'श्री हेमाडपंत कहते है' जब वेद और पुराण ही ब्रह्म या सदगुरु का वर्णन करने में अपनी असमर्थता प्रगट करते है, तब मैं एक अल्पज्ञ प्राणी अपने सदगुरु श्री साईबाबा का वर्णन कैसे कर सकता हूँ? मेरा स्वयं का तो यह मत है कि इस विषय में मौन धारण करना ही अति उत्तम है। सच पूछा जाय तो मूक रहना ही सदगुरु की विमल पताकारुपी विरुदावली का उत्तम प्रकार से वर्णन करना है। परन्तु उनमें जो उत्तम गुण है, वे हमें मूक कहाँ रहने देते है? यदि स्वादिष्ट भोजन बने और मित्र तथा सम्बन्धी आदि साथ बैठकर न खायें तो वह नीरस-सा प्रतीत होता है; और जब वही भोजन सब एक साथ बैठकर खाते है, तब उसमें एक विशेष प्रकार की सुस्वादुता आ जाती है। वैसी ही स्थिति साईलीलामृत के सम्बन्ध में भी है। इसका एकांत में रसास्वादन कभी नहीं हो सकता। यदि मित्र और पारिवारिक जन सभी मिलकर इसका रस लें तो और अधिक आनन्द आ जाता है। श्री साईबाबा स्वयं ही अंतःप्रेरणा कर अपनी इच्छानुसार ही इन कथाओं को मुझसे वर्णित कर रहे है। इसलिये हमारा तो केवल इतना ही कर्तव्य है कि अनन्यभाव से उनके शरणागत होकर उनका ही ध्यान करें।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 49)