाबा अपने भक्तों से कितना प्रेम करते और किस प्रकार उनकी समस्त इच्छाओं तथा समाचारों को पहले से ही जान लेते थे, इसका वर्णन कर मैं यह अध्याय समाप्त करुँगा ।
नानासाहेव चाँदोरकर बाबा के परम भक्त थे । वे खानदेश में नंदुरबार के मामलतदार थे । उनका पंढरपुर को स्थानांतरण हो गया और श्री साई बाबा की भक्ति उन्हें सफल हो गई, क्योंकि उन्हें पंढरपुर जो भूवैकुण्ठ (पृथ्वी का स्वर्ग) सदृश ही साझा जाता है, उसमें रहने का अवसर प्राप्त हो गया । नानासाहेव के शीघ्र ही कार्यभार सम्भालना था, इसलिये वे किसी के पूर्व पत्र या सूचना दिये बिना ही शीघ्रता से शिरडी को रवाना हो गये । वे अपने पंढरपुर (शिरडी) में अचानक ही पहुँचकर अपने विठोबा (बाबा) को नमस्कार कर फिर आगे प्रस्थान करना चाहते थे । नानासाहेब के आगमन की किसी को भी सूचना न थी । परन्तु बाबा से क्या छिपा था । वे तो सर्वज्ञ थे । जैसे ही नानासाहेब नीमगाँव पहुँचे (जो शिरडी से कुछ ही दूरी पर है), बाबा पास बैठे हुए म्हालसापति, अप्पा शिंदे और काशीराम से वार्तालाप कर रहे थे । उसी समय मस्जिद में स्तब्धता छा गई और बाबा ने अचानक ही कहा, "चलो, चारों मिलकर भजन करें । पंढरपुर के द्वार खुले हुए हैं" – यह भजन प्रेमपूर्वक गावें । ("पंढरपुरला जायाचें जायाचें तिथेंच मजला राह्याचें । तिथेच मजला राह्याचे, घर तें माईया रायांचे ।।") सब मिलकर गाने लगे । (भावार्थ-"मुझे पंढरपुर जाकर वहीं रहना है, क्योंकि वह मेरे स्वामी (ईश्वर) का घर है ।") बाबा गाते जाते और दुहराते जाते थे । कुछ समय में नानासाहेब ने वहाँ सहकुटुम्ब पहुँचकर बाबा को प्रणाम किया । उन्होंने बाबा से पंढरपुर को साथ पधारने तथा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की । पाठकों अब इस प्रार्थना की आवश्यकता ही कहाँ थी ? भक्तगण ने नानासाहेब को बतलाया कि बाबा पंढरपुर निवास के भाव में पहने ही से हैं । यह सुनकर नानासाहेब द्रवित हो श्री-चरणों पर गिर पड़े और बाबा की आज्ञा, उदी तथा आशीर्वाद प्राप्त कर वे पंढरपुर को रवाना हो गये ।
बाबा की कथाये अनन्त है । अन्य विषय जैसे – मानव जन्म का महत्व, बाबा का भिक्षा-वृत्ति पर निर्वाह, बायजाबई की सेवा तथा अन्य कथाओं को अगले अध्याय के लिये शेष रखकर अब मुझे यहाँ विश्राम करना चाहिये ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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