श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति
शिरडीवासियों के भाग्य की कौन कल्पना कर सकता है कि जिनके द्वार पर परब्रह्म भिक्षुक के रुप में खड़े रहकर पुकार करते थे, "ओ माई । एक रोटी का टुकड़ा मिले" और उसे प्राप्त करने के लिये अपना हाथ फैलाते थे । एक हाथ में वे सदा टमरेल लिये रहते तथा दूसरे में एक 'झोली' कुछ घरों में तो वे प्रतिदिन ही जाते और किसी-किसी के द्वार पर केवल फेरी ही लगाते थे । वे साग, दूध या छाँछ आदि पदार्थ तो टिनपाट में लेते तथा भात व रोटी आदि अन्य सूखी वस्तुएँ झोली में डाल लेते थे । बाबा की जिवाह को कोई स्वाद-रुचि न थी, क्योंकि उन्होंने उसे अपने वश में कर लिया था । इसलिये वे भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वाद की चिन्ता क्यों करते? जो कुछ भी भिक्षा में उन्हें मिल जाता, उसे ही वे मिश्रित कर सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे ।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 8 )