Sunday, January 31, 2016

सुप्रभात


दुःख की घड़ी उसे डरा नही सकती....
कोई ताकत उसे हरा नही सकती....
और जिस पर हो जाये तेरी मेहर मेरे साईं ..
फिर ये दुनिया उसे मिटा नही सकती....
ॐ श्री साईं नाथाय नमः
आइए और पढ़ें 

श्री साईं वचन


Saturday, January 30, 2016

Friday, January 29, 2016

श्री दुर्गा चालीसा


श्री दुर्गा चालीसा

|| चौपाई ||

नमो नमो दुर्गा सुख करनी |
नमो नमो अम्बे दुखहरनी ||

निराकार है ज्योति तुम्हारी |
तिहूं लोक फैली उजियारी ||

शशि ललाट मुख महाविशाला |
नेत्र लाल भुकुटी विकराला ||

रूप मातु को अधिक सुहावे |
दरस करत जन अति सुख पावे ||

तुम संसार शक्ति लय कीना |
पालन हेतु अत्र धन दीना ||

अत्रपूर्णा हुई जगपाला |
तुम ही आदि सुन्दरी बाला ||

प्रलयकाल सब नाशन हारी
तुम गौरी शिवशंकर प्यारी ||

शिवयोगी तुम्हारे गुण गावे |
ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें ||

रूप सरस्वती का तुम धारा |
दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा ||

धरयो रूप नरसिंह को अम्बा |
प्रगट भई फाड़ के खम्भा ||

रक्षा कर प्रहलाद बचायो |
हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो ||

लक्ष्मी रूप धरो जगमाहीं |
श्री नारायण अंग समाही ||

क्षीर सिंधु में करत बिलासा |
दया सिंधु कीजे मन आशा ||

हिंगलाज में तुम्ही भवानी |
महिमा अमित न जात बखानी ||

मातंगी धूमावति माता |
भुवनेश्वरी बगला सुखदाता ||

श्री भैरव तारा जगतारिनि |
छिन्न भाल भव दुःख निवारिनि ||

केहरि वाहन सौह भवानी |
लंगुर बीर चलत अगवानी ||

कर में खप्पर खंग बिराजे |
जाको देखि काल डर भाजे ||

सोहे अस्त्र शस्त्र और तिरशूला |
जाते उठत शत्रु हिय शूला ||

नव कोटि में तुम्हीं विराजत |
तिहूं लोक में डंका बाजत ||

शुंभ निशुम्भ दानव तुम मारे |
रक्त बीज संखन संहारे ||

महिषासुर नृप अति अभिमानी |
जोहि अघ भारि मही अकुलानी ||

रूप कराल कालिका धारा |
सेन सहित तुम तेहि संहारा ||

परी गाढ़ सन्तन पर जब जब |
भई सहया मातु तुम तब तब ||

अमरपुरी अरु बासव लोका |
तव महिमा सब रहे अशोका ||

ज्वाला मैं है ज्योति तुम्हारी |
तुम्हें सदा पूजत नरनारी ||

प्रेम भक्ति से जो नर गावै |
दुःख दारिद्र निकट नहिं आवे ||

ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई |
जन्म मरन ते सो छुटी जाई ||

योगी सुरमुनि कहत पुकारी |
योग न होय बिन शक्ति तुम्हारी ||

शंकर आचरज तप कीनो |
कामहु क्रोध जीत सब लीनो ||

निशिदिनि ध्यान धरत शंकर को |
काहू काल नहीं सुमिरो तुमको ||

शक्ति रूप को मरम न पायो |
शक्ति गई तब मन पछतायो ||

शरणागत हुई कीर्ति बखानी |
जय जय जय जगदम्ब भवानी ||

भई प्रसत्र आदि जगदम्ब |
दई शक्ति नहीं कीन विलंबा ||

मोको मातु कष्ट अति धेरो |
तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो ||

आशा तृष्णा निपट सतावै |
रिपु मुरख हो अति डर पावै ||

शत्रु नाश कीजे महारानी |
सुमिरो इक चित्त तुम्हें भवानी ||

करो कृपा हे मातु दयाला |
ऋद्धि सिद्धि दे करहू निहाला ||

जब लगि जियो सदा फलपाउं |
सब सुख भोग परमपत पाउं ||

'देवीदास' शरण निज जानी |
करहू कृपा जगतम्ब भवानी ||

|| दोहा ||

शरणागत रक्षा करे, भक्त रहे निशंक |
मै आया तेरी शरण में, मातु लीजिये अंक ||

।। इति श्री दुर्गा चालीसा समाप्त ।।
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श्री साईं वचन


Tuesday, January 26, 2016

Sunday, January 24, 2016

Our devotion in Sai


....How nice & pleasing it would be

if We all could take out few moments daily from our busy Moments of Life and try to be in shelter of Saibaba .....

being Grateful for all that Sai blesses Us always 
without asking for ................................


Our devotion in Sai should make ..............
Sai our thought 
........Sai our action 
............... Sai our achievement 
.........................Sai our happiness 
...................................Sai our service ( sewa )

and begin to start Feeling his Holy Presence in everything around Us by learning to live

In Baba 
......Breath in Baba 
.......... Think of Baba 
and 
............Dream of Baba ,

We should Feel his Loving Grace and Blessings in every situation and moments of our life .............. in all our joys and sorrows in all our success and failures .

............................ omsairam to all Loving Sai Devotees .

BY GRACE OF GOD
RAJIV DUBE

Kindly visit



श्री साईं वचन


Friday, January 22, 2016

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 45


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 45 - संदेह निवारण
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काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न, बाबा के विश्राम के लिये लकड़ी का तख्ता ।

प्रस्तावना
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गत तीन अध्यायों में बाबा के निर्वाण का वर्णन किया गया है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि अब बाबा का साकार स्वरुप लुप्त हो गया है, परन्तु उनका निराकार स्वरुप तो सदैव ही विघमान रहेगा । अभी तक केवल उन्हीं घटनाओं और लीलाओं का उल्लेख किया गया है, जो बाबा के जीवमकाल में घटित हुई थी । उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् भी अनेक लीलाएँ हो चुकी है और अभी भी देखने में आ रही है, जिनसे यह सिदृ होता है कि बाबा अभी भी विघमान है और पूर्व की ही भाँति अपने भक्तों को सहायता पहुँचाया करते है । बाबा के जीवन-काल में जिन व्यक्तियों को उनका सानिध्य या सत्संग प्राप्त हुआ, यथार्थ में उनके भाग्य की सराहना कौन कर सकता है । यदि किसी को फिर भी ऐंद्रिक और सांसारिक सुखों से वैराग्य प्राप्त नहीं हो सका तो इस दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । जो उस समय आचरण में लाया जाना चाहिये था और अभी भी लाया जाना चाहिये, वह है अनन्य भाव से बाबा की भक्ति । समस्त चेतनाओं, इन्द्रिय-प्रवृतियों और मन को एकाग्र कर बाबा के पूजन और सेवा की ओर लगाना चाहिये । कृत्रिम पूजन से क्या लाभ । यदि पूजन या ध्यानादि करने की ही अभिलाषा है तो वह शुदृ मन और अन्तःकरण से होनी चाहिये ।
जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री का विशुदृ प्रेम अपने पति पर होता है, इस प्रेम की उपमा कभी-कभी लोग शिष्य और गुरु के प्रेम से भी दिया करते है । परन्तु फिर भी शिष्य और गुरु-प्रेम के समक्ष पतिव्रता का प्रेम फीका है और उसकी कोई समानता नहीं की जा सकती । माता, पिता, भाई या अन्य सम्बन्धी जीवन का ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करने में कोई सहायता नहीं पहुँचा सकते । इसके लिये हमें स्वयं अपना मार्ग अन्वेषण कर आत्मानुभूति के पथ पर अग्रसर होना पड़ता है । सत्य और असत्य में विवेक, इहलौकिक तथा पारलौकिक सुखों का त्याग, इन्द्रियनिग्रह और केवल मोक्ष की धारणा रखते हुए अग्रसर होना पड़ता है । दूसरों पर निर्भर रहने के बदले हमें आत्मविश्वास बढ़ाना उचित है । जब हम इस प्रकार विवेक-बुद्घि से कार्य करने का अभ्यास करेंगे तो हमें अनुभव होगा कि यह संसार नाशवान् और मिथ्या है । इस प्रकार की धारणा से सांसारिक पदार्थों में हमारी आसक्ति उत्तरोत्तर घटती जायेगी और अन्त में हमें उनसे वैराग्य उत्पन्न हो जायेगा । तब कहीं आगे चलकर यह रहस्य प्रकट होगा कि ब्रहृ हमारे गुरु के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं, वरन् यथार्थ में वे ही सदवस्तु (परमात्मा) है और यह रहस्योदघाटन होता है कि यह दृश्यमान जगत् उनका ही प्रतिबिम्ब है । अतः इस प्रकार हम सभी प्राणियों में उनके ही रुप का दर्शन कर उनका पूजन करना प्रारम्भ कर देते है और यही समत्वभाव दृश्यमान जगत् से विरक्ति प्राप्त करानेवाला भजन या मूलमंत्र है । इस प्रकार जब हम ब्रहृ या गुरु की अनन्यभाव से भक्ति करेंगे तो हमें उनसे अभिन्नता की प्राप्ति होगी और आत्मानुभूति की प्राप्ति सहज हो जायेगी । संक्षेप में यह कि सदैव गुरु का कीर्तन और उनका ध्यान करना ही हमें सर्वभूतों में भगवत् दर्शन करने की योग्यता प्रदान करता है और इसी से परमानंद की प्राप्ति होती है । निम्नलिखित कथा इस तथ्य का प्रमाण है ।


काकासाहेब दीक्षित का सन्देह और आनन्दराव का स्वप्न
....................................

यह तो सर्वविदित ही है कि बाबा ने काकासाहेब दीक्षित को श्री एकनाथ महाराज के दो ग्रन्थ
1. श्री मदभागवत और
2. भावार्थ रामायण
का नित्य पठन करने की आज्ञा दी थी । काकासाहेब इन ग्रन्थों का नियमपूर्वक पठन बाबा के समय से करते आये है और बाबा के सम्धिस्थ होने के उपरान्त अभी भी वे उसी प्रकार अध्ययन कर रहे । एक समय चौपाटी (बम्बई) में काकासाहेब प्रातःकाल एकनाथी भागवत का पाठ कर रहे थे । माधवराव देशपांडे (शामा) और काका महाजनी भी उस समय वहाँ उपस्थित थे तथा ये दोनों ध्यानपूर्वक पाठ श्रवण कर रहे थे । उस समय 11वें स्कन्ध के द्घितीय अध्याय का वाचन चल रहा था, जिसमें नवनाथ अर्थात् ऋषभ वंश के सिद्घ यानी कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुदृ, पिप्पलायन, आविहोर्त्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन का वर्णन है, जिन्होंने भागवत धर्म की महिमा राजा जनक को समझायी थी । राजा जनक ने इन नव-नाथों से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे और इन सभी ने उनकी शंकाओं का बड़ा सन्तोषजनक समाधान किया था, अर्थात् कवि ने भागवत धर्म, हरि ने भक्ति की विशेषताएँ, अतंरिक्ष ने माया क्या है, प्रबुदृ ने माया से मुक्त होने की विधि, पिप्लायन ने परब्रहृ के स्वरुप, आविहोर्त्र ने कर्म के स्वरुप, द्रुमिल ने परमात्मा के अवतार और उनके कार्य, चमस ने नास्तिक की मृत्यु के पश्चात् की गति एवं करभाजन ने कलिकाल में भक्ति की पद्घतियों का यथाविधि वर्णन किया । इन सबका अर्थ यही था कि कलियुग में मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन केवल हरिकीर्तन या गुरु-चरणों का चिंतन ही है । पठन समाप्त होने पर काकसाहेब बहुत निराशापूर्ण स्वर में माधवराव और अन्य लोगों से कहने लगे कि नवनाथों की भक्ति पदृति का क्या कहना है, परन्तु उसे आचरण में लाना कितना दुष्कर है । नाथ तो सिदृ थे, परन्तु हमारे समान मूर्खों में इस प्रकार की भक्ति का उत्पन्न होना क्या कभी संभव हो सकता है । अनेक जन्म धारण करने पर भी वैसी भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती तो फिर हमें मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे लिये तो कोई आशा ही नहीं है । माधवराव को यह निराशावादी धारणा अच्छी न लगी । व कहने लगे कि हमारा अहोभाग्य है, जिसके फलस्वरुप ही हमें साई सदृश अमूल्य हीरा हाथ लग गया है, तब फिर इस प्रकार का राग अलापना बड़ी निन्दनीय बात है । यदि तुम्हें बाबा पर अटल विश्वास है तो फिर इस प्रकार चिंतित होने की आवश्यकता ही क्या है । माना कि नवनाथों की भक्ति अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ा और प्रबल होगी, परन्तु क्या हम लोग भी प्रेम और स्नेहपूर्वक भक्ति नहीं कर रहे है । क्या बाबा ने अधिकारपूर्ण वाणी में नहीं कहा है कि श्रीहरि या गुरु के नाम जप से मोक्ष की प्राप्ति होती है । तब फिर भय और चिन्ता को स्थान ही कहाँ रह जाता है । परन्तु फिर भी माधवराव के वचनों से काकासाहेब का समाधान न हुआ । वे फिर भी दिन भर व्यग्र और चिन्तित ही बने रहे । यह विचार उनके मस्तिष्क में बार-बार चक्कर काट रहा था कि किस विधि से नवनाथों के समान भक्ति की प्राप्ति सम्भव हो सकेगी ।

एक महाशय, जिनका नाम आनन्दराव पाखाडे था, माधवराव को ढूँढते-ढूँढते वहाँ आ पहुँचे । उस समय भागवत का पठन हो रहा था । श्री. पाखाडे भी माधवराव के समीप ही जाकर बैठ गये और उनसे धीरे-धीरे कुछ वार्ता भी करने लगे । वे अपना स्वप्न माधवराव को सुना रहे थे । इनकी कानाफूसी के कारण पाठ में विघ्न उपस्थित होने लगा । अतएव काकासाहेब ने पाठ स्थगित कर माधवराव से पूछा कि क्यों, क्या बात हो रही है । माधवराव ने कहा कि कल तुमने जो सन्देह प्रगट किया था, यह चर्चा भी उसी का समाधान है । कल बाबा ने श्री. पाखाडे को जो स्वप्न दिया है, उसे इनसे ही सुनो । इसमें बताया गया है कि विशेष भक्ति की कोई आवश्यकता नही, केवल गुरु को नमन या उनका पूजन करना ही पर्याप्त है । सभी को स्वप्न सुनने की तीव्र उत्कंठा थी और सबसे अधिक काकासाहेब को । सभी के कहने पर श्री. पाखाडे अपना स्वप्न सुनाने लगे, जो इस प्रकार है – मैंने देखा कि मैं एक अथाह सागर में खड़ा हुआ हूँ । पानी मेरी कमर तक है और अचानक ही जब मैंने ऊपर देखा तो साईबाबा के श्री-दर्शन हुए । वे एक रत्नजटित सिंहासन पर विराजमान थे और उनके श्री-चरण जल के भीतर थे । यह सुन्र दृश्य और बाबा का मनोहर स्वरुप देक मेरा चित्त बड़ा प्रसन्न हुआ । इस स्वप्न को भला कौन स्वप्न कह सकेगा । मैंने देखा कि माधवराव भी बाबा के समीप ही खड़े है और उन्होंने मुझसे भावुकतापूर्ण शब्दों में कहा कि आनन्दराव । बाबा के श्री-चरणों पर गिरो । मैंने उत्तर दिया कि मैं भी तो यही करना चाहता हूँ । परन्तु उनके श्री-चरण तो जल के भीतर है । अब बताओ कि मैं कैसे अपना शीश उनके चरणों पर रखूँ । मैं तो निस्सहाय हूँ । इन शब्दों को सुनकर शामा ने बाबा से कहा कि अरे देवा । जल में से कृपाकर अपने चरण बाहर निकालिये न । बाबा ने तुरन्त चरण बाहर निकाले और मैं उनसे तुरन्त लिपट गया । बाबा ने मुझे यह कहते हुये आशीर्वाद दिया कि अब तुम आनंदपूर्वक जाओ । घबराने या चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । अब तुम्हारा कल्याण होगा । उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि एक जरी के किनारों की धोती मेरे शामा को दे देना, उससे तुम्हें बहुत लाभ होगा । बाबा की आज्ञा को पूर्ण करने के लिये ही श्री. पाखाडे धोती लाये और काकासाहेब से प्रार्थना की कि कृपा करके इसे माधवराव को दे दीजिये, परन्तु माधवराव ने उसे लेना स्वीकार नहीं किया ।
उन्होंने कहा कि जब तक बाबा से मुझे कोई आदेश या अनुमति प्राप्त नहीं होती, तब तक मैं ऐसा करने में असमर्थ हूँ । कुछ तर्क-वतर्क के पश्चात काका ने दैवी आदेशसूचक पर्चियाँ निकालकर इस बात का निर्णय करने का विचार किया । काकासाहेब का यह नियम था कि जब उन्हें कोई सन्देह हो जाता तो वे कागज की दो पर्चियों पर स्वीकार-अश्वीकार लिखकर उसमेंसे एक पर्ची निकालते थे और जो कुछ उत्तर प्राप्त होता था, उसके अनुसार ही कार्य किया करते थे । इसका भी निपटारा करने के लिये उन्होंने उपयुक्त विधि के अनुसार ही दो पर्चियाँ लिखकर बाबा के चित्र के समक्ष रखकर एक अबोध बालक को उसमें से एक पर्ची उठाने को कहा । बालक द्घारा उठाई गई पर्ची जब खोलकर देखी गई तो वह स्वीकारसूचक पर्ची ही निकली और तब माधवराव को धोती स्वीकार करनी पड़ी । इस प्रकार आनन्दराव और माधवराव सन्तुष्ट हो गये और काकासाहेब का भी सन्देह दूर हो गया ।

इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अन्य सन्तों के वचनों का उचित आदर करना चाहिये, परन्तु साथ ही साथ यह भी परम आवश्यक है कि हमें अपनी माँ अर्थात् गुरु पर पूर्ण विश्वास रखस उनके आदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिये, क्योंकि अन्य लोगों की अपेक्षा हमारे कल्याण की उन्हें अधिक चिन्ता है ।

बाबा के निम्नलिखित वचनों को हृदयपटल पर अंकित कर लो – इस विश्व में असंख्य सन्त है, परन्तु अपना पिता (गुरु) ही सच्चा पिता (सच्चा गुरु) है । दूसरे चाहे कितने ही मधुर वचन क्यों न कहते हो, परन्तु अपना गुरु-उपदेश कभी नहीं भूलना चाहिये । संक्षेप में सार यही है कि शुगृ हृदय से अपने गुरु से प्रेम कर, उनकी शरण जाओ और उन्हें श्रद्घापूर्वक साष्टांग नमस्कार करो । तभी तुम देखोगे कि तुम्हारे सम्मुख भवसागर का अस्तित्व वैसा ही है, जैसा सूर्य के समक्ष अँधेरे का ।


बाबा की शयन शैया-लकड़ी का तख्ता
...................................

बाबा अपने जीवन के पूर्वार्द्घ में एक लकड़ी के तख्ते पर शयन किया करते थे । वह तख्ता चार हाथ लम्बा और एक बीता चौड़ा था, जिसके चारों कोनों पर चार मिट्टी के जलते दीपक रखे जाया करते थे । पश्चात् बाबा ने उसके टुकड़े टुकडे कर डाले थे । (जिसका वर्णन गत अध्याय 10 में हो चुका है ) । एक समय बाबा उस पटिये की महत्ता का वर्णन काकासाहेब को सुना रहे थे, जिसको सुनकर काकासाहेब ने बाबा से कहा कि यदि अभी भी आपको उससे विशेष स्नेह है तो मैं मसजिद में एक दूसरी पटिया लटकाये देता हूँ । आप सूखपूर्वक उस पर शयन किया करें । तब बाबा कहने लगे कि अब म्हालसापति को नीचे छोड़कर मैं ऊपर नहीं सोना चाहता । काकासाहेब ने कहा कि यदि आज्ञा दें तो मैं एक और तख्ता म्हालसापति के लिये भी टाँग दूँ ।
बाबा बोले कि वे इस पर कैसे सो सकते है । क्या यह कोई सहज कार्य है जो उसके गुण से सम्पन्न हो, वही ऐसा कार्य कर सकता है । जो खुले नेत्र रखकर निद्रा ले सके, वही इसके योग्य है । जब मैं शयन करता हूँ तो बहुधा म्हालसापति को अपने बाजू में बिठाकर उनसे कहता हूँ कि मेरे हृदय पर अपना हाथ रखकर देखते रहो कि कहीं मेरा भगवज्जप बन्द न हो जाय और मुझे थोड़ा- सा भी निद्रित देखो तो तुरन्त जागृत कर दो, परन्तु उससे तो भला यह भी नहीं हो सकता । वह तो स्वंय ही झपकी लेने लगता है और निद्रामग्न होकर अपना सिर डुलाने लगता है और जब मुझे भगत का हाथ पत्थर-सा भारी प्रतीत होने लगता है तो मैं जोर से पुकार कर उठता हूँ कि ओ भगत । तब कहीं वह घबड़ा कर नेत्र खोलता है । जो पृथ्वी पर अच्छी तरह बैठ और सो नहीं सकता तथा जिसका आसन सिदृ नहीं है और जो निद्रा का दास है, वह क्या तख्ते पर सो सकेगा । अन्य अनेक अवसरों पर वे भक्तों के स्नेहवश ऐसा कहा करते थे कि अपना अपने साथ और उसका उसके साथ ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री साईं वचन


Friday, January 15, 2016

आरती जय जगदीश हरे


आरती जय जगदीश हरे
ऊँ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे । 
भक्त जनों के संकट, दास जनों के संकट, क्षण में दूर करे ।। 
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

जो ध्यावे फल पावे, दुख बिनसे मन का । 
स्वामी दुख बिनसे मन का
सुख सम्पति घर आवे, बंसरी वाला घर आवे
कष्ट मिटे तन का ।।
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी ।
 स्वामी शरण गहूं मैं किसकी 
तुम बिन और न दूजा, तुम बिन और न दूजा, 
आस करूं मैं जिसकी ।। 
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी ।
स्वामी तुम अंतरयामी 
पारब्रह्म परमेश्वर, पारब्रह्म परमेश्वर,
तुम सब के स्वामी ।। 
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता । 
स्वामी तुम रक्षाकर्ता
मैं मुर्ख खल कामी, मै सेवक तुम स्वामी
कृपा करो भर्ता ।। 
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति । 
स्वामी सबके प्राणपति 
किस विधि मिलूं दयामय, किस विधि मिलूं दयामय,
तुमको मैं कुमति ।। 
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे । 
स्वामी तुम रक्षक मेरे 
करुणा हस्त बढ़ाओ, अपने हाथ उठाओ
द्धार पड़ा मैं तेरे ।।
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा ।
स्वामी कष्ट हरो देवा
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, 
संतन की सेवा ।। 
ऊँ जय जगदीश हरे.. 

तन मन धन सब कुछ है तेरा 
स्वामी सब कुछ है तेरा 
तेरा तुझको अर्पण तेरा तुझको अर्पण 
क्या लागे मेरा
ऊँ जय जगदीश हरे.. 
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Wednesday, January 13, 2016

मंदिर में जाने से पहले आखिर क्यों बजाते है घंटी !!


मंदिर में जाने से पहले आखिर क्यों बजाते है घंटी !!

हिंदू धर्म से जुड़े प्रत्येक मंदिर और धार्मिक स्थलों के बाहर आप सभी ने बड़े-बड़े घंटे या घंटियां लटकी तो अवश्य देखी होंगी जिन्हें मंदिर में प्रवेश करने से पहले भक्त श्रद्धा के साथ बजाते हैं. लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि इन घंटियों को मंदिर के बाहर लगाए जाने के पीछे क्या कारण है या फिर धार्मिक दृष्टिकोण से इनका औचित्य क्या है?

असल में प्राचीन समय से ही देवालयों और मंदिरों के बाहर इन घंटियों को लगाया जाने की शुरुआत हो गई थी. इसके पीछे यह मान्यता है कि जिन स्थानों पर घंटी की आवाज नियमित तौर पर आती रहती है वहां का वातावरण हमेशा सुखद और पवित्र बना रहता है और नकारात्मक या बुरी शक्तियां पूरी तरह निष्क्रिय रहती हैं.
यही वजह है कि सुबह और शाम जब भी मंदिर में पूजा या आरती होती है तो एक लय और विशेष धुन के साथ घंटियां बजाई जाती हैं जिससे वहां मौजूद लोगों को शांति और दैवीय उपस्थिति की अनुभूति होती है.
लोगों का मानना है कि घंटी बजाने से मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियों में चेतना जागृत होती है जिसके बाद उनकी पूजा और आराधना अधिक फलदायक और प्रभावशाली बन जाती है.
पुराणों के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के कई जन्मों के पाप तक नष्ट हो जाते हैं. जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) गूंजी थी वही आवाज घंटी बजाने पर भी आती है. उल्लेखनीय है कि यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जागृत होता है.
मंदिर के बाहर लगी घंटी या घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है. कहीं-कहीं यह भी लिखित है कि जब प्रलय आएगा उस समय भी ऐसा ही नाद गूंजेगा.
मंदिर में घंटी लगाए जाने के पीछे ना सिर्फ धार्मिक कारण है बल्कि वैज्ञानिक कारण भी इनकी आवाज को आधार देते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि जब घंटी बजाई जाती है तो वातावरण में कंपन पैदा होता है, जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है. इस कंपन का फायदा यह है कि इसके क्षेत्र में आने वाले सभी जीवाणु, विषाणु और सूक्ष्म जीव आदि नष्ट हो जाते हैं, जिससे आसपास का वातावरण शुद्ध हो जाता है.
इसीलिए अगर आप मंदिर जाते समय घंटी बजाने को अहमियत नहीं देते हैं तो अगली बार प्रवेश करने से पहले घंटी बजाना ना भूलें.
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सुप्रभात Good Morning


Monday, January 11, 2016

VASTU: घर में कौन से पौधे लगाएं और कौन से नहीं?


VASTU: घर में कौन से पौधे लगाएं और कौन से नहीं?

वास्तु शास्त्र के अनुसार जिस प्रकार घर का हर हिस्सा हमारे जीवन को प्रभावित करता है, उसी तरह घर में सजावट के लिए रखे गए पौधे भी हमारे जीवन पर सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। जाने-अनजाने में हम कई बार ऐसे पौधे अपने घर में रख लेते हैं जिनके कारण वास्तु दोष उत्पन्न हो जाता है। आज हम आपको बता रहे हैं घर में किस प्रकार के पौधे रखना चाहिए और कैसे नहीं। इसकी जानकारी इस प्रकार है-

1. वास्तु शास्त्र के अनुसार घर में मनी प्लांट लगाना बहुत ही शुभ होता है। ज्योतिष के अनुसार मनी प्लांट शुक्र ग्रह का कारक है। शुक्र की उपस्थिति में पति-पत्नी के संबंध मधुर होते हैं।
2. घर में कांटेदार व दूध (जिनके कटने-छिलने पर सफेद द्रव्य निकलता हो) वाले पौधे नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि कांटे नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। गुलाब जैसे कांटेदार पौधे लगाए जा सकते हैं पर इसे घर की छत पर रखें तो बेहतर रहेगा।
3. घर में बांस के पौधे लगा सकते हैं। फेंगशुई के अनुसार बांस के पौधे सुख व समृद्धि के प्रतीक होते हैं।
4. घर या कार्यस्थल (दुकान व ऑफिस) की पॉजिटिव एनर्जी को बढ़ाने के लिए गुलदस्तों में रोज ताजे फूल लगाएं। फूलों के गुलदस्ते ताजगी व सौभाग्य की वृद्धि करते हैं। मुरझाए फूल व पत्तियां नेगेटिव एनर्जी उत्पन्न करती हैं।
5. बेडरूम में किसी भी तरह के पौधे लगाने से बचना चाहिए। इससे मैरिड लाइफ पर बुरा असर पड़ सकता है। डाइनिंग व ड्रॉइंग रूम में गमले रखे जा सकते हैं।
6. यदि घर की किसी दीवार पर पीपल उग आए तो उसे पूजा करके हटाते हुए गमले में लगा देना चाहिए। पीपल को बृहस्पति ग्रह का कारक माना जाता है।
7. बोनसाई पौधा भी घर में तैयार नहीं करने चाहिए और न ही बाहर से लाकर लगाने चाहिए। वास्तु शास्त्र के अनुसार बोनसाई पौधा घर में रहने वाले सदस्यों का आर्थिक विकास रोकते हैं।
8. तुलसी का पौधा बेहद कल्याणकारी, बहुउपयोगी, पवित्र एवं शुभ माना जाता है। तुलसी में एंटीबायोटिक सहित अनेक औषधीय गुण होते हैं। इसका स्पर्श व इसकी हवा दोनों लाभकारी है। इसलिए इसे घर में अवश्य लगाना चाहिए।
तुलसी का पौधा वायु प्रदूषण को भी कम करता है। तुलसी का पौधा घर के ब्रह्म स्थल यानी बीचोंबीच लगाना चाहिए। वैसे इसे घर के किसी भी कोने में लगाया जा सकता है। इसे गंदे स्थान पर न लगाएं।
9. गुलाब, चंपा व चमेली के पौधे घर में लगाना अच्छा माना जाता है क्योंकि इससे मानसिक तनाव व अवसाद में कमी आती है।
10. बेडरूम के नैऋत्य कोण में टेराकोटा या चीनी मिट्टी के फूलदानों में सूरजमुखी के असली या नकली फूल लगा सकते हैं।
11. पौधे व फूलों का उपयोग घर के नुकीले कोणों व उबड़-खाबड़ जमीन को ढकने के लिए किया जा सकता है।
12. घर में खूबसूरत पत्ती वाले पौधे जैसे- साइकस, एक्लिया, अर्लिया, फिलोडेण्ट्रोन व ऐरिका आदि लगाए जा सकते हैं।
13. खुशबूदार फूल वाले पौधे जैसे- चंपा, नागचंपा, चमेली, बेला, रात रानी आदि फूल लगाए जा सकते हैं। लेकिन इन्हें घर के बाहर ही लगाएं।
14. घर में नकली पौधे नहीं लगाने चाहिए, ये ऐस्थेटिक सेंस के लिहाज से अशुभ माने जाते है। ये धूप व गंध को भी ज्यादा आकर्षित करते हैं।
15. ऊंचे व घने वृक्ष घर के दक्षिण या पश्चिम भाग में घर की दीवारों से थोड़ी दूर ही लगाना चाहिए।
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Thursday, January 7, 2016

सरस्वती सिद्ध विश्वजयं कवच




सरस्वती सिद्ध विश्वजयं कवच

ॐ ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम! 
ॐ श्रीं ह्रीं भगवत्यै सरस्वत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावातु!!

ऐं ह्रीं वाम्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वदावातु! 
ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वहा चोष्ठं सदावतु!!

ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपंगपंग्क्ति सदावतु! 
ऐमित्येकाक्षारो मंत्रो मम कण्ठे सदावतु!!

ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु! 
ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु!!

ॐ ह्रीं विद्याधिस्वरूपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम! 
ॐ ह्रीं क्लीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु!!

ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादायुग्मं सदावतु! 
ॐ वागधिष्ठतृदेव्यै स्वाहा सर्वें सदावतु!!

ॐ सर्वकन्ठवासिन्ये स्वाहा प्राच्यां सदावतु! 
ॐ सर्व जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशी रक्षतु!!

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा! 
सततं मन्त्रोराजोsयं दक्षिणे मां सदावतु!!

ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्त्रित्यां सर्वदावातु ! 
ॐ ऐं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेsवतु !!

ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु! 
ॐ ऐं श्रीं क्लीं गद्यवासिन्यै स्वाहा मां मामुत्तरेsवतु !!

ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै सवाहैशान्यां सदावतु! 
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु!!

ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु! 
ॐ ग्रन्थबीजस्वरूपायै स्वाहा मां सर्वतोsवतु!!

इति ते कथितं विप्र ब्रह्म मंत्रौघविग्रहम ! 
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मस्वरूपकम !!

पूरा श्रुतं धर्मवक्त्रात पर्वते गंधमादाने! 
तव स्त्रेहान्मयाssख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित !!

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रा लंकारचन्दनै! 
प्रणम्य दण्डवद्भुमौ कवचं धारयेत सुधी:!!

पंचलक्षजपेनैव् सिद्धं तु कवचं भवेत्! 
यदि स्यात सिद्धकवचो वृहस्पतिसमो भवेत्!!

महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत्! 
शक्रोती सर्वें जेतुं च कवचस्य प्रसादत:!!

यह "विश्वविजय कवच" है! जैसा इस कवच का नाम है वैसे ही इसका फल है! इसके करने पर महामूर्ख भी ज्ञानी बन जाता है!
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Tuesday, January 5, 2016

महा मृत्युंजय मंत्र Mahamrityunjay Mantra


महा मृत्युंजय मंत्र
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
जय श्री महाकाल हर हर महादेव 
ऊँ नम: शिवाय
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Good Morning


Saturday, January 2, 2016

शनिवार के टोटके


शनिवार के ये टोटके चमका देंगे आपकी किस्मत

हिंदू धर्म में शनिवार को सूर्यपुत्र शनिदेव की पूजा की जाती है। शास्त्रों में शनिदेव को भाग्य संवारने वाला माना गया है। शनि की शांति के ऎसे कई उपाय हैं जिनके द्वारा मनुष्य के सारे कष्ट दूर होते हैं। आइए ऐसे उपायों के बारे में जानते हैं जिन्हें करने से आपके सारे कष्ट दूर होकर शुभ फलों की प्राप्ति होगी।
 कुंडली के बुरे ग्रहों को पलट देते हैं ये आसान उपाय
1. शनिवार को तेल से बने पदार्थ भिखारी को खिलाने से शनि देव प्रसन्न होते हैं।
2. संध्या के समय जातक अपने घर में गूगल का धूप जलाएं।
3. भिखारियों को काले उड़द का दान करें।
4. जल में काले उड़द को प्रवाहित करें।
5. शनिवार की रात में रक्त चन्दन से अनार की कलम से ऊं ह्वीं को भोजपत्र पर लिख कर नित्य पूजा करने से अपार विद्या, बुद्धि की प्राप्ति होती है।
6. शनिवार को काले कुत्ते, काली गाय को रोटी और काली चिडिया को दाने डालने से जीवन की रूकावटें दूर होती हैं।
7. शनिवार को सुंदरकांड का पाठ सर्वश्रेष्ठ फल प्रदान करता है।
8. चींटियों को गोरज मुहूर्त में तिल चौली डालें।
9. शनिवार के दिन उड़द, तिल, तेल, गुड़ का लड्डू बना लें और जहां हल न चला हो वहां गाड़ दें।
शनिवार को शुभ योग में चमकाएं अपना भाग्य
किसी शनिवार को किसी भी शुभ योग/शुभ चौघडिया में शाम के समय अपनी लंबाई के बराबर लाल रेशमी सूत नाप लें। फिर एक पत्ता बरगद का तोड़ें। उसे स्वच्छ जल से धोकर पोंछ लें। तब पत्ते पर अपनी कामना रूपी नापा हुआ लाल रेशमी सूत लपेट दें और पत्ते को बहते हुए जल में प्रवाहित कर दें। इस प्रयोग से सभी प्रकार की बाधाएं दूर होती हैं, कामनाओं की पूर्ति होती है। इससे तुरंत ही आपका भाग्य चमकने लगेगा।
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शान्ति मन्त्र


शान्ति मन्त्र 
ॐ ध्यौः शान्तिः अन्तरिक्ष शान्तिः आपः शान्तिः 
औषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिः । 
विश्वेदेवाः शान्तिः व्रह्म शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः  !! 

May there be peace in heaven, may there be peace in sky; may there be peace on the earth, may there be peace in waters; may there be peace in herbs, may there be peace in vegetations; may there be peace in all the Gods, may there be peace in entire Bramha (creation); may there peace everywhere; may there be peace and only peace; may that peace embrace me. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......
ॐ सर्वेषां स्वस्तिर्भवतु सर्वेषां शान्तिर्भवतु । 
सर्वेषां पूर्णं भवतु सर्वेषां मङ्गलं भवतु ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

May all become fortunate, may all attain peace, - may all achieve perfection, and may all be blessed. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाक् भवेत् ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 


May all attain peace, may all be healthy - may all enjoy good fortune, may none suffer misery and sorrow. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......
ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्माऽमृतं गमय । 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 


O Lord, lead me from the unreal to the ultimate truth, from the darkness to light, - and from the death of ignorance to the imortality of knowledge. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......
ॐ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह विर्यं करवावहे । 
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

May lord protect us both the teacher and the taught, may he make us both to - enjoy the Supreme, may we both discover the inner truth of scriptures. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......
ॐ शन्नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्यर्यमा 
शंन इन्द्रो बृहस्पतिः शंनो विष्णुरुरुक्रमः नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो 
त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मवदिष्यामि 
ऋतं वदिष्यामि सत्यंवदिष्यामि 
तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु अवतुमाम् अवतुवक्तारं ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

May Sun be blissful to us, may Varuna be blissful to us, may Aryaman be blissful to us. May Indra and Bruhaspati be blissful to us, may Vishnu be blissful to us. Salutation to Brahman, salutation to O Vayu. You only are the direct Brahman, I shall call you rightousness, I shall call you the truth. May he protect me, may he protect the teacher. Protect me, protect the teacher. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्चते । 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

That is Whole, this is Whole, from the Whole the Whole becomes manifest. When Whole from the is Whole taken, what remains is again the Whole. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......
ॐ भद्रं कर्णभिः श्रुणुयाम देवाः 
भद्रंपश्येमाक्षभिर्यत्राः स्थिरै रंर्गैस्तुष्टुवागंसस्तनूभिः व्यशेमदेवहितं यदायुः 
स्वस्तिन इन्द्रो वृध्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः 
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 


Oh God, may we here auspicious words with the ears, while worshipping, may we see auspicious things with the eyes while praising the Gods with steady limbs, may we enjoy a life benificial to the Gods, may Indra of ancient fame be auspicious to us, may the all knowing earth be propitious to us, may Garuda the destroyer of evil be blissful to us, may Bruhaspati ensure our welfare. OM !! Peace Peace Peace 

....... ॐ .......

श्री साई सच्चरित्र



श्री साई सच्चरित्र

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श्री साई सच्चरित्र अध्याय 1

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