श्री हेमाडपंत कहते है कि, "हे मेरे प्यारे साई! तुम तो दया के सागर हो।" यह तो तुम्हारी ही दया का फल है, जो आज यह "साई सच्चरित्र" भक्तों के समक्ष प्रस्तुत है, अन्यथा मुझमें इतनी योग्यता कहाँ, जो ऐसा कठिन कार्य करने का दुस्साहस भी कर सकता ? जब पूर्ण उत्तरदायित्व साई ने अपने ऊपर ही ले लिया तो हेमाडपंत को तिलमात्र भी भार प्रतीत न हुआ और न ही इसकी उन्हें चिन्ता ही हुई। श्री साई ने इस ग्रन्थ के रुप में उनकी सेवा स्वीकार कर ली। यह केवल उनके पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के कारण ही सम्भव हुआ, जिसके लिये वे अपने को भाग्यशाली और कृतार्थ समझते है।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय-30)