Sunday, March 31, 2013

Sabka Malik Aek


ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

बाबा जब से आपका गुलाम हो गया 
तब से मेरा नाम हो गया 
वरना क्या थी औकात जीवन में मेरी
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

om sai ram

ॐ साईं राम 
जब विषय-पदार्थो के प्रति आसकित को त्याग दोगे और अपने व दूसरों में भेद-भाव को सर्वथा अयोग्य मानोगे; तब में तुम्हें सोभाग्यशाली मानूँगा I 
When you abandon all worldly pleasures, consider duality as improper, then I will consider you fortunate.

Saturday, March 30, 2013

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

बाबा दुःख में साथी हैं 
बाबा लाज बचातें हैं 
बाबा लहर तूफानों से हमें पार लगातें हैं 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

om sai ram

ॐ साईं राम 
ऐसी आत्मा जो सत्त्व, रज और तम, त्रिगुणों से परे हो जाती है - वही ह्रदय में निवास करने वाले को प्रकाशित करती है I 
Throbbing of reality which goes beyond the three aspects - satva, rajas and tamas, is really the form of the One embedded in the heart.

Friday, March 29, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 22


अध्याय 22 
सर्प-विष से रक्षा - श्री. बालासाहेब मिरीकर, श्री. बापूसाहेब बूटी, श्री. अमीर शक्कर, श्री. हेमाडपंत, बाबा के 
विचार
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बाबा की सर्प मारने पर सलाह

श्री साईबाबा का ध्यान कैसे किया जाय ? उस सर्वशक्तिमान् की प्रकृति अगाध है, जिसका वर्णन करने में वेद और सहस्त्रमुखी शेषनाग भी अपने को असमर्थ पाते है । भक्तों की रूचि स्वरुप-वर्णन से नहीं । उनकी तो दृढ़ धारणा है कि आनन्द की प्राप्ति केवल उनके श्रीचरणों से ही संभव है । उनके चरणकमलों के ध्यान के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का अन्य मार्ग विदित ही नहीं । हेमाडपंत भक्ति और ध्यान का जो एक अति सरल मार्ग सुझाते है, वह यह है –
कृष्ण पक्ष के आरम्भ होने पर चन्द्र-कलाएँ दिन प्रतिदिन घटती जाती है तथा उनका प्रकाश भी क्रमशः क्षीण होता जाता है और अन्त में अमावस्या के दिन चन्द्रमा के पूर्ण विलीन रहने पर चारों ओर निशा का भयंकर अँधेरा छा जाता है, परन्तु जब शुक्ल पक्ष का प्रारंभ होता है तो लोग चन्द्र-दर्शन के लिए अति उत्सुक हो जाते है । इसके बाद द्वितीया को जब चन्द्र अधिक स्पष्ट गोचर नहीं होता, तब लोगों को वृक्ष की दो शाखाओं के बीच से चन्द्रदर्शन के लिये कहा जाता है; और जब इन शाखाओं के बीच उत्सुकता और ध्यानपूर्वक देखने का प्रयत्न किया जाता है तो दूर क्षितिज पर छोटी-सी चन्द्र रेखा के दृष्टिगोचर होते ही मन अति प्रफुल्लि हो जाता है । इसी सिद्घांत का अनुमोदन करते हुए हमें बाबा के श्री दर्शन का भी प्रयत्न करना चाहिये । बाबा के चित्र की ओर देखो । अहा, कितना सुन्दर है? वे पैर मोड़ कर बैठे है और दाहिना पैर बायें घुटने पर रखा गया है । बांये हाथ की अँगुलियाँ दाहिने चरण पर फैली हुई है । दाहिने पैर के अँगूठे पर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियाँ फैली हुई है । इस आकृति से बाबा समझा रहे है कि यदि तुम्हें मेरे आध्यात्मिक दर्शन करने की इच्छा हो तो अभिमानशून्य और विनम्र होकर उक्त दो अँगुलियों के बीच से मेरे चरण के अँगूठे का ध्यान करो । तब कहीं तुम उस सत्य स्वरुप का दर्शन करने में सफल हो सकोगे । भक्ति प्राप्त करने का यह सबसे सुगम पंथ है ।
अब एक क्षण श्री साईबाबा की जीवनी का भी अवलोकन करें । साईबाबा के निवास से ही शिरडी तीर्थस्थल बन गया है । चारों ओर से लोगों की वहाँ भीड़ प्रतिदिन बढ़ने लगी है तथा धनी और निर्धन सभी को किसी न किसी रुप में लाभ पहुँच रहा है । बाबा के असीम प्रेम, उनके अदभुत ज्ञानभंडार और सर्वव्यापकता का वर्णन करने की सामर्थ्य किसे है? धन्य तो वही है, जिसे कुछ अनुभव हो चुका है । कभी-कभी वे ब्रह्म में निमग्न रहने के कारण दीर्घ मौन धारण कर लिया करते थे । कभी-कभी वे चैतन्यघन और आनन्द मूर्ति बन भक्तों से घरे हुए रहते थे । कभी दृष्टान्त देते तो कभी हास्य-विनोद किया करते थे । कभी सरल चित्त रहते तो कभी क्रुद्ध भी हो जाया करते थे । उनके मुखमंडल के अवलोकन, वार्तालाप करने और लीलाएँ सुनने की इच्छाएँ सदा अतृप्त ही बनी रही । फिर भी हम फूले न समाते थे । जलवृष्टि के कणों की गणना की जा सकती है, वायु को भी चर्म की थैल में संचित किया जा सकता है, परन्तु बाबा की लीलाओं का कोई भी अंत न पा सका । अब उन लीलाओं में से एक लीला का यहाँ भी दर्शन करें । भक्तों के संकटों के घटित होने के पूर्व ही बाबा उपयुक्त अवसर पर किस प्रकार उनकी रक्षा किया करते थे? श्री. बालासाहेब मिरीकर, जो सरदार काकासाहेब के सुपुत्र तथा कोपरगाँव के मामलतदार थे, एक बार दौरे पर चितली जा रहे थे । तभी मार्ग में, वे साईबाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे । उन्होंने मस्जिद में जाकर बाबा की चरण-वन्दना की और सदैव की भाँति स्वास्थ्य तथा अन्य विषयों पर चर्चा की । बाबा ने उन्हें चेतावनी देकर कहा कि, "क्या तुम अपनी द्वारकामाई को जानते हो । श्री. बालासाहेब इसका कुछ अर्थ न समझ सके, इसीलिए वे चुप ही रहे । बाबा ने उनसे पुनः कहा कि जहाँ तुम बैठे हो, वही द्वारकामाई है । जो उसकी गोद में बैठता है, वह अपने बच्चों के समस्त दुःखों और कठिनाइयों को दूर कर देती है । यह मस्जिद माई परम दयालु है । सरल हृदय भक्तों की तो वह माँ है और संकटों में उनकी रक्षा अवश्य करेगी । जो उसकी गोद में एक बार बैठता है, उसके समस्त कष्ट दूर हो जाते है । जो उसकी छत्रछाया में विश्राम करता है, उसे आनन्द और सुख की प्राप्ति होती है ।" तदुपरांत बाबा ने उन्हें उदी देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रख आशीर्वाद दिया ।
जब श्री. बालासाहेब जाने के लिये उठ खड़े हुए तो बाबा बोले कि, "क्या तुम लम्बे बाबा (अर्थात् सर्प) से परिचित हो?" और अपनी बाई मुट्ठी बन्द कर उसे दाहिने हाथ की कुहनी के पास ले जाकर दाहिने हाथ को साँप के सदृश हिलाकर बोले कि वह अति भयंकर है, परन्तु द्वारकामाई के लालों का वह कर ही क्या सकता है? जब स्वंय ही द्वारकामाई उनकी रक्षा करने वाली है तो सर्प की सामर्थ्य ही क्या है?" वहाँ उपस्थित लोग इसका अर्थ तथा मिरीकर को इस प्रकार चोतावनी देने का कारण जानना चाहते थे, परन्तु पूछने का साहस किसी में भी न होता था । बाबा ने शामा को बुलाया और बालासाहेब के साथ जाकर चितली यात्रा का आनन्द लेने की आज्ञा दी । तब शामा ने जाकर बाबा का आदेश बालासाहेब को सुनाया । वे बोले कि मार्ग में असुविधायें बहुत है, अतः आपको व्यर्थ ही कष्ट उठाना उचित नहीं है । बालासाहेब ने जो कुछ कहा, वह शामा ने बाबा को बताया । बाबा बोले कि, "अच्छा ठीक है, न जाओ । सदैव उचित अर्थ ग्रहणकर श्रेष्ठ कार्य ही करना चाहिये । जो कुछ होने वाला है, सो तो होकर ही रहेगा ।"
बालासाहेब ने पुनः विचार कर शामा को अपने साथ चलने के लिये कहा । तब शामा पुनः बाबा की आज्ञा प्राप्त कर बालासाहेब के साथ ताँगे में रवाना हो गये । वे नौ बजे चितली पहुँचे और मारुति मंदिर में जाकर ठहरे । कार्यालय के कर्मचारीगण अभी नहीं आये थे, इस कारण वे यहाँ-वहाँ की चर्चायें करने लगे । बालासाहेब दैनिक पत्र पढ़ते हुए चटाई पर शांतिपूर्वक बैठे थे । उनकी धोती का ऊपरी सिरा कमर पर पड़ा हुआ था और उसी के एक भाग पर एक सर्प बैठा हुआ था । किसी का भी ध्यान उधर न था । वह सी-सी करता हुआ आगे रेंगने लगा । यह आवाज सुनकर चपरासी दौड़ा और लालटेन ले आया । सर्प को देखकर वह साँप साँप कहकर उच्च स्वर में चिल्लाने लगा । तब बालासाहेब अति भयभीत होकर काँपने लगे । शामा को भी आश्चर्य हुआ । तब वे तथा अन्य व्यक्ति वहाँ से धीरे से हटे और अपने हाथ में लाठियाँ ले ली । सर्प धीरे-धीरे कमर से नीचे उतर आया । तब लोगों ने उसका तत्काल ही प्राणांत कर दिया । जिस संकट की बाबा ने भविष्यवाणी की थी, वह टल गया और साई-चरणों में बालासाहेब का प्रेम दृढ़ हो गया ।
बापूसाहेब बूटी
एक दिन महान् ज्योतिषी श्री. नानासाहेब डेंगलें ने बापूसाहेब बूटी से (जो उस समय शिरडी में ही थे) कहा, "आज का दिन तुम्हारे लिये अत्यन्त अशुभ है और तुम्हारे जीवन को भयप्रद है ।" यह सुनकर बापूसाहेब बडे अधीर हो गये । जब सदैव की भाँति वे बाबा के दर्शन करने गये तो वे बोले कि, "ये नाना क्या कहते है? वे तुम्हारी मृत्यु की भविष्यवाणी कर रहे है, परन्तु तुम्हें भयभीत होने की किंचित् मात्र भी आवश्यकता नहीं है । इनसे दृढ़तापूर्वक कह दो कि अच्छा देखे, काल मेरा किस भाँति अपहरण करता है ।" जब संध्यासमय बापू अपने शौच-गृह में गये तो वहाँ उन्हें एक सर्प दिखाई दिया । उनके नौकर ने भी सर्प को देख लिया और उसे मारने को एक पत्थर उठाया । बापूसाहेब ने एक लम्बी लकड़ी मँगवाई, परन्तु लकड़ी आने से पूर्व ही वह साँप दूरी पर रेंगता हुआ दिखाई दिया । और तुरन्त ही दृष्टि से ओझल हो गया । बापूसाहेब को बाबा के अभयपूर्ण वचनों का स्मरण हुआ और बड़ा ही हर्ष हुआ ।
अमीर शक्कर
अमीर शक्कर कोरले गाँव का निवासी था, जो कोपरगाँव तालुके में है । वह जाति का कसाई था और बान्द्रा में दलाली का धंधा किया करता था । वह प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक था । एक बार वह गठिया रोग से अधिक कष्ट पा रहा था । जब उसे खुदा की स्मृति आई, तब काम-धंधा छोड़कर वह शिरडी आया और बाबा से रोग-निवृत्ति की प्रार्थना करने लगा । तब बाबा ने उसे चावड़ी में रहने की आज्ञा दे दी । चावड़ी उस समय एक अस्वास्थ्यकारक स्थान होने के कारण इस प्रकार के रोगियों के लिये सर्वथा ही अयोग्य था । गाँव का अन्य कोई भी स्थान उसके लिये उत्तम होता, परन्तु बाबा के शब्द तो निर्णयात्मक तथा मुख्य औषधिस्वरुप थे । बाबा ने उसे मस्जिद में न आने दिया और चावड़ी में ही रहने की आज्ञा दी । वहाँ उसे बहुत लाभ हुआ । बाबा प्रातः और सायंकाल चावड़ी पर से निकलते थे तथा एक दिन के अंतर से जुलूस के साथ वहाँ आते और वहीं विश्राम किया करते थे । इसलिये अमीर को बाबा का सानिध्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाया करता था । अमीर वहाँ पूरे नौ मास रहा । जब किसी अन्य कारणवश उसका मन उस स्थान से ऊब गया, तब एक रात्रि में वह चोरी से उस स्थान को छोड़कर कोपरगाँव की धर्मशाला में जा ठहरा । वहाँ पहुँचकर उसने वहाँ एक फकीर को मरते हुए देखा, जो पानी माँग रहा था । अमीर ने उसे पानी दिया, जिसे पीते ही उसका देहांत हो गया । अब अमीर किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हो गया । उसे विचार आया कि अधिकारियों को इसकी सूचना दे दूँ तो मैं ही मृत्यु के लिये उत्तरदायी ठहराया जाऊँगा और प्रथम सूचना पहुँचाने के नाते कि मुझे अवश्य इस विषय की अधिक जानकारी होगी, सबसे प्रथम मैं ही पकड़ा जाऊँगा । तब विना आज्ञा शिरडी छोड़ने की उतावली पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ । उसने बाबा से मन ही मन प्रार्थना की और शिरडी लौटने का निश्चय कर उसी रात्रि बाबा का नाम लेते हुए पौ फटने से पूर्व ही शिरडी वापस पहुँचकर चिंतामुक्त हो गया । फिर वह चावड़ी में बाबा की इच्छा और आज्ञानुसार ही रहने लगा और शीघ्र ही रोगमुक्त हो गया ।
एक समय ऐसा हुआ कि अर्द्ध रात्रि को बाबा ने जोर से पुकारा कि "ओ अब्दुल! कोई दुष्ट प्राणी मेरे बिस्तर पर चढ़ रहा है ।" अब्दुल ने लालटेन लेकर बाबा का बिस्तर देखा, परन्तु वहाँ कुछ भी न दिखा । बाबा ने ध्यानपूर्वक सारे स्थान का निरीक्षण करने को कहा और वे अपना सटका भी जमीन पर पटकने लगे । बाबा की यह लीला देखकर अमीर ने सोचा कि हो सकता है कि बाबा को किसी साँप के आने की शंका हुई हो ।
दीर्घकाल तक बाबा की संगति में रहने के कारण अमीर को उनके शब्दों और कार्यों का अर्थ समझ में आ गया था । बाबा ने अपने बिस्तर के पास कुछ रेंगता हुआ देखा, तब उन्होंने अब्दुल से बत्ती मँगवाई और एक साँप को कुंडली मारे हुये वहाँ बैठे देखा, जो अपना फन हिला रहा था । फिर वह साँप तुरन्त ही मार डाला गया । इस प्रकार बाबा ने सामयिक सूचना देकर अमीर के प्राणों की रक्षा की ।
हेमाडपंत (बिच्छू और साँप)
बाबा की आज्ञानुसार काकासाहेब दीक्षित श्री एकनाथ महाराज के दो ग्रन्थों भागवत और भावार्थरामायण का नित्य पारायण किया करते थे । एक समय जब रामायण का पाठ हो रहा था, तब श्री हेमाडपंत भी श्रोताओं में सम्मिलित थे । अपनी माँ के आदेशानुसार किस प्रकार हनुमान ने श्री राम की महानता की परीक्षा ली – यह प्रसंग चल रहा था, सब श्रोता-जन मंत्रमुग्ध हो रहे थे तथा हेमाडपंत की भी वही स्थिति थी । पता नहीं कहाँ से एक बड़ा बिच्छू उनके ऊपर आ गिरा और उनके दाहिने कंधे पर बैठ गया, जिसका उन्हें कोई भान तक न हुआ । ईश्वर को श्रोताओं की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है । अचानक ही उनकी दृष्टि कंधे पर पड़ गई । उन्होंने उस बिच्छू को देख लिया । वह मृतप्राय.-सा प्रतीत हो रहा था, मानो वह भी कथा के आनन्द में तल्लीन हो । हरि-इच्छा जान कर उन्होंने श्रोताओं में बिना विघ्न डाले उसे अपनी धोती के दोनों सिरे मिलाकर उसमें लपेट लिया और दूर ले जाकर बगीचे में छोड़ दिया ।
एक अन्य अवसर पर संध्या समय काकासाहेब वाड़े के ऊपरी खंड में बैठे हुये थे, तभी एक साँप खिड़की की चौखट के एक छिद्र में से भीतर घुस आया और कुंडली मारकर बैठ गया । बत्ती लाने पर पहले तो वह थोड़ा चमका, फिर वहीं चुपचाप बैठा रहा और अपना फन हिलाने लगा । बहुत-से लोग छड़ी और डंडा लेकर वहाँ दौड़े । परन्तु वह एक ऐसे सुरक्षित स्थान पर बैठा था, जहाँ उस पर किसी के प्रहार का कोई भी असर न पड़ता था । लोगों का शोर सुनकर वह शीघ्र ही उसी छिद्र में से अदृश्य हो गया, तब कहीं सब लोगों की जान में जान आई ।
बाबा के विचार
एक भक्त मुक्ताराम कहने लगा कि चलो, अच्छा ही हुआ, जो एक जीव बेचारा बच गया । श्री. हेमाडपंत ने उसकी अवहेलना कर कहा कि साँप को मारना ही उचित है । इस कारण इस विषय पर वादविवाद होने लगा । एक का मत था कि साँप तथा उसके सदृश जन्तुओं को मार डालना ही उचित है, किन्तु दूसरे का इसके विपरीत मत था । रात्रि अधिक हो जाने के कारण किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना ही उन्हें विवाद स्थगित करना पड़ा । दूसरे दिन यह प्रश्न बाबा के समक्ष लाया गया । तब बाबा निर्णयात्मक वचन बोले कि, "सब जीवों में और सम्स्त प्राणियों में ईश्वर का निवास है, चाहे वह साँप हो या बिच्छू । वे ही इस विश्व के नियंत्रणकर्ता है और सब प्राणी साँप, बिच्छू इत्यादि उनकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । उनकी इच्छा के बिना कोई भी दूसरों को नहीं पहुँचा सकता । समस्त विश्व उनके अधीन है तथा स्वतंत्र कोई भी नहीं है । इसलिये हमें सब प्राणियों से दया और स्नेह करना चाहिए । वैमनस्य या संहार करना छोड़कर शान्त चित्त से जीवन व्यतीत करना चाहिए । ईश्वर सबका ही रक्षक है ।"


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

सबूरी सुख का गहना है 
बाबा का यह कहना है 
कष्टों में साईं नाम जपो 
सुख और चेन को सामने पाओ 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 

om sai ram

ॐ साईं राम 
प्राक्रतिक कर्मो के अभिमान के कारण द्रढ बंधन की उत्पत्ति होती है I इसलिए ज्ञानी अपने चित्त को सदैव सावधान रखते हैं और इसके पाश में नहीं फँसते I 
The wise are ever wary of the bondage of the pride of the worldly achievements and do not let it affect them.

Thursday, March 28, 2013

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

बाबा आवाज़ लगातें हैं 
भक्तों को पास बुलाते हैं 
दे कर उदी भक्तों को 
उनके कष्ट मिटातें हैं 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

om sai ram

ॐ साईं राम 
जो आत्मा में द्रढता से स्थिर है और जरा भी विचलित नहीं होता, ऐसे व्यक्ति को समाधि लीन होने या उससे बहार निकलने की कोई आवश्यकता नहीं होती I 
One who meditates upon his Real Self, unwaveringly and does not break his concentration for him, there is no necessity of both - getting into samadhi or coming out of it.

Wednesday, March 27, 2013

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

बाबा जबसे बना है आपसे रिश्ता 
मैं रहमत से भरपूर हुआ
जितना आपके पास आया 
उतना जग से दूर हुआ 
होली की हार्दिक शुभ कामनाएं 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 

om sai ram

ॐ साईं राम 
बाबा अक्सर कहा करते थे कि जो दूसरों को दुःख पहूँचता है, वह मेरे ह्रदय को दुःख देता है तथा मुझे कष्ट पहुँचाता है I 
Baba has repeatedly said;"If any one speak insultingly to another, then he has hurt me only and pierced my heart.

Tuesday, March 26, 2013

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

हल होंगे फिर आपके,सारे सुनो सवाल
छोटी स़ी तरकीब है, जप लो साईं राम 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

श्री साईं वचन

" मैं सात समुन्दर पार भी तुम्हारी रक्षा करूँगा "

Monday, March 25, 2013

Sabka Malik Aek


श्री साईं वचन

" भक्त की सारी पूंजी ,सारी शक्ति वही है , जो गुरु उसको देता है , न इससे ज्यादा न इससे कम "

Sunday, March 24, 2013

om sai ram

ॐ साईं राम 
जो व्यक्ति दुसरो के लिए दुर्वचनों का प्रयोग करता है,वह तत्काल ही मुझे कष्ट पहुँचाता है I लेकिन जो धीरज के साथ उन दुर्वचनों को सहन करता है, वह मुझे दीर्घ काल तक संतुष्टि देता है I 
He hurts me immediately who speaks a volley of hard words to another; while I am immensely pleased for a long time if one bears an insult patiently.

Saturday, March 23, 2013

om sai ram

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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
साईं सेवक बनकर कभी कहीं ना मारो डीग 
साईं चरणों की सेवा करके मन को लो जीत 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 
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om sai ram

ॐ साईं राम 
जब गुरु करुणा करेंगे, केवल तभी सांसारिक जीवन सुखी होगा; जो कार्य कभी भी होने संभव नहीं थे, वे सहज ही पूर्ण हो जायेंगे और क्षण भर में वे तुम्हें भव-सागर से पार ले जाएँगे I 
Life can be happy only if the Guru is compassionate. The impossible becomes becomes possible. He can take you across the ocean of existence in a moment.

Friday, March 22, 2013

om sai ram

ॐ साईं राम 
एकाग्र मन करके जो साईं के चरणों में अभिवंदन कर इन महामंगल परम पावन कथाओं का श्रवण करेगा; उसकी समस्त इच्छाएँ साईं पूर्ण करेंगे उसका स्वार्थ और परमार्थ भी साईं पूर्ण कर देंगे अंत में वह क्रतार्थ हो जाएगा I 
Whoever listens to this story, with concentration after bowing at Sai's feet, will find it most auspicious and supremely purifying. Sai will fulfil his aims and objects, be it for worldly gains or spiritual, and ultimately help in accomplishing life's desires.

Thursday, March 21, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 21


अध्याय 21 - 
श्री. व्ही. एच. ठाकुर, श्री अनंतराव पाटणकर और पंढ़रपुर के वकील की कथाएँ


इस अध्याय में हेमाडपंत ने श्री विनायक हिश्चन्द्र ठाकुर, बी. ए., श्री. अनंतराव पाटणकर, पुणे निवासी तथा पंढरपुर के एक वकील की कथाओं का वर्णन किया है । ये सब कथाएँ अति मनोरंजक है । यदि इनका साराँश मननपूर्वक ग्रहण कर उन्हें आचरण में लाया जाय तो आध्यात्मिक पंथ पर पाठकगण अवश्य अग्रसर होंगें ।

प्रारम्भ
यह एक साधारण-सा नियम है कि गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही हमें संतों का स्न्ध्य और उनकी कृपा प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ हेमाडपंत स्वयं अपनी घटना प्रस्तुत करते है । वे अनेक वर्षों तक बम्बई के उपनगर बांद्रा के स्थानीय न्यायाधीश रहे । पीर मौलाना नामक एक मुस्लिम संत भी वहीं निवास करते थे । उनके दर्शनार्थ अनेक हिन्दू, पारसी और अन्य धर्मावलंबी वहाँ जाया करते थे । उनके मुजावर (पुजारी) ने हेमाडपंत से भी उनका दर्शन करने के लिये बहुत आग्रह किया, परन्तु किसी न किसी कारण वश उनकी भेंट उनसे न हो सकी । अनेक वर्षों के उपरान्त जब उनका शुभ काल आया, तब वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दरबार में जाकर स्थायी रुप से सम्मिलित हो गए । भाग्यहीनों को संतसमागम की प्राप्ति कैसे हो सकती है । केवल वे ही सौभाग्यशाली हे, जिन्हें ऐसा अवसर प्राप्त हो ।

संतों द्वारा लोकशिक्षा
संतों द्वारा लोकशिक्षा का कार्य चिरकाल से ही इस विश्व में संपादित होता आया है । अनेकों संत भिन्न-भिन्न स्थानों पर किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिये स्वयं प्रगट होते है । यद्यपि उनका कार्यस्थल भिन्न होता है, परन्तु वे सब पूर्णतः एक ही है । वे सब उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की संचालनशक्ति के अंतर्गत एक ही लहर में कार्य करते है । उन्हें प्रत्येक के कार्य का परस्पर ज्ञान रहता है और आवश्यकतानुसार वे परस्पर पूर्ति भी करते है, जो निम्नलिखित घटना द्वारा स्पष्ट है ।

श्री. ठाकुर
श्री. व्ही. एच. ठाकुर, बी. ए. रेव्हेन्यू विभाग में एक कर्मचारी थे । वे एक समय भूमिमापक दल के साथ कार्य करते हुए बेलगाँव के समीप वडगाँव नामक ग्राम में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक कानड़ी संत पुरुष (आप्पा) के दर्शन कर उनकी चरण वन्दना की । वे अपने भक्तों को निश्चलदासकृत "विचार-सागर" नामक ग्रंथ (जो वेदान्त के विषय में है) का भावार्थ समझा रहे थे । जब श्री. ठाकुर उनसे विदाई लेने लगे तो उन्होंने कहा, तुम्हें इस ग्रंथ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये और ऐसा करने से तुम्हारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायेंगी तथा जब कार्य करते-करते कालान्तर में तुम उत्तर दिशा में जाओगे तो सौभाग्यवश तुम्हारी एक महान् संत से भेंट होगी, जो मार्ग-प्रदर्शन कर तुम्हारे हृदय को शांति और सुख प्रदान करेंगे ।
बाद में उनका स्थानांतरण जुन्नर को हो गया, जहाँ कि नाणेघाट पार करके जाना पड़ता था । यह घाट अधिक गहरा और पार करने में कठिन था । इसलिये उन्हें भैंसे की सवारी कर घाट पार करना पड़ा, जो उन्हें अधिक असुविधाजनक तथा कष्टकर प्रतीत हुआ । इसके पश्चात् ही उनका स्थानांतरण कल्याण में एक उच्च पद पर हो गया और वहाँ उनका नानासाहेब चाँदोरकर से परिचय हो गया । उनके द्वारा उन्हें श्री साईबाबा के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात हुआ और उन्हें उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई । दूसरे दिन ही नानासाहेब शिरडी को प्रस्थान कर रहे थे । उन्होंने श्री. ठाकुर से भी अपने साथ चलने का आग्रह किया । ठाणे के दीवानी-न्यायालय में एक मुकदमे के संबंध में उनकी उपस्थिति आवश्यक होने के कारण वे उनके साथ न जा सके । इस कारण नानासाहेब अकेले ही रवाना हो गये । ठाणे पहुँचने पर मुकदमे की तारीख आगे के लिए बढ़ गई । इसलिए उन्हें ज्ञात हुआ कि नानासाहेब पिछले दिन ही यहाँ से चले गये है । वे अपने कुछ मित्रों के साथ, जो उन्हें वहीं मिल गये थे, श्री साईबाबा के दर्शन को गए । उन्होंने बाबा के दर्शन किये और उनके चरणकमलों की आराधना कर अत्यन्त हर्षित हुए । उन्हें रोमांच हो आया और उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगी । त्रिकालदर्शी बाबा ने उनसे कहा – "इस स्थान का मार्ग इतना सुगम नही, जितना कि कानड़ी संत अप्पा के उपदेश या नाणेघाट पर भैंसे की सवारी थी । आध्यात्मिक पथ पर चलने के लिये तुम्हें घोर परिश्रम करना पडेगा, क्योंकि वह अत्यन्त कठिन पथ है । जब श्री. ठाकुर ने सारगर्भित शब्द सुने, जिनका अर्थ उनके अतिरिक्त और कोई न जानता था तो उनके हर्ष का पारावार न रहा और उन्हें कानड़ी संत के वचनों की स्मृति हो आई । तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर बाबा के चरणों पर अपना मस्तक रखा और उनसे प्रार्थना की, "कि प्रभु, मुझ पर कृपा करो और इस अनाथ को अपने चरण कमलों की शीतलछाया में स्थान दो ।" तब बाबा बोले, "जो कुछ अप्पा ने कहा, वह सत्य था । उसका अभ्यास कर उसके अनुसार ही तुम्हें आचरण करना चाहिये । व्यर्थ बैठने से कुछ लाभ न होगा । जो कुछ तुम पठन करते हो, उसको आचरण में भी लाओ, अन्यथा उसका उपयोग ही क्या? गुरु कृपा के बिना ग्रंथावलोकन तथा आत्मानुभूति निरर्थक ही है ।" श्री. ठाकुर ने अभी तक केवल 'विचार सागर' ग्रन्थ में सैद्घांतिक प्रकरण ही पढ़ा था, परन्तु उसकी प्रत्यक्ष व्यवहार प्रणाली तो उन्हें शिरडी में ही ज्ञात हुई । एक दूसरी कथा भी इस सत्य का और अधिक सशक्त प्रमाण है ।

श्री. अनंतराव पाटणकर
पूना के एक महाशय, श्री. अनंतराव पाटणकर श्री साईबाबा के दर्शनों के इच्छुक थे । उन्होंने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये । दर्शनों से उनके नेत्र शीतल हो गये और वे अति प्रसन्न हुए । उन्होंने बाबा के श्री चरण छुए और यथायोग्य पूजन करने के उपरान्त बोले, "मैंने बहुत कुछ पठन किया । वेद, वेदान्त और उपनिषदों का भी अध्ययन किया तथा अन्य पुराण भी श्रवण किये, फिर भी मुझे शान्ति न मिल सकी । इसलिये मेरा पठन व्यर्थ ही सिदृ हुआ । एक निरा अज्ञानी भक्त मुझसे कहीं श्रेष्ठ है । जब तक मन को शांति नहीं मिलती, तब तक ग्रन्थावलोकन व्यर्थ ही है । मैंने ऐसा सुना है कि आप केवल अपनी दृष्टि मात्र से और विनोदपूर्ण वचनों द्वारा दूसरों के मन को सरलतापूर्वक शान्ति प्रदान कर देते है । यही सुनकर मैं भी यहाँ आया हूँ । कृपा कर मुझ दास को भी आर्शीवाद दीजिये ।" तब बाबा ने निम्नलिखित कथा कही -

घोड़ी की लीद के लौ गोले (नवधा भक्ति)
"एक समय एक सौदागर यहाँ आया । उसके सम्मुख ही एक घोड़ी ने लीद की । जिज्ञासु सौदागर ने अपनी धोती का एक छोर बिछाकर उसमें लीद के नौ गोले रख लिये और इस प्रकार उसके चित्त को शांति प्राप्त हुई ।" श्री. पाटणकर इस कथा का कुछ भी अर्थ न समझ सके । इसलिये उन्होंने श्री. गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर से अर्थ समझाने की प्रार्थना की और पूछा कि, "बाबा के कहने का अभिप्राय क्या है?" वे बोले कि "जो कुछ बाबा कहते है, उसे मैं स्वयं भी अच्छी तरह नहीं समझ सकता, परंतु उनकी प्रेरणा से ही मैं जो कुछ समझ सका हूँ, वह तुम से कहता हूँ । घोड़ी है ईश-कृपा, और नौ एकत्रित गोले है 
नवविधा
 भक्ति-यथा –श्रवण
कीर्तन
नामस्मरण
पादसेवन
अर्चन
वन्दन
दास्य 
सख्य और
आत्मनिवेदन ।
ये भक्ति के नौ प्रकार है । इनमें से यदि एक को भी सत्यता से कार्यरुप में लाया जाय तो भगववान श्रीहरि अति प्रसन्न होकर भक्त के घर प्रगट हो जायेंगे । समस्त साधनाये अर्थात् जप, तप, योगाभ्यास तथा वेदों के पठन-पाठन में जब तक भक्ति का सम्पुट न हो, बिल्कुल शुष्क ही है । वेदज्ञानी या ब्रह्मज्ञानी की कीर्ति भक्तिभाव के अभाव में निरर्थक है । आवश्यकता है तो केवल पूर्ण भक्ति की । अपने को भी उसी सौदागर के समान ही जानकर और व्यग्रता तथा उत्सुकतापूर्वक सत्य की खोज कर नौ प्रकार की भक्ति को प्राप्त करो । तब कहीं तुम्हें दृढ़ता तथा मानसिक शांति प्राप्त होगी ।"
दूसरे दिन जब श्री. पाटणकर बाबा को प्रणाम करने गये तो बाबा ने पूछा कि, "क्या तुमने लीद के नौ गोले एकत्रित किये?" उन्होंने कहा कि "मैं अनाश्रित हूँ । आपकी कृपा के बिना उन्हें सरलतापूर्वक एकत्रित करना संभव नहीं है ।" बाबा ने उन्हें आर्शीवाद देकर सांत्वना दी कि, "तुम्हें सुख और शांति प्राप्त हो जायेगी," जिसे सुनकर श्री. पाटणकर के हर्ष का पारावार न रहा ।

पंढ़रपुर के वकील
भक्तों के दोष दूर कर, उन्हें उचित पथ पर ला देने की बाबा की त्रिकालज्ञता की एक छोटी-सी कथा का वर्णन कर इस अध्याय को समाप्त करेंगे । एक समय पंढरपुर से एक वकील शिरडी आये । उन्होंने बाबा के दर्शन कर उन्हें प्रणाम किया तथा कुछ दक्षिणा भेंट देकर एक कोने में बैठ वार्तालाप सुनने लगे । बाबा उनकी ओर देख कर कहने लगे कि, "लोग कितने धूर्त है, जो यहाँ आकर चरणों पर गिरते और दक्षिणा देते है, परंतु पीठ पीछे गालियाँ देते रहते है । कितने आश्चर्य की बात है न ?" यह पगड़ी वकील के सिर पर ठीक बैठी और उन्हें उसे पहननी पड़ी । कोई भी इन शब्दों का अर्थ न समझ सका । परन्तु वकील साहब इसका गूढ़ार्थ समझ गये, फिर भी वे सिर झुकाकर बैठे ही रहे । वाड़े को लौटकर वकील साहब ने काकासाहेब दीक्षित को बतलाया कि बाबा ने जो कुछ उदाहरण दिया और जो मेरी ही ओर लक्ष्य कर कहा गया था, वह सत्य है । वह केवल चेतावनी ही थी कि मुझे किसी की निन्दा न करनी चाहिए । एक समय जब उपन्यायाधीश श्री. नूलकर स्वास्थ्य लाभ करने के लिये पंढरपुर से शिरडी आकर ठहरे तो बाररुम में उनके संबंध में चर्चा हो रही थी । विवाद का विषय था कि जिस व्याधि से उपन्यायाधीश अस्वस्थ है, क्या बिना औषधि सेवन किये केवल साईबाबा की शरण में जाने से ही उससे छुटकारा पाना सम्भव है? और क्या श्री. नूलकर सदृश एक शिक्षित व्यक्ति को इस मार्ग का अवलम्बन करना उचित है ? उस समय नूलकर का और साथ ही श्री साईबाबा का भी बहुत उपहास किया गया । मैंने भी इस आलोचना में हाथ बँटाया था । श्री साईबाबा ने मेरे उसी दूषित आचरण पर प्रकाश डाला है । यह मेरे लिये उपहास नही, वरन् एक उपकार है, जो केवल उपदेश है कि मुझे किसी की निंदा न करनी चाहिए और न ही दूसरों के कार्यों में विघ्न डालना चाहिए ।
शिरडी और पंढरपुर में लगभग 300 मील का अन्तर है । फिर भी बाबा ने अपनी सर्वज्ञता द्वारा जान लिया कि बाररुम में क्या चल रहा था? मार्ग में आने वाली नदियाँ, जंगल और पहाड़ उनकी सर्वज्ञता के लिये रोड़ा न थे । वे सबके हृदय की गुह्य बात जान लेते थे और उनसे कुछ छिपा न था । समीपस्थ या दूरस्थ प्रत्येक वस्तु उनके लिए दिन के प्रकाश के समान प्रकाशवान थी तथा उनकी सर्वव्यापक दृष्टि से ओझल न थी । इस घटना से वकीलसाहब को शिक्षा मिली कि कभी किसी का छिद्रान्वेषण एवं निंदा नहीं करनी चाहिए । 
यह कथा केवल वकीलसाहव को ही नहीं, वरन सबके लिए शिक्षाप्रद है । श्री साईबाबा की महानता कोई न आँक सका और न ही उनकी अदभुत लीलाओं का अंत ही पा सका । उनकी जीवनी भी तदनुरुप ही है, क्योंकि वे परब्रह्मस्वरुप है ।


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

om sai ram

ॐ साईं राम 
एकाग्र मन करके जो साईं के चरणों में अभिवंदन कर इन महामंगल परम पावन कथाओं का श्रवण करेगा; उसकी समस्त इच्छाएँ साईं पूर्ण करेंगे उसका स्वार्थ और परमार्थ भी साईं पूर्ण कर देंगे अंत में वह क्रतार्थ हो जाएगा I 
Whoever listens to this story, with concentration after bowing at Sai's feet, will find it most auspicious and supremely purifying. Sai will fulfil his aims and objects, be it for worldly gains or spiritual, and ultimately help in accomplishing life's desires.

Wednesday, March 20, 2013

om sai ram


ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
बाबा के ध्यान से मन शुद्ध होता है 
परन्तु बाबा के दर्शन के लिए श्रद्धा और सबुरी की आवश्यकता होती है 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Tuesday, March 19, 2013

om sai ram


ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
बाबा की नज़रों में होता है बड़ा कमाल 
दुःख भाग जातें है, कर देतें है माला माल 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Monday, March 18, 2013

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं
साईं आशा के साथ में, चरण छुए सौ बार
हृदय हमारे बैठिए, शिर्डी के अवतार
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Saturday, March 16, 2013

श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय

एक समय ठाणे के श्री कौपीनेश्वर मन्दिर में श्री दासगणू कीर्तन और श्री साईबाबा का गुणगान कर रहे थे । श्रोताओं मे एक चोलकर नामक व्यक्ति, जो ठाणे के दीवानी न्यायालय में एक अस्थायी कर्मचारी था, भी वहाँ उपस्थित था । दासगणू का कीर्तन सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन बाबा को नमन कर प्रार्थना करने लगा कि "हे बाबा ! मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ और अपने कुटुम्ब का भरण-पोशण भी भली भाँति करने में असमर्थ हूँ । यदि मै आपकी कृपा से विभागीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो आपके श्री चरणों में उपस्थित होकर आपके निमित्त मिश्री का प्रसाद बाटूँगा ।" अब देखिये भाग्य ने पल्टा खाया और चोलकर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया । उसकी नौकरी भी स्थायी हो गई । अब केवल संकल्प ही शेष रहा । "शुभस्य शीघ्रम ।" श्री. चोलकर निर्धन तो था ही और उसका कुटुम्ब भी बड़ा था । अतः वह शिरडी यात्रा के लिये मार्ग-व्यय जुटाने में असमर्थ हुआ । ठाणे जिले में एक कहावत प्रचलित है कि "नाणे घाट व सहाद्रि पर्वत श्रेणियाँ कोई भी सरलतापूर्वक पार कर सकता है, परन्तु गरीब को उंबर घाट (गृह-चक्कर) पार करना बड़ा ही कठिन होता हैं ।" श्री. चोलकर अपना संकल्प शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने कि लिये उत्सुक था । उसने मितव्ययी बनकर, अपना खर्च घटाकर पैसा बचाने का निश्चय किया । इस कारण उसने बिना शक्कर की चाय पीना प्रारम्भ किया और इस तरह कुछ द्रव्य एकत्रित कर वह शिरडी पहुँचा । उसने बाबा का दर्शन कर उनके चरणों पर गिरकर नारियल भेंट किया तथा अपने संकल्पानुसार श्रद्घा से मिश्री वितरित की और बाबा से बोला कि "आपके दर्शन से मेरे हृदय को अत्यंत प्रसन्नता हुई है । मेरी समस्त इच्छायें तो आपकी कृपादृष्टि से उसी दिन पूर्ण हो चुकी थी ।" मस्जिद में श्री. चोलकर का आतिथ्य करने वाले श्री बापूसाहेब जोग भी वहीं उपस्थित थे । जब वे दोनों वहाँ से जाने लगे तो बाबा जोग से इस प्रकार कहने लगे कि, "अपने अतिथि को चाय के प्याले अच्छी तरह शक्कर मिलाकर देना ।" इन अर्थपूर्ण शब्दों को सुनकर श्री. चोलकर का हृदय भर आया और उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । उनके नेत्रों से अश्रु-धाराएँ प्रवाहित होने लगी और वे प्रेम से विहृल होकर श्रीचरणों पर गिर पड़े । श्री. जोग को अधिक शक्कर सहित चाय के प्याले अतिथि को दो यह विचित्र आज्ञा सुनकर बड़ा कुतूहल हो रहा था कि यथार्थ में इसका अर्थ क्या है बाबा का उद्देश्य तो श्री. चोलकर के हृदय में केवल भक्ति का बीजारोपण करना ही था । बाबा ने उन्हें संकेत किया था कि वे शक्कर छोड़ने के गुप्त निश्चय से भली भाँति परिचित है ।
(श्री साई सच्चरित्र)

Friday, March 15, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 20



अध्याय 20 

 श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्वारा श्री. दासगणू की समस्या का विलक्षण समाधान, अद्वितीय शिक्षा पद्धति, ईशोपनिषद् की शिक्षा।
श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्वारा श्री. दासगणू की समस्या किस प्रकार हल हुई, इसका वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है ।
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प्रारम्भ
श्री साई मूलतः निराकार थे, परन्तु भक्तों के प्रेमवश ही वे साकार रुप में प्रगट हुए । माया रुपी अभिनेत्री की सहायता से इस विश्व की वृहत् नाट्यशाला में उन्होंने एक महान् अभिनेता के सदृश अभिनय किया । आओ, श्री साईबाबा का ध्यान व स्मरण करें और फिर शिरडी चलकर ध्यानपूर्वक मध्यान की आरती के पश्चात का कार्यक्रम देखें । जब आरती समाप्त हो गई, तब श्री साईबाबा ने मस्जिद से बाहर आकर एक किनारे खड़े होकर बड़ी करुणा तथा प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी वितरण की । भक्त गण भी उनके समक्ष खड़े होकर उनकी ओर निहारकर चरण छूते और उदी वृष्टि का आनंद लेते थे । बाबा दोनों हाथों से भक्तों को उदी देते और अपने हाथ से उनके मस्तक पर उदी का टीका लगाते थे । बाबा के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था । वे भक्तों को प्रेम से सम्बोधित करते, "ओ भाऊ! अब जाओ, भोजन करो । अण्णा ! तुम भी अपने घर जाओ । बापू ! तू भी जा और भोजन कर ।" इसी प्रकार वे प्रत्येक भक्त से सम्भाषण करते और उन्हें घर लौटाया करते थे । अहा ! क्या दिन,थे वे जो अस्त हुए तो ऐसे हुए कि फिर इस जीवन में कभी न मिलें ! यदि तुम कल्पना करो तो अभी भी उस आनन्द का अनुभव कर सकते हो । अब हम साई की आनन्दमयी मूर्ति का ध्यान कर नम्रता प्रेम और आदरपूर्वक उनकी चरणवन्दना कर इस अध्याय की कथा आरम्भ करते है ।

ईशोपनिषद्
एक समय श्री दासगणू ने ईशोपनिषद् पर टीका (ईशावास्य-भावार्थबोधिनी) लिखना प्रारम्भ किया । वर्णन करने से पूर्व इस उपनिषद का संक्षिप्त परिचय भी देना आवश्यक है । इसमें वैदिक संहिता के मंत्रों का समावेश होने के कारण इसे मन्त्रोपनिषद् भी कहते है और साथ ही इसमें यजुर्वेद के अंतिम (40वें) अध्याय का अंश सम्मलित होने के कारण यह वाजसनेयी (यजु:) संहितोपनिषद् के नाम से भी प्रसिदृ है । वैदिक संहिता का समावेश होने के कारण इसे उन अन्य उपनिषदों की अपेक्षा श्रेष्ठतर माना जाता है, जो कि ब्राह्मण और आरण्यक (अर्थात् मन्त्र और धर्म) इन विषयों के विवरणात्मक ग्रंथ की कोटि में आते है । इतना ही नही, अन्य उपनिषद् तो केवल ईशोपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्वों पर ही आधारित टीकायें है । पण्डित सातवलेकर द्वारा रचित वृहदारण्यक उपनिषद् एवं ईशोपनिषद् की टीका प्रचलित टीकाओं में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है ।


प्रोफेसर आर. डी. रानाडे का कथन है कि ईशोपनिषद् एक लघु उपनिषद् होते हुए भी, उसमें अनेक विषयों का समावेश हे, जो एक असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है । इसमें केवल 18 श्लोकों में ही आत्मतत्ववर्णन, एक आदर्श संत की जीवनी, जो आकर्षण और कष्टों के संसर्ग में भी अचल रहता है, कर्मयोग के सिद्घान्तों का प्रतिबिम्ब, जिसका बाद में सूत्रीकरण किया गया, तथा ज्ञान और कर्त्तव्य के पोषक तत्वों का वर्णन है, जिसके अन्त में आदर्श, चामत्कारिक और आत्मासंबंधी गूढ़ तत्वों का संग्रह है ।
इस उपनिषद् के संबंध में संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसका प्राकृत भाषा में वास्तविक अर्थ सहित अनुवाद करना कितना दुष्कर कार्य है । श्री. दासगणू ने ओवी छन्दों में अनुवाद तो किया, परन्तु उसके सार तत्व को ग्रहण न कर सकने के कारण उन्हें अपने कार्य से सन्तोष न हुआ । इस प्रकार असंतुष्ट होकर उन्होंने कई अन्य विद्वानों से शंका-निवारणार्थ परामर्श और वादविवाद भी किया, परन्तु समस्या पूर्ववत् जटिल ही बनी रही और सन्तोषजनक भावार्थ करने में कोई भी सफल न हो सका । इसी कारण श्री. दासगणू बहुत ही असंतुष्ट हुए ।

केवल सदगुरु ही अर्थ समझाने में समर्थ
यह उपनिषद वेदों का महान् विवरणात्मक सार है । इस अस्त्र के प्रयोग से जन्म-मरण का बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है और मुक्ति की प्राप्ति होती है । अतः श्री. दासगणू को विचार आया कि जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका हो, केवल वही इस उपनिषद् का वास्तविक अर्थ कर सकता है । जब कोई भी उनकी शंका का निवारण न कर सका तो उन्होंने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया । जब उन्हें शिरडी जाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बाबा से भेंट की और चरण-वन्दना करने के पश्चात् उपनिषद् में आई हुई कठिनाइयाँ उनके समक्ष रखकर उनसे हल करने की प्रार्थना की । श्री साईबाबा ने आशीर्वाद देकर कहा कि, "चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं । उसमें कठिनाई ही क्या है? जब तुम लौटोगे तो विलेपार्ला में काका दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी शंका का निवारण कर देगी ।" उपस्थित लोगों ने जब ये वचन सुने तो वे सोचने लगे कि बाबा केवल विनोद ही कर रहे है और कहने लगे कि क्या एक अशिक्षित नौकरानी भी ऐसी जटिल समस्या हल कर सकती है? परन्तु दासगणू को तो पूर्ण विश्वास था कि बाबा के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते, क्योंकि बाबा के वचन तो साक्षात् ब्रह्मवाक्य ही है ।

काका की नौकरानी
बाबा के वचनों में पूर्ण विश्वास कर वे शिरडी से विलेपार्ला (बम्बई के उपनगर) में पहुँचकर काका दीक्षित के यहाँ ठहरे । दूसरे दिन दासगणू सुबह मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें एक निर्धन बालिका के सुन्दर गीत का स्पष्ट और मधुर स्वर सुनाई पड़ा । गीत का मुख्य विषय था – एक लाल रंग की साड़ी । वह कितनी सुन्दर थी, उसका जरी का आँचल कितना बढ़िया था, उसके छोर और किनारे कितने सुन्दर थे, इत्यादि । उन्हें वह गीत अति रुचिकर प्रतीत हुआ । इस कारण उन्हो्ने बाहर आकर देखा कि यह गीत एक बालिका - नाम्या की बहन - जो काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी है – गा रही है । बालिका बर्तन माँज रही थी और केवल एक फटे कपड़े से तन ढँकें हुए थी । इतनी दरिद्र-परिस्थिति में भी उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर श्री. दासगणू को दया आ गई और दूसरे दिन श्री. दासगणू ने श्री. एम्. व्ही. प्रधान से उस निर्धन बालिका को एक उत्म साड़ी देने की प्रार्थना की । जब रावबहादुर एम. व्ही. प्रधान ने उस बालिका को एक धोती का जोड़ा दिया, तब एक क्षुधापीड़ित व्यक्ति को जैसे भाग्यवश मधुर भोजन प्राप्त होने पर प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा । दूसरे दिन उसने नई साड़ी पहनी और अत्यन्त हर्षित होकर नाचने-कूदने लगी एवं अन्य बालिकाओं के साथ वह फुगड़ी खेलने में मग्न रही । अगले दिन उसने नई साड़ी सँभाल कर सन्दूक में रख दी और पूर्ववत् फटे पुराने कपड़े पहनकर आई, परन्तु फिर भी पिछले दिन के समान ही प्रसन्न दिखाई दी । यह देखकर श्री. दासगणू की दया आश्चर्य में परिणत हो गई । उनकी ऐसी धारणा थी कि निर्धन होने के ही कारण उसे फटे चिथड़े कपड़े पहनने पड़ते है, परन्तु अब तो उसके पास नई साड़ी थी, जिसे उसने सँभाल कर रख लिया और फटे कपडे पहनकर भी उसी गर्व और आनन्द का अनुभव करती रही । उसके मुखपर दुःख या निराशा का कोई निशान भी नही रहा । इस प्रकार उन्हें अनुभव हुआ कि दुःख और सुख का अनुभव केवल मानसिक स्थिति पर निर्भर है । इस घटना पर गूढ़ विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि भगवान ने जो कुछ दिया है, उसी में समाधान वृत्ति रखनी चाहिये और यह निश्चयपूर्वक समझना चाहिये कि वह सब चराचर में व्याप्त है और जो कुछ भी स्थिति उसकी दया से अपने को प्राप्त है, वह अपने लिये अवश्य ही लाभप्रद होगी । इस विशिष्ट घटना में बालिका की निर्धनावस्था, उसके फटे पुराने कपड़े और नई साड़ी देने वाला तथा उसकी स्वीकृति देने वाला यह सब ईश्वर द्वारा ही प्रेरित कार्य था । श्री. दासगणू को उपनिषद् के पाठ की प्रत्यक्ष शिक्षा मिल गई अर्थात् जो कुछ अपने पास है, उसी में समाधानवृत्ति माननी चाहिए । सार यह है कि जो कुछ होता है, सब उसी की इच्छा से नियंत्रित है, अतः उसी में संतुष्ट रहने में हमारा कल्याण है ।

अद्वितीय शिक्षापद्घति
उपयुक्त घटना से पाठकों को विदित होगा कि बाबा की पदृति अद्वितीय और अपूर्व थी । बाबा शिरडी के बाहर कभी नहीं गये, परन्तु फिर भी उन्होंने किसी को मच्छिन्द्रगढ़, किसी को कोल्हापुर या सोलापुर साधनाओं के लिये भेजा । किसी को दिन में और किसी को रात्रि में दर्शन दिये । किसी को काम करते हुए, तो किसी को निद्रावस्था में दर्शन दिये ओर उनकी इच्छाएँ पूर्ण की । भक्तों को शिक्षा देने के लिये उन्होंने कौन कौन-सी युक्तियाँ काम में लाई, इसका वर्णन करना असम्भव है । इस विशिष्ट घटना में उन्होंने श्री. दासगणू को विलेपार्ला भेज कर वहाँ उनकी नौकरानी द्वारा समस्या हल कराई । जिनका ऐसा विचार हो कि श्री. दासगणू को बाहर भेजने की आवश्यकता ही क्या थी, क्या वे स्वयं नही समझा सकते थे? उनसे मेरा कहना है कि बाबा ने उचित मार्ग ही अपनाया । अन्यथा श्री. दासगणू किस प्रकार एक अमूल्य शिक्षा उस निर्धन नौकरानी और उसकी साड़ी द्वारा प्राप्त करते, जिसकी रचना स्वयं साई ने की थी ।

ईशोपनिषद् की शिक्षा
ईशोपनिषद् की मुख्य देन नीति-शास्त्र सम्बन्धी उपदेश है । हर्ष की बात है कि इस उपनिषद् की नीति निश्चित रुप से आध्यात्मिक विषयों पर आधारित है, जिसका इसमें वृहत् रुप से वर्णन किया गया है । उपनिषद् का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि समस्त वस्तुएँ ईश्वर से ओत-प्रोत है । यह आत्मविषयक स्थिति का भी एक उपसिद्घान्त है; और जो नीतिसंबंधी उपदेश उससे ग्रहण करने योग्य है, वह यह है कि जो कुछ ईशकृपा से प्राप्त है, उसमें ही आनन्द मानना चाहिये और दृढ़ भावना रखनी चाहिये कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान् है और इसलिए जो कुछ उसने दिया है, वही हमारे लिये उपयुक्त है । यह भी उसमें प्राकृतिक रुप से वर्णित है कि पराये धन की तृष्णा की प्रवृत्ति को रोकना चाहिये । सारांश यह है कि अपने पास जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहना, क्योंकि यही ईश्वरेच्छा है । चरित्र सम्बन्धी द्वितीय उपदेश यह है कि कर्तव्य को ईश्वरेच्छा समझते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये, विशेषतः उन कर्मों को जिनको शास्त्र में वर्णित किया गया है । इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि आलस्य से आत्मा का पतन हो जाता है और इस प्रकार निरपेक्ष कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला ही अकर्मण्यता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है । अन्त में कहा है कि जो सब प्राणियों को अपना ही आत्मस्वरुप समझता है तथा जिसे समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरुप हो चुके है, उसे मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है । ऐसे व्यक्ति को दुःख का कोई कारण नहीं हो सकता ।
सर्वभूतों में आत्मदर्शन न कर सकने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के शोक, मोह और दुःखों की वृद्घि होती है । जिसके लिये सब वस्तुएँ आत्मस्वरुप बन गई हो, वह अन्य सामान्य मनुष्यों का छिद्रान्वेषण क्यों करे?


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।








om sai ram


ॐ साईं राम 
जो आत्मा में द्रढता से स्थिर है और जरा भी विचलित नहीं होता, ऐसे व्यक्ति को समाधि लीन होने या उससे बहार निकलने की कोई आवश्यकता नहीं होती I 
One who meditates upon his Real Self, unwaveringly and does not break his concentration for him, there is no necessity of both - getting into samadhi or coming out of it.

Thursday, March 14, 2013

श्री साईं बाबा अष्टोत्तारशत - नामावली



श्री साईं बाबा अष्टोत्तारशत - नामावली

1. ॐ श्री साईंनाथाय नमः
--- ॐ श्री साईंनाथ को नमस्कार 

2. ॐ श्री साईं लक्ष्मी नारायणाय नमः
--- ॐ जो लक्ष्मी नारायण के स्वरुप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

3. ॐ श्री साईं कृष्णमशिवमारूतयादिरूपाय नमः
--- ॐ जो श्री कृष्ण, राम, शिव, मारुति आदि देवताओं के स्वरुप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

4. ॐ श्री साईं शेषशायिने नमः
--- ॐ जो शेषनाग पर शयन करने वाले भगवान विष्णु के अवतार हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

5. ॐ श्री साईं गोदावीरतटीशीलाधीवासिने नमः
--- ॐ जो गोदावरी नदी के तट पर बसी "शीलधी" (शिरडी) में निवास करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

6. ॐ श्री साईं भक्तह्रदालयाय नमः
--- ॐ जो भक्तों के मन में विराजमान हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

7. ॐ श्री साईं सर्वह्रन्निलयाय नमः
--- ॐ जो सभी प्रणियों के मन में निवास करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

8. ॐ श्री साईं भूतावासाय नमः
--- ॐ जो समस्त प्राणियों में बसते हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

9. ॐ श्री साईं भूतभविष्यदुभवाज्रिताया नमः
--- ॐ जो भूत तथा भविष्य की चिंताओं से मुक्त करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

10. ॐ श्री साईं कालातीताय नमः
--- ॐ जो काल की सीमायों से परे हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

11. ॐ श्री साईं कालायः नमः
--- ॐ जो काल अर्थात समय के स्वामी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

12. ॐ श्री साईं कालकालाय नमः
--- ॐ जो काल की सीमाओं से परे हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

13. ॐ श्री साईं कालदर्पदमनाय नमः
--- ॐ जो काल (मृत्युदेव) के अहंकार का नाश करते हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

14. ॐ श्री साईं मृत्युंजयाय नमः
--- ॐ जो मृत्यु को जीतने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

15. ॐ श्री साईं अमत्य्राय नमः
--- ॐ जो अमरत्व को पाये हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

16. ॐ श्री साईं मर्त्याभयप्रदाय नमः
--- ॐ जो मृत्यु के भय से रक्षा करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

17. ॐ श्री साईं जिवाधाराय नमः
--- ॐ जो समस्त जीवों के आधार हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

18. ॐ श्री साईं सर्वाधाराय नमः
--- ॐ जो समस्त ब्रह्माड़ के आधार हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

19. ॐ श्री साईं भक्तावनसमर्थाय नमः
--- ॐ जो भक्तों की रक्षा करने में समर्थ हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

20. ॐ श्री साईं भक्तावनप्रतिज्ञाय नमः
--- ॐ जो भक्तों की रक्षा करने हेतु प्रतिज्ञाबद्ध हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

21. ॐ श्री साईं अन्नवसत्रदाय नमः
--- ॐ जो अन्न और वस्त्र के दाता हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

22. ॐ श्री साईं आरोग्यक्षेमदाय नमः
--- ॐ जो आरोग्य और कल्याण प्रदान करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

23. ॐ श्री साईं धनमांगल्यप्रदाय नमः
--- ॐ जो धन तथा मांगल्य प्रदान करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

24. ॐ श्री साईं ऋद्धिसिद्धिदाय नमः 
--- ॐ जो ऋद्धि, सिद्धि को देने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

25. ॐ श्री साईं पुत्रमित्रकलत्रबन्धुदाय नमः
--- ॐ जो पुत्र, मित्र, पति अथवा पत्नी और सम्बन्धी देने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

26. ॐ श्री साईं योगक्षेमवहाय नमः
--- ॐ जो भक्तों को सभी तरह का सुख प्रदान करने तथा कल्याण की जिम्मेदारी उठाने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

27. ॐ श्री साईं आपदबान्धवाय नमः
--- ॐ जो संकट के समय बन्धु के समान रक्षा करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

28. ॐ श्री साईं मार्गबन्धवे नमः
--- ॐ जो जीवन मार्ग के साथी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

29. ॐ श्री साईं भक्तिमुक्तिस्वर्गापवर्गदाय नमः
--- ॐ जो सांसारिक वैभव, मोक्ष और नैसर्गिक आनन्द व अन्तिम उत्सर्ग को प्रदान करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

30. ॐ श्री साईं प्रियाय नमः
--- ॐ जो भक्तों के प्रिय हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

31. ॐ श्री साईं प्रीतिवर्द्धनाय नमः
--- ॐ जो प्रीति को बढाने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

32. ॐ श्री साईं अन्तय्रामिणे नमः
--- ॐ जो अन्तर्यामी, अर्थात मन की समस्त भावनाओं से परे हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

33. ॐ श्री साईं सच्चिदानात्मने नमः
--- ॐ जो सत्य और विशुद्ध आत्मा के प्रतीक हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

34. ॐ श्री साईं नित्यानंदाय नमः
--- ॐ जो नित्य आनन्द हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

35. ॐ श्री साईं परमसुखदाय नमः
--- ॐ जो परम सुख को देने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

36. ॐ श्री साईं परमेश्वराय नमः
--- ॐ जो परमेश्वर हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

37. ॐ श्री साईं परब्रह्मणे नमः
--- ॐ जो साक्षात् परब्रह्म स्वरुप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

38. ॐ श्री साईं परमात्मने नमः
--- ॐ जो परमात्मा स्वरुप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

39. ॐ श्री साईं ज्ञानस्वरूपिणे नमः
--- ॐ जो साक्षात् ज्ञान के स्वरुप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

40. ॐ श्री साईं जगतः पित्रे नमः
--- ॐ जो जगत पिता हैं अर्थात संसार के रचयिता हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

41. ॐ श्री साईं भक्तानां मतधातपितामहाय नमः
--- ॐ जो भक्तों के माता, पालनकर्ता और पितामह हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

42. ॐ श्री साईं भक्ताभय प्रदाय नमः
--- ॐ जो भक्तों को अभय दान देने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

43. ॐ श्री साईं भक्तपराधिनाय नमः
--- ॐ जो भक्तों के अधीन होकर उनके ही कल्याण में लगे हुए हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

44. ॐ श्री साईं भक्तानुग्रहकातराय नमः
--- ॐ जो भक्तों पर अपनी कृपा या अनुग्रह बनाए रखने के लिए अति दयावान हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

45. ॐ श्री साईं शरणागतवत्सलाय नमः
--- ॐ जो अपनी शरण में आये भक्त पर वात्सल्य रखने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

46. ॐ श्री साईं भक्तिशक्तिप्रदाय नमः
--- ॐ जो भक्ति और शक्ति देने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

47. ॐ श्री साईं ज्ञानवैराग्यपदाय नमः
--- ॐ जो ज्ञान और वैराग्य प्रदान करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

48. ॐ श्री साईं प्रेमप्रदाय नमः
--- ॐ जो प्रेम देने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

49. ॐ श्री साईं संशयह्रदयदोर्बल्यपापकर्म नमः
--- ॐ जो समस्त संदेहों, मन की दुर्बलता, पाप-कर्म तथा वासना का नाश करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

50. ॐ श्री साईं ह्रदयग्रन्थिवेदकाय नमः
--- ॐ जो मन और विचारों में पड़ी हुई समस्त ग्रंथियों को खोल देने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

51. ॐ श्री साईं कर्मध्वंसिने नमः
--- ॐ जो पाप-कर्मों से होने वाले प्रभाव को नष्ट करते हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

52. ॐ श्री साईं सुद्धसत्त्वस्थिताय नमः
--- ॐ जो शुद्ध मन सात्त्विक भावों पर संस्थापित हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

53. ॐ श्री साईं गुणातीतगुणात्मने नमः
--- ॐ जो गुणों से परे हैं और समस्त सद् गुणों से परिपूर्ण हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

54. ॐ श्री साईं अनन्त कल्याणगुणाय नमः
--- ॐ जो अनन्त कल्याणकारी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

55. ॐ श्री साईं अमितपराक्रमाय नमः
--- ॐ जो असीमित पराक्रम और वीरता के स्वामी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

56. ॐ श्री साईं जयिने नमः
--- ॐ जो स्वयं जय हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

57. ॐ श्री साईं दुर्घषोक्षोभ्याम नमः
--- ॐ जो अत्यंत कठिन को भी सरल करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

58. ॐ श्री साईं अपराजितय नमः
--- ॐ जो सदा अजेय हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

59. ॐ श्री साईं त्रिलोकेषु अनिघातगतये नमः
--- ॐ जो तीनों लोकां के स्वामी, जिनके कल्याणकारी सद् कर्मो में कोई भी विध्न नहीं हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

60. ॐ श्री साईं अशक्यरहिताय नमः
--- ॐ जिनकी शक्ति से कोई भी बाहर नहीं हैं ऐसे सद् गुरु श्री साईंनाथ को नमस्कार

61. ॐ श्री साईं सर्वशक्तिमूर्तये नमः
--- ॐ जो सर्वशक्ति परमात्मा के स्वरुप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

62. ॐ श्री साईं सुसरूपसुन्दराय नमः
--- ॐ जो अत्यन्त मनोहारी स्वरुप वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

63. ॐ श्री साईं सुलोचनाय नमः
--- ॐ जो अत्यन्त सुन्दर नेत्र वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

64. ॐ श्री साईं बहुरूपविश्वमूर्तये नमः
--- ॐ जो बहुरूपी, विश्वरुपी, सर्वरुपी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

65. ॐ श्री साईं अरूपाव्यक्ताय नमः
--- ॐ जो निराकार हैं जिनके स्वरुप को व्यक्त नहीं किया जा सकता, ऐसे श्री साईंनाथ को नमस्कार

66. ॐ श्री साईं अचिन्ताय नमः
--- ॐ जो अकल्पनीय, अगम्य और गहन स्वरूप वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

67. ॐ श्री साईं सूक्ष्माय नमः
--- ॐ जो अत्यन्त सूक्ष्म रूप धारण करने वाले हैं उन सर्वव्यापी प्रभु श्री साईंनाथ को नमस्कार

68. ॐ श्री साईं सर्वान्तय्रामिणे नमः
--- ॐ जो समस्त जीवों की अन्तरात्मा या हरद में वास करते हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

69. ॐ श्री साईं मनोवागतिताय नमः
--- ॐ जो भक्तों के मन और वाणी से परे हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

70. ॐ श्री साईं प्रेममूर्तये नमः
--- ॐ जो साक्षात् प्यार और करुणा के अवतार हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

71. ॐ श्री साईं सुलभदुर्लभाय नमः
--- ॐ जो भक्त हेतु अत्यन्त सुलभ, किन्तु दुष्ट आत्मा हेतु अति दुर्लभ हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

72. ॐ श्री साईं असहायसहायाय नमः
--- ॐ जो असहायों के सहायक हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

73. ॐ श्री साईं अनाथनाथदीनबन्धवे नमः
--- ॐ जो अनाथों के नाथ हैं तथा गरीबों के बंधु हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

74. ॐ श्री साईं सर्वभारभ्रते नमः
--- ॐ जो भक्तों के समस्त दुखों के भार स्वयं पर लेने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

75. ॐ श्री साईं अकर्मानेककर्मसुकर्मिणे नमः
--- ॐ जो स्वयं अकर्मा होकर अपने सुकर्मों को करने वाले भी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

76. ॐ श्री साईं पुण्यश्रवणकीर्तनाय नमः
--- ॐ जिनका सतत् नाम स्मरण और कीर्तन सुनने से पुण्य की प्राप्ति हैं ऐसे श्री साईंनाथ को नमस्कार

77. ॐ श्री साईं तीर्थाय नमः
--- ॐ जो समस्त तीर्थों के साक्षात् स्वरुप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

78. ॐ श्री साईं वासुदेवाय नमः
--- ॐ जो श्री वासुदेव के स्वरूप हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

79. ॐ श्री साईं सता गतये नमः
--- ॐ जो सज्जनों के गंतव्य हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

80. ॐ श्री साईं सत्परायणाय नमः
--- ॐ जो सत्य के पूर्णतया समर्पित हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

81. ॐ श्री साईं लोकनाथाय नमः
--- ॐ जो समस्त लोकों के प्रभु हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

82. ॐ श्री साईं पावनानधाय नमः
--- ॐ जो पावन पवित्र रूपधारी और दोष रहित हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

83. ॐ श्री साईं अमृतांशवे नमः
--- ॐ जो अमृत के एक अंश हैं उन अमृतमय श्री साईंनाथ को नमस्कार

84. ॐ श्री साईं भास्करप्रभाय नमः
--- ॐ जो दैदीप्यमान सूर्य के समान आभा वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

85. ॐ श्री साईं ब्रहमचर्यतपश्चर्यादिसुव्रताय नमः
--- ॐ जो ब्रहाचर्य, तपश्चर्य और अन्य सुब्रतों में स्थित हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

86. ॐ श्री साईं सत्यधर्मपराणाय नमः
--- ॐ जो सत्य और धर्म का पालन करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

87. ॐ श्री साईं सिद्धेश्वराय नमः
--- ॐ जो सभी सिद्धियों के स्वामी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

88. ॐ श्री साईं सिद्धसंकल्पाय नमः
--- ॐ जिनका संकल्प सदैव सिद्ध होता हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

89. ॐ श्री साईं योगेश्वराय नमः
--- ॐ जो योग के इश्वर हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

90. ॐ श्री साईं भगवते नमः
--- ॐ जो समस्त दैविये गुणों के स्वामी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

91. ॐ श्री साईं भक्तवत्सलाय नमः
--- ॐ जो भक्तों पर वात्सल्य का रस बरसाने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

92. ॐ श्री साईं सत्यपुरुषाय नमः
--- ॐ जो धर्मपरायण, सतपुरुष हैं उन ऐसे श्री साईंनाथ को नमस्कार

93. ॐ श्री साईं पुरुषोत्तमाय नमः
--- ॐ जो पुरषोत्तम अर्थात श्रीराम के अवतार हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

94. ॐ श्री साईं सत्यतत्वबोधकाय नमः
--- ॐ जो सत्य के तत्व का बोध कराने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

95. ॐ श्री साईं कामादिषडूवैरिध्वासिने नमः
--- ॐ जो समस्त सांसारिक इच्छाओं और छः विकारों (काम, क्रोध, मोहो, मद, मत्सर) का नाश करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

96. ॐ श्री साईं अभेदानन्दानुभवरप्रदाय नमः
--- ॐ जो भक्तों लो स्वयं में एकाकार कर उससे उत्पन्न आनन्द का अनुभव प्रदान करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

97. ॐ श्री साईं समसर्वमतसंमताय नमः
--- ॐ जो सभी धर्म समान हैं, ऐसी धारणा रखने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

98. ॐ श्री साईं दक्षिणामूर्तये नमः
--- ॐ जो शिव रुपी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

99. ॐ श्री साईं वेंकटेशरमणाय नमः
--- ॐ जो भगवान विष्णु से प्रेम वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

100. ॐ श्री साईं अदभुतांतचर्याय नमः
--- ॐ जो अदभुत और अनन्त लीलाओं को करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

101. ॐ श्री साईं प्रपन्नार्तीहराय नमः
--- ॐ जो शरण में आये भक्तों के संकट का हरण करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

102. ॐ श्री साईं संसारसर्वदुखक्षरूपय नमः
--- ॐ जो संसार के समस्त दुखों का नाश करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

103. ॐ श्री साईं सर्वत्सिव्रतोपुखाय नमः
--- ॐ जो त्रिकालदर्शी और सर्वव्यापी हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

104. ॐ श्री साईं सर्वांतर्बहिः स्थिताय नमः
--- ॐ जो समस्त जीव और पदार्थों के अंदर और बाहर प्रतेक स्थान में स्थित हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

105. ॐ श्री साईं सर्वमंगलकराय नमः
--- ॐ जो समस्त जग का कल्याण करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

106. ॐ श्री साईं सर्वाभीष्टप्रदाय नमः
--- ॐ जो समस्त प्राणियों की कल्याणकारी इच्छायों को पूरा करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

107. ॐ श्री साईं रामरसतन्मर्गस्थानपनाय नमः
--- ॐ जो विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को एकता और समानता के सूत्र में पिरोकर सन्मार्ग की स्थापना करने वाले हैं उन श्री साईंनाथ को नमस्कार

108. ॐ श्री साईं समर्थसद् गुरुसाईंनाथाय नमः
--- ॐ जो आत्मिक ज्ञान प्रदान करने वाले, पूर्ण सद् गुरु श्री साईंनाथ को नमस्कार




श्री साई सच्चरित्र



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