Saturday, November 30, 2013

BOWING MY PRIDE------------------- IN SAI .


BOWING MY PRIDE------------------- IN SAI .

Inspite of Loving Grace & Warm Love you gave
I still couldn"t spread my hands in front of You .

Inspite of right paths you always showed me
I still couldnt understand You .

I know just your holy name SAI
can burn all my difficulties & sorrows
in a moment .

I still couldn"t take your sacred name .

Reading few Scriptures & holy books
I started feeling myself
as a learned devotee of yours .

My Mind is now full of
my Pride & my Ego in me .

Only if I could have bowed down once
at your holy feet
My Ego & My pride
must have have left me by now .

Knowing the truth of Life
today I Feel to surrender myself
completely at your holy feet
Bowing My Pride ---- My Ego .

I pray before you my Sai
if you Forgive me & Bless me with
your Loving Grace
My Devotion in you may
start arising in me .

Sai your name is the only
truth of Life .
I know if I take your sacred name...... SAI
My Pride & My Ego shall
Leave me immediately .

If I finish the identity of
Me , My , I ................. Ego
and Bow down myself completely
surrendering to You my SAINATH .

I know I will be With You .... In You
But SAI this can only be possible .

IF ONLY YOUR LOVING GRACE
IS BLESSED ON ME .........................

.......................................... MY SAI .
Rajiv Dube

shirdi sai baba


Friday, November 29, 2013

om sai ram


APNE CHARNO ME JAGAH DE DO MERE SAI.


APNE CHARNO ME JAGAH DE DO MERE SAI.

When My Mind wanders 
not knowing , where to go
not knowing , near whom to go .

I just remember my ---- SAI 
and get totally lost in him .

So long as my eyes see my Guru Sai
I don"t worry of ........ where I am .

SAI keeps me safe from my enemies and
He protects me from those who
wish me harm .

When I loose my way & forget where to go
SAI comes to show me the way .

I love to return back in safe & loving hands of my
Guru Sai .

When i am hungry
SAI arranges for me the food to eat .

When I am thirsty 
SAI arranges for me the water to drink .

I have now come to the end of my journey
My long awaited reward is now to come .

I pray Guru Sai 

BUS APNE CHARNO ME THODI SI JAGAH
DE DO MERE SAI.

............. APNE CHARNO ME THODI SI JAGAH
........................... DE DO MERE SAI .
Rajiv Dube,

Thursday, November 28, 2013

SHADOWS OF FAKIR

SHADOWS OF FAKIR ..............

His feelings were filled with Oneness . His vision always reflected his Care & concern . He shared his unconditional Love with all .

................ My Fakir always tried to bring Light in the Darkness of everyone"s life . His Humbleness & Selfless Care always showered ............. Whispers of God .

If we feel the Fakir in us , then let us share his Love , his Care , his Oneness , his Humbleness & his Selfless Care .............................. with the needy .
By grace of SAI let us all spread --------------- his Love , Care , Concern and Light of Hope with the needy and broken ones always .
HAPPY SADGURU"S DAY TO ALL SAI DEVOTEES .
WITH A HUMBLE PRAYER TO SAI............ ALWAYS BLESS US .
Rajiv Dube

om sai ram


Friday, November 22, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 39


अध्याय 39 

बाबा का संस्कृत ज्ञान गीता के एक श्लोक की बाबा द्वारा टीका, समाधि मन्दिर का निर्माण ।
इस अध्याय में बाबा ने गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाया है । कुछ लोगों की ऐसी धारणा थी कि बाबा को संस्कृत भाषा का ज्ञान न था और नानासाहेब की भी उनके प्रति ऐसी ही धारणा थी । इसका खंडन हेमाडपंत ने मूल मराठी ग्रंथ के 50वें अध्याय में किया है । दोनों अध्यायों का विषय एक सा होने के कारण वे यहाँ सम्मिलित रुप में लिखे जाते है ।
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प्रस्तावना
शिरडी के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है । श्री द्वारकामाई भी धन्य है, जहाँ श्री साई ने आकर निवास किया और वहीं समाधिस्थ हुए ।
शिरडी के नरनारी भी धन्य है, जिन्हें स्वयं साई ने पधारकर अनुगृहीत किया और जिनके प्रेमवश ही वे दूर से चलकर वहाँ आये । शिरडी तो पहले एक छोटा सा ग्राम था, परन्तु श्री साई के सम्पर्क से विशेष महत्त्व पाकर वह एक तीर्थ-क्षेत्र में परिणत हो गया ।
शिरडी की नारियां भी परम भाग्यशालिनी है, जिनका उनपर असीम और अडिग विश्वास प्रशंसा के परे है । आठों पहर-स्नान करते, पीसते, अनाज निकालते, गृहकार्य करते हुये वे उनकी कीर्ति का गुणगान किया करती थी । उनके प्रेम की उपमा ही क्या हो सकती है । वे अत्यन्त मधुर गायन करती थी, जिससे गायकों और श्रोतागण के मन को परम शांति मिलती थी ।

बाबा द्वारा टीका
किसी को स्वप्न में भी ज्ञात न था कि बाबा संस्कृत के भी ज्ञाता है । एक दिन नानासाहेब चाँदोरकर को गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाकर उन्होंने लोगों को विस्मय में डाल दिया । इसका संक्षिप्त वर्णन सेवानिवृत्त मामलतदार श्री. बी व्ही. देव ने मराठी साईलीला पत्रिका के भाग 4, (स्फुट विषय पृष्ठ 563) में छपवाया है । इसका संक्षिप्त विवरण Sai Baba’s Charters and Sayings पुस्तक के 61वें पृष्ठ पर और The Wonderous Saint Sai Baba के पृष्ठ 36 पर भी छपा है । ये दोनों पुस्तकें श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी द्वारा रचित है । श्री. बी. व्ही. देव ने अंग्रेजी में तारीख 27-9-1936 को एक वत्तक्व्य दिया है, जो कि नरसिंह स्वामी द्वारा रचित पुस्तक के "भक्तों के अनुभव, भाग 3" में छापा गया है । श्री. देव को इस विषय की प्रथम सूचना नानासाहेब चाँदोरकर से प्राप्त हुई थी । इसलिए उनका कथन नीचे उद्धृत किया जाता है । नानासाहेब चाँदोरकर वेदान्त के विद्वान विद्यार्थियों में से एक थे । उन्होंने अनेक टीकाओं के साथ गीता का अध्ययन भी किया था तथा उन्हें अपने इस ज्ञान का अहंकार भी था । उनका मत था कि बाबा संस्कृत भाषा से सर्वथा अनभिज्ञ है । इसीलिये बाबा ने उनके इस भ्रम का निवारण करने का विचार किया । यह उस समय की बात है, जब भक्तगण अल्प संख्या में आते थे । बाबा भक्तों से एकान्त में देर तक वार्तालाप किया करते थे । नानासाहेब इस समय बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे और अस्पष्ट शब्दों में कुछ गुनगुना रहे थे ।
बाबा – नाना, तुम धीरे-धीरे क्या कह रहे हो?
नाना – मैं गीता के एक श्लोक का पाठ कर रहा हूँ ।
बाबा – कौन सा श्लोक है वह?
नाना – यह भगवदगीता का एक श्लोक है ।
बाबा – जरा उसे उच्च स्वर में कहो ।
तब नाना भगवदगीता के चौथे अध्याय का 34वाँ श्लोक कहने लगे ः-
“तद्घिद्घि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।“
बाबा – नाना, क्या तुम्हें इसका अर्थ विदित है ?
नाना – जी, महाराज ।
बाबा – यदि विदित है तो मुझे भी सुनाओ ।
नाना – इसका अर्थ है – तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दंडवत् कर, सेवा और निष्कपट भाव से किये गये प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान । वे ज्ञानी, जिन्हें सदवस्तु (ब्रह्म) की प्राप्ति हो चुकी है, तुझे ज्ञान का उपदेश देंगें ।
बाबा – नाना, मैं इस प्रकार का संकुल भावार्थ नहीं चाहता । मुझे तो प्रत्येक शब्द और उसका भाषांतरित उच्चारण करते हुए व्याकरणसम्मत अर्थ समझाओ ।
अब नाना एक-एक शब्द का अर्थ समझाने लगे ।
बाबा – नाना, क्या केवल साष्टांग नमस्कार करना ही पर्याप्त है?
नाना – नमस्कार करने के अतिरिक्त मैं "प्रणिपात" का कोई दूसरा अर्थ नहीं जानता ।
बाबा – 'परिप्रश्न' का क्या अर्थ है?
नाना – प्रश्न पूछना ।
बाबा – 'प्रश्न' का क्या अर्थ है ?
नाना – वही (प्रश्न पूछना) ।
बाबा – यदि 'परिप्रश्न' और 'प्रश्न' दोनों का अर्थ एक ही है, तो फिर व्यास ने 'परि' उपसर्ग का प्रयोग क्यों किया? क्या व्यास की बुद्घि भ्रष्ट हो गई थी?
नाना – मुझे तो 'परिप्रश्न' का अन्य अर्थ विदित नहीं है ।
बाबा – 'सेवा?' यहाँ किस प्रकार की सेवा से आशय है ?
नाना – वही जो हम लोग सदा आपकी करते रहते है ।
बाबा – क्या यह 'सेवा' पर्याप्त है?
नाना – और इससे अधिक 'सेवा' का कोई विशिष्ट अर्थ मुझे ज्ञात नही है ।
बाबा – दूसरी पंक्ति के "उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं" में क्या तुम ज्ञान शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग कर इसका अर्थ कह सकते हो?
नाना – जी हाँ ।
बाबा – कौन सा शब्द?
नाना – अज्ञानम् ।
बाबा – 'ज्ञानं' के बजाय उस शब्द को जोड़कर क्या इस श्लोक का अर्थ निकलता है?
नाना - जी नहीं, शांकर भाष्य में इस प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है ।
बाबा – नहीं है, तो क्या हुआ? यदि 'अज्ञान' शब्द के प्रयोग से कोई उत्तम अर्थ निकल सकता है तो उसमें क्या आपत्ति है?
नाना – मैं नहीं जानता कि उसमें "अज्ञान" शब्द का किस प्रकार प्रयोग होगा ।
बाबा – कृष्ण ने अर्जुन को क्यों ज्ञानियों या तत्वदर्शियों को नमस्कार करने, उनसे प्रश्न पूछने और सेवा करने का उपदेश किया था ? क्या स्वयं कृष्ण तत्वदर्शी नहीं थे? वस्तुतः स्वयं ज्ञान स्वरुप?
नाना – जी हाँ, वे ज्ञानावतार थे । परन्तु मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने अर्जुन से अन्य ज्ञानियों के लिये क्यों कहा ?
बाबा – क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया?
अब नाना हतभ्रत हो गये । उनका घमण्ड चूर हो चुका था । तब बाबा स्वयं इस प्रकार अर्थ समझाने लगे ।
(1 ) ज्ञानियों को केवल साष्टांग नमस्कार करना पर्याप्त नहीं है । हमें सदगुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना चाहिये ।
(2 ) केवल प्रश्न पूछना पर्याप्त नहीं । किसी कुप्रवृत्ति या पाखंड, या वाक्य-जाल में फँसाने, या कोई त्रुटि निकालने की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न नहीं करना चाहिये, वरन् प्रश्न उत्सुतकापूर्वक केवल मोक्ष या आध्यात्मिक पथ पर उन्नति प्राप्त करने की भावना से ही प्रेरित होकर करना चाहिये ।
(3) मैं तो सेवा करने या अस्वीकार करने में पूर्ण स्वतंत्र हूँ, जो ऐसी भावना से कार्य करता है, वह सेवा नहीं कही जा सकती । उसे अनुभव करना चाहिये कि मुझे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं है । इस शरीर पर तो गुरु का ही अधिकार है और केवल उनकी सेवा के निमित्त ही वह विद्यमान है ।
इस प्रकार आचरण करने से तुम्हें सदगुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया गया है ।
नाना को यह समझ में नहीं आ सका कि गुरु किस प्रकार 'अज्ञान' की शिक्षा देते है ।
बाबा – ज्ञान का उपदेश कैसा है ? अर्थात् भविष्य में प्राप्त होने वाली आत्मानुभूति की शिक्षा । अज्ञान का नाश करना ज्ञान है । (गीता के श्लोक 18-66 पर ज्ञानेश्वरी भाष्य की ओवी 1396 में इस प्रकार वर्णन है – हे अर्जुन ! यदि तुम्हारी निद्रा और स्वप्न भंग हो, तब तुम स्वयं हो । वह इसी प्रकार है । गीता के अध्याय 5-16 के आगे टीका में लिखा है – क्या ज्ञान में अज्ञान नष्ट करने के अतिरिक्त कोई और भेद भी है ?) अंधकार नष्ट करने का अर्थ प्रकाश है । जब हम द्वैत नष्ट करने की चर्चा करते है, तो हम अद्घैत की बात करते है । जब हम अंधकार नष्ट करने की बात करते है तो उसका अर्थ है कि प्रकाश की बात करते है । यदि हम अद्वैत की स्थिति का अनुभव करना चाहते है तो हमें द्वैत की भावना नष्ट करनी चाहिये। यही अद्वैत स्थिति प्राप्त होने का लक्षण है । द्वैत में रहकर अद्वैत की चर्चा कौन कर सकता है? जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, तब तक क्या उसका कोई अनुभव कर सकता है ?

शिष्य श्री सदगुरु के समान ही ज्ञान की मूर्ति है? उन दोनों में केवल अवस्था, उच्च अनुभूति, अदभुत अलौकिक सत्य, अद्वितीय योग्यता और ऐश्वर्य योग में भिन्नता होती है । सदगुरु निर्गुण निराकार सच्चिदानंद है । वस्तुतः वे केवल मनुष्य जाति और विश्व के कल्याण के निमित्त स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण करते है, परन्तु नर-देह धारण करने पर भी उनकी सत्ता की अनंतता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । उनकी आत्मोपलब्धि, लाभ, दैविक शक्ति और ज्ञान एक-से रहते है । शिष्य का भी तो यथार्थ में वही स्वरुप है, परन्तु अनगिनत जन्मों के कारण उसे अज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी के वशीभूत होकर उसे भ्रम हो जाता है तथा अपने शुदृ चैतन्य स्वरुप की विस्मृति हो जाती है । 
गीता का अध्याय 5 देखो । 
"अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहृन्ति जन्तवः ।" 
जैसा कि वहाँ बतलाया गया है, उसे भ्रम हो जाता है कि "मैं" जीव हूँ, एक प्राणी हूँ, दुर्बल और असहाय हूँ । गुरु इस अज्ञानरुपी जड़ को काटकर फेंक देता है और इसीलिये उसे उपदेश करना पड़ता है । ऐसे शिष्य को जो जन्म-जन्मांतरों से यह धारणा करता आया है कि, "मैं तो जीव, दुर्बल और असहाय हूँ," गुरु सैकड़ों जन्मों तक ऐसी शिक्षा देते है कि तुम ही ईश्वर हो, सर्वशक्तिमान् और समर्थ हो, तब कहीं जाकर उसे किंचित मात्र भास होता है कि यथार्थ में "मैं ही ईश्वर हूँ ।" सतत भ्रम में रहने के कारण ही उसे ऐसा भास होता है कि, "मैं शरीर हूँ, एक जीव हूँ, तथा ईश्वर और यह विश्व मुझ से एक भिन्न वस्तु है ।" यह तो केवल एक भ्रम मात्र है, जो अनेक जन्म धारण करने के कारण उत्पन्न हो गया है । कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को सुखःदुख की प्राप्ति होती है । इस भ्रम, इस त्रुटि और इस अज्ञान की जड़ को नष्ट करने के लिये हमें स्वयं अपने से प्रश्न करना चाहिये कि यह अज्ञान कैसे पैदा हो गया ? वह अज्ञान कहाँ है ? और इस त्रुटि का दिग्दर्शन कराने को ही उपदेश कहते है ।
अज्ञान के नीचे लिखे उदाहरण है –
(1 ) मैं एक जीव (प्राणी) हूँ ।
(2 ) शरीर ही आत्मा है । (मैं शरीर हूँ)
(3 ) ईश्वर, विश्व और जीव भिन्न-भिन्न तत्व है ।
(4 ) मैं ईश्वर नहीं हूँ ।
(5) शरीर आत्मा नहीं है, इसका बोध न होना ।
(6 ) इसका ज्ञान न होना कि ईश्वर, विश्व और जीव सब एक ही है ।

जब तक इन त्रुटियों का उसे दिग्दर्शन नहीं कराया जाता, तब तक शिष्य को यह कभी अनुभव नहीं हो सकता कि ईश्वर, जीव और शरीर क्या है; उनमें क्या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तथा वे परस्पर भिन्न है या अभिन्न है अथवा एक ही है? इस प्रकार की शिक्षा देना और भ्रम को दूर करना ही 'अज्ञान' का ज्ञानोपदेश कहलाता है । अब प्रश्न यह है कि जीव जो स्वयं ज्ञान-मूर्ति है, उसे ज्ञान की क्या आवश्यकता है? उपदेश का हेतु तो केवल त्रुटि को उसकी दृष्टि में लाकर अज्ञान को नष्ट करना है । बाबा ने आगे कहा –
(1 ) 'प्रणिपात' का अर्थ है 'शरणागति' ।
(2 ) शरणागत होना चाहिये तन, मन, धन से (अर्थात् अनन्य भाव से) ।
(3 ) कृष्ण अन्य ज्ञानियों को ओर क्यों संकेत करते है? सदभक्त के लिये तो प्रत्येक तत्व वासुदेव है । (भगवदगीता अ. 7-19 अर्थात् कोई भी गुरु अपने भक्त के लिये कृष्ण है) और गुरु शिष्य को वासुदेव मानता है और कृष्ण इन दोनों को अपने प्राण और आत्मा ।
(भगवदगीता अ. 7-18 पर ज्ञानदेव की टीका) चूँकि श्रीकृष्ण को विदित था कि ऐसे अनेक भक्त और गुरु विद्यमान है, इसलिये उनका महत्व बढ़ाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा उल्लेख किया ।

समाधि-मन्दिर का निर्माण
बाबा जो कुछ करना चाहते थे, उसकी चर्चा वे कभी नहीं करते थे, प्रत्युत् आसपास ऐसा वातावरण और परिस्थिति निर्माण कर देते थे कि लोगों को बाद में उनका निश्चित परिणाम देखकर बड़ा अचम्भा होता था । समाधि-मन्दिर इस विषय का उदाहरण है । नागपुर के प्रसिद्घ लक्षाधिपति श्रीमान् बापूसाहेब बूटी सकुटुम्ब शिरडी में रहते थे । एक बार उन्हें विचार आया कि शिरडी में स्वयं का एक वाड़ा होना चाहिए । कुछ समय के पश्चात जब वे दीक्षित वाड़े में निद्रा ले रहे थे तो उन्हें एक स्वप्न हुआ । बाबा ने स्वप्न में आकर उनसे कहा कि, 
"तुम अपना एक वाड़ा और एक मन्दिर बनवाओ ।" 
शामा भी वहीं शयन कर रहा था और उसने भी ठीक वैसा ही स्वप्न देखा । बापूसाहेब जब उठे तो उन्होंने शामा को रुदन करते देखकर उससे रोने का कारण पूछा । तब शामा कहने लगा –
"अभी-अभी मुझे एक स्वप्न आया था कि बाबा मेरे बिलकुल समीप आये और स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि, 
"मन्दिर के साथ वाड़ा बनवाओ
मैं समस्त भक्तों की इच्छाएँ पूर्ण करुँगा ।" 
बाबा के मधुर और प्रेमपूर्ण शब्द सुनकर मेरा प्रेम उमड़ पड़ा तथा गला रुँध गया और मेरी आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी । इसलिये मैं जोर से रोने लगा ।" बापूसाहेब बूटी को आश्चर्य हुआ कि दोनों के स्वप्न एक से ही है । धनाढ्य तो वे थे ही, उन्होंने वाड़ा निर्माण करने का निश्चय कर लिया और शामा के साथ बैठकर एक नक्शा खींचा । काकासाहेब दीक्षित ने भी उसे स्वीकृत किया और जब नक्शा बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने भी तुरंत स्वीकृति दे दी । तब निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिया गया और शामा की देखरेख में नीचे मंजिल, तहखाना और कुआँ बनकर तैयार हो गया । बाबा भी लेंडी को आते-जाते समय परामर्श दे दिया करते थे । आगे यह कार्य बापूसाहेब जोग को सौंप दिया गया । जब कार्य इसी तरह चल ही रहा था, उसी समय बापूसाहेब जोग को एक विचार आया कि कुछ खुला स्थान भी अवश्य होना चाहिये, जिसके बीचोंबीच 'मुरलीधर' की मूर्ति की भी स्थापना की जाय । उन्होंने अपना विचार शामा को प्रकट किया तथा बाबा से अनुमति प्राप्त करने को कहा । जब बाबा वाड़े के पास से जा रहे थे, तभी शामा ने बाबा से प्रश्न कर दिया । शामा का प्रश्न सुनकर बाबा ने स्वीकृति देते हुए कहा कि, 
"जब मन्दिर का कार्य पूर्ण हो जायगा, 
तब मैं स्वयं वहाँ निवास करुँगा," 
और वाड़े की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा, 
"जब वाड़ा सम्पूर्ण बन जायगा, 
तब हम सब लोग उसका उपभोग करेंगे ।
 वहीं रहेंगे, घूमेंगे, फिरेंगे और एक दूसरे को हृदय से लगायेंगे तथा आनन्दपूर्वक विचरेंगे ।" 
जब शामा ने बाबा से पूछा कि क्या यह मूर्ति के मध्य कक्ष की नींव के कार्य आरम्भ का शुभ मुहूर्त्त है? तब उन्होंने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया । तभी शामा ने एक नारियल लाकर फोड़ा और कार्य प्रारम्भ कर दिया । ठीक समय में सब कार्य पूर्ण हो गया और 'मुरलीधर' की एक सुंदर मूर्ति बनवाने का प्रबंध किया गया। अभी उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ भी न हो पाया था कि एक नवीन घटना घटित हो गई । बाबा की स्थिति चिंताजक हो गई और ऐसा दिखने लगा कि वे अब देह त्याग देंगे । बापूसाहेब बहुत उदास और निराश से हो गये । उन्होंने सोचा कि यदि बाबा चले गये तो बाड़ा उनके पवित्र चरण-स्पर्श से वंचित रह जायगा और मेरा सब (लगभग एक लाख) रुपया व्यर्थ ही जायेगा, परन्तु अंतिम समय बाबा के श्री मुख से निकले हुए वचनों ने 
("मुझे बाड़े में ही रखना") 
केवल बूटीसाहेब को ही सान्त्वना नहीं पहुँचाई, वरन् अन्य लोगों को भी शांति प्रदान की । कुछ समय के पश्चात् बाबा का पवित्र शरीर मुरलीधर की मूर्ति के स्थान पर रख दिया गया । बाबा स्वयं 'मुरलीधर' बन गये और वाड़ा 'साईबाबा का समाधि मंदिर' ।
उनकी अगाध लीलाओं की थाह कोई न पा सका । श्री. बापूसाहेब बूटी धन्य है, जिनके वाड़े में बाबा का दिव्य और पवित्र पार्थिव शरीर अब विश्राम कर रहा है ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 38


अध्याय 38 

बाबा की हांडी, नानासाहेब द्वारा देव-मूर्ति की उपेक्षा, नैवेद्य वितरण, छाँछ का प्रसाद ।
गत अध्याय में चावड़ी के समारोह का वर्णन किया गया है । अब इस अध्याय में बाबा की हांडी तथा कुछ अन्य विषयों का वर्णन होगा ।
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प्रस्तावना
हे सदगुरु साई ! तुम धन्य हो ! हम तुम्हें नमन करते है । तुमने विश्व को सुख पहुँचाया और भक्तों का कल्याण किया । तुम उदार हृदय हो । जो भक्तगण तुम्हारे अभय चरण-कमलों में अपने को समर्पित कर देते है, तुम उनकी सदैव रक्षा एवं उद्घार किया करते हो । भक्तों के कल्याण और परित्राण के निमित्त ही तुम अवतार लेते हो । ब्रह्म के साँचे में शुद्घ आत्मारुपी द्रव्य ढाला गया और उसमें से ढलकर जो मूर्ति निकली, वही सन्तों के सन्त श्री साईबाबा है । साई स्वयं ही "आत्माराम" और "चिरआनन्द" धाम है । इस जीवन के समस्त कार्यों को नश्वर जानकर उन्होंने भक्तों को निष्काम और मुक्त किया ।

बाबा की हांडी
मानव धर्म-शास्त्र में भिन्न-भिन्न युगों के लिये भिन्न-भिन्न साधनाओं का उल्लेख किया गया है । सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में दान का विशेष माहात्म्य है । सर्व प्रकार के दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । जब मध्याहृ के समय हमें भोजन प्राप्त नहीं होता, तब हम विचलित हो जाते है । ऐसी ही स्थिति अन्य प्राणियों की अनुभव कर जो किसी भिक्षुक या भूखे को भोजन देता है, वही श्रेष्ठ दानी है । तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है कि "अन्न ही ब्रह्म है और उसी से सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा उससे ही वे जीवित रहते है और मृत्यु के उपरांत उसी में लय भी हो जाते है ।" जब कोई अतिथि दोपहर के समय अपने घर आता है तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम उसका अभिन्नदन कर उसे भोजन करावे । अन्य दान जैसे-धन, भूमि और वस्त्र इत्यादि देने में तो पात्रता का विचार करना पड़ता है, परन्तु अन्न के लिये विशेष सोचविचार की आवश्यकता नहीं है । दोपहर के समय कोई भी अपने द्वार पर आए, उसे शीघ्र भोजन कराना हमारा परम कर्त्व्य है । प्रथमतः लूले, लंगड़े, अन्धे या रुग्ण भिखारियों को, फिर उन्हें, जो हाथ पैर से स्वस्थ है और उन सभी के बाद अपने संबन्धियों को भोजन कराना चाहिये । अन्य सभी की अपेक्षा पंगुओं को भोजन कराने का मह्त्व अधिक है । अन्नदान के बिना अन्य सब प्रकार के दान वैसे ही अपूर्ण है, जैसे कि चन्द्रमा बिना तारे, पदक बिना हार, कलश बिना मन्दिर, कमलरहित तलाब, भक्तिरहित, भजन, सिन्दूररहित सुहागिन, मधुर स्वरविहीन गायन, नमक बिना पकवान । जिस प्रकार अन्य भोज्य पदार्थों में दाल उत्तम समझी जाती है, उसी प्रकार समस्त दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है । अब देखें कि बाबा किस प्रकार भोजन तैयार कराकर उसका वितरण किया करते थे ।
हम पहले ही उल्लेख कर चुके है कि बाबा अल्पाहारी थे और वे थोड़ा बहुत जो कुछ भी खाते थे, वह उन्हें केवल दो गृहों से ही भिक्षा में उपलब्ध हो जाया करता था । परन्तु जब उनके मन में सभी भक्तों को भोजन कराने की इच्छा होती तो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक संपूर्ण व्यवस्था वे स्वयं किया करते थे । वे किसी पर निर्भर नहीं रहते थे और न ही किसी को इस संबंध में कष्ट ही दिया करते थे । प्रथमतः वे स्वयं बाजार जाकर सब वस्तुएं – अनाज, आटा, नमक, मिर्ची, जीरा खोपरा और अन्य मसाले आदि वस्तुएँ नगद दाम देकर खरीद लाया करते थे । यहाँ तक कि पीसने का कार्य भी वे स्वयं ही किया करते थे । मस्जिद के आँगन में ही एक भट्टी बनाकर उसमें अग्नि प्रज्वलित करके हांडी के ठीक नाप से पानी भर देते थे । हांडी दो प्रकार की थी – एक छोटी और दूसरी बड़ी । एक में सौ और दूसरी में पाँच सौ व्यक्तियों का भोजन तैयार हो सकता था । कभी वे मीठे चावल बनाते और कभी मांसमिश्रित चावल (पुलाव) बनाते थे । कभी-कभी दाल और मुटकुले भी बना लेते थे । पत्थर की सिल पर महीन मसाला पीस कर हांडी में डाल देते थे । भोजन रुचिकर बने, इसका वे भरसक प्रयत्न किया करते थे । ज्वार के आटे को पानी में उबाल कर उसमें छाँछ मिलाकर अंबिल (आमर्टी) बनाते और भोजन के साथ सब भक्तों को समान मात्रा में बाँट देते थे । भोजन ठीक बन रहा है या नहीं, यह जानने के लिये वे अपनी कफनी की बाँहें ऊपर चढ़ाकर निर्भय हो उबलती हांडी में हाथ डाल देते और उसे चारों ओर घुमाया करते थे । ऐसा करने पर भी उनके हाथ पर न कोई जलन का चिन्ह और न चेहरे पर ही कोई व्यथा की रेखा प्रतीत हुआ करती थी । जब पूर्ण भोजन तैयार हो जाता, तब वे मस्जिद से बर्तन मँगाकर मौलवी से फातिहा पढ़ने को कहते थे, फिर वे म्हालसापति तथा तात्या पाटील के प्रसाद का भाग पृथक् रखकर शेष भोजन गरीब और अनाथ लोगों को खिलाकर उन्हें तृप्त करते थे । सचमुच वे लोग धन्य थे । कितने भाग्यशाली थे वे, जिन्हें बाबा के हाथ का बना और परोसा हुआ भोजन खाने को प्राप्त हुआ ।
यहाँ कोई यह शंका कर सकता है कि क्या वे शाकाहारी और मांसाहारी भोज्य पदार्थों का प्रसाद सभी को बाँटा करते थे ? इसका उत्तर बिलकुल सीधा और सरल है । जो लोग मांसाहारी थे, उन्हें हांडी में से दिया जाता था तथा शाकाहारियों को उसका स्पर्श तक न होने देते थे । न कभी उन्होंने किसी को मांसाहार का प्रोत्साहन ही दिया और न ही उनकी आंतरिक इच्छा थी कि किसी को इसके सेवन की आदत लग जाये । यह एक अति पुरातन अनुभूत नियम है कि जब गुरुदेव प्रसाद वितरण कर रहे हो, तभी यदि शिष्य उसके ग्रहण करने में शंकित हो जाय तो उसका अधःपतन हो जाता है । यह अनुभव करने के लिये कि शिष्यगण इस नियम का किस अंश तक पालन करते है, वे कभी-कभी परीक्षा भी ले लिया करते थे । उदाहरणार्थ एक एकादशी के दिन उन्होंने दादा केलकर को कुछ रुपये देकर कुछ मांस खरीद लाने को कहा । दादा केलकर पूरे कर्मकांडी थे और प्रायः सभी नियमों का जीवन में पालन किया करते थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि द्रव्य, अन्न और वस्त्र इत्यादि गुरु को भेंट करना पर्याप्त नहीं है । केवल उनकी आज्ञा ही शीघ्र कार्यान्वित करने से वे प्रसन्न हो जाते है । यही उनकी दक्षिणा है । दादा शीघ्र कपडे पहिन कर एक थैला लेकर बाजार जाने के लिये उद्यत हो गये । तब बाबा ने उन्हें लौटा दिया और कहा कि तुम न जाओ, अन्य किसी को भेज दो । दादा ने अपने नौकर पाण्डू को इस कार्य के निमित्त भेजा । उसको जाते देखकर बाबा ने उसे भी वापस बुलाने को कहकर यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया ।
ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्होंने दादा से कहा कि देखो तो नमकीन पुलाव कैसा पका है ? दादा ने यों ही मुंह देखी कह दिया कि अच्छा है । तब वे कहने लगे कि तुमने न अपनी आँखों से ही देखा है और न जिहा से स्वाद लिया, फिर तुमने यह कैसे कह दिया कि उत्तम बना है ? थोड़ा ढक्कन हटाकर तो देखो । बाबा ने दादा की बाँह पकड़ी और बलपूर्वक बर्तन में डालकर बोले – थोड़ासा इसमें से निकालो और अपना कट्टरपन छोड़कर चख कर देखो । जब माँ का सच्चा प्रेम बच्चे पर उमड़ आता है, तब माँ उसे चिकोटी भरती है, परन्तु उसका चिल्लाना या रोना देखकर वह उसे अपने हृदय से लगाती है । इसी प्रकार बाबा ने सात्विक मातृप्रेम के वश हो दादा का इस प्रकार हाथ पकड़ा । यथार्थ में कोई भी सन्त या गुरु कभी भी अपने कर्मकांडी शिष्य को वर्जित भोज्य के लिये आग्रह करके अपनी अपकीर्ति कराना पसन्द न करेगा ।
इस प्रकार यह हांडी का कार्यक्रम सन् 1910 तक चला और फिर स्थगित हो गया । जैसा पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, दासगणू ने अपने कीर्तन द्वारा समस्त बम्बई प्रांत में बाबा की अधिक कीर्ति फैलाई । फलतः इस प्रान्त से लोगों के झुंड के झुंड शिरडी को आने लगे और थोड़े ही दिनों में शिरडी पवित्र तीर्थ-क्षेत्र बन गया । भक्तगण बाबा को नैवेद्य अर्पित करने के लिये नाना प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ लाते थे, जो इतनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाता था कि फकीरों और भिखारियों को सन्तोषपूर्वक भोजन कराने पर भी बच जाता था । नैवेद्य वितरण करने की विधि का वर्णन करने से पूर्व हम नानासाहेब चाँदोरकर की उस कथा का वर्णन करेंगे, जो स्थानीय देवी-देवताओं और मूर्तियों के प्रति बाबा की सम्मान-भावना की द्योतक है ।

नानासाहेब द्वारा देव-मूर्ति की उपेक्षा
कुछ व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार बाबा को ब्राह्मण तथा कुछ उन्हें यवन समझा करते थे, परन्तु वास्तव में उनकी कोई जाति न थी । उनकी और ईश्वर की केवल एक जाति थी । कोई भी निश्चयपूर्वक यह नहीं जानता कि वे किस कुल में जन्में और उनके माता-पिता कौन थे । फिर उन्हें हिन्दू या यवन कैसे घोषित किया जा सकता है । यदि वे यवन होते तो मसजिद में सदैव धूनी और तुलसी वृन्दावन ही क्यों लागते और शंख, घण्टे तथा अन्य संगीत वाद्य क्यों बजने देते । हिन्दुओं की विविध प्रकार की पूजाओं को क्यों स्वीकार करते । यदि सचमुच यवन होते तो उनके कान क्यों छिदे होते तथा वे हिन्दू मन्दिरों का स्वयं जीर्णोद्घार क्यों करवाते । उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तियों तथा देवी-देवताओ की जरा सी उपेक्षा भी कभी सहन नहीं की ।
एक बार नानासाहेब चाँदोरकर अपने साढू (साली के पति) श्री बिनीवले के साथ शिरडी आये । जब वे मसजिद में पहुँचे, बाबा वार्तालाप करते हुए अनायास ही क्रोधित होकर कहने लगे कि, "तुम दीर्घकाल से मेरे सानिध्य में हो, फिर भी ऐसा आचरण क्यों करते हो ?" नानासाहेब प्रथमतः इन शब्दों का कुछ भी अर्थ न समझ सके । अतः उन्होंने अपना अपराध समझाने की प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि, "तुम कब कोपरगाँव आये और फिर वहाँ से कैसे शिरडी आ पहुँचे ?" तब नानासाहेब को अपनी भूल तुरन्त ही ज्ञात हो गयी । उनका यह नियम था कि शिरडी आने से पूर्व वे कोपरगाँव में गोदावरी के तट पर स्थित श्री दत्त का पूजन किया करते थे । परन्तु रिश्तेदार के दत-उपासक होने पर भी इस बार विलम्ब होने के भय से उन्होंने उनको भी दत्त मंदिर में जाने से हतोत्साहित किया और वे दोनों सीधे शिरडी चले आये थे । अपना दोष स्वीकार कर उन्होंने कहा कि "गोदावरी स्नान करते समय पैर में एक बड़ा काँटा चुभ जाने के कारण अधिक कष्ट हो गया था ।" बाबा ने कहा कि "यह तो बहुत छोटासा दंड था" और उन्हें भविष्य में ऐसे आचरण के लिये सदैव सावधान रहने की चेतावनी दी ।

नैवेद्य -वितरण
अब हम नैवेद्य -वितरण का वर्णन करेंगे । आरती समाप्त होने पर बाबा से आर्शीवाद तथा उदी प्राप्त कर जब भक्तगण अपने-अपने घर चले जाते, तब बाबा परदे के पीछे प्रवेश कर निम्बर के सहारे पीठ टेककर भोजन के लिये आसन ग्रहण करते थे । भक्तों की दो पंक्तियाँ उनके समीप बैठा करती थी । भक्तगण नाना प्रकार के नैवेद्य, पूरी, माण्डे, पेड़ा बर्फी, बांसुदीउपमा (सांजा) अम्बे मोहर (भात) इत्यादि थाली में सजा-सजाकर लाते और जब तक वे नैवेद्य स्वीकार न कर लेते, तब तक भक्तगण बाहर ही प्रतीक्षा किया करते थे । समस्त नैवेद्य एकत्रित कर दिया जाता, तब वे स्वयं ही भगवान को नैवेद्य अर्पण कर स्वयं ग्रहण करते थे । उसमें से कुछ भाग बाहर प्रतीक्षा करने वालों को देकर शेष भीतर बैठे हुए भक्त पा लिया करते थे । जब बाबा सबके मध्य में आ विराजते, तब दोनों पंक्तियों में बैठे हुए भक्त तृप्त होकर भोजन किया करते थे । बाबा प्रायः शामा और निमोणकर से भक्तों को अच्छी तरह भोजन कराने और प्रत्येक की आवश्यकता का सावधानीपूर्वक ध्यान रखने को कहते थे । वे दोनों भी इस कार्य को बड़ी लगन और हर्ष से करते थे । इस प्रकार प्राप्त प्रत्येक ग्रास भक्तों को पोषक और सन्तोषदायक होता था । कितना मधुर, पवित्र, प्रेमरसपूर्ण भोजन था वह? सदा मांगलिक और पवित्र ।

छाँछ (मठ्ठा) का प्रसाद
इस सत्संग में बैठकर एक दिन जब हेमाडपंत पूर्णतः भोजन कर चुके, तब बाबा ने उन्हें एक प्याला छाँछ पीने को दिया । उसके श्वेत रंग से वे प्रसन्न तो हुए, परन्तु उदर में जरा भी गुंजाइश न होने के कारण उन्होंने केवल एक घूँट ही पिया । उनका यह उपेक्षात्मक व्यवहार देखकर बाबा ने कहा कि, "सब पी जाओ । ऐसा सुअवसर अब कभी न पाओगे ।" तब उन्होंने पूरी छाँछ पी ली, किन्तु उन्हे बाबा के सांकेतिक वचनों का मर्म शीघ्र ही विदित हो गया, क्योंकि इस घटना के थोड़े दिनों के पश्चात् ही बाबा समाधिस्थ हो गये ।
पाठकों ! अब हमें अवश्य ही हेमाडपंत के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये, क्योंकि उन्होंने तो छाँछ का प्याला पिया, परन्तु वे हमारे लिये यथेष्ठ मात्रा में श्री साई-लीला रुपी अमृत दे गये । आओ, हम उस अमृत के प्याले पीकर संतुष्ट और सुखी हो जाये ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।



om sai ram


Monday, November 11, 2013

भैरवी कवच!!


भैरवी कवच!!
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भैरवी कवचस्यास्य सदाशिव ऋषि: स्मृत:!
छंदोSनुष्टुब देवता च भैरवी भयनाशिनी!!
धर्मार्थ काम मोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तित: !!
हसरैं मे शिर: पातु भैरवी भयनाशिनी!
हसकलरीं नेत्रंच हसरौश्च ललाटकम् !!
कुमारी सर्व्वगात्रे च वाराही उत्तरे तथा !
पूर्व्वे च वैष्णवी देवी इंद्राणी मम दक्षिणे!
दिग्विदिक्ष सर्व्वेत्रैवभैरवी सर्व्वेदावतु!!
इदं कवचमज्ञात्वा यो सिद्धिद्देवी भैरवीम!
कल्पकोटिशतेनापि सिद्धिस्तस्य न जायते !!
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मंत्र संग्रह (Mantra in Hindi)

om sai ram


Thursday, November 7, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 37


अध्याय 37 
 चावड़ी का समारोह

इस अध्याय में हम कुछ वेदान्तिक विषयों पर प्रारम्भिक दृष्टि से समालोचना कर चावड़ी के भव्य समारोह का वर्णन करेंगे ।
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प्रारम्भ
धन्य है श्रीसाई, जिनका जैसा जीवन था, वैसी ही अवर्णनीय लीला विलास, और अदभुत क्रियाओं से पूर्ण नित्य के कार्यक्रम भी । कभी तो वे समस्त सांसारिक कार्यों से अलिप्त रहकर कर्मकाण्डी से प्रतीत होते और कभी ब्रह्मानंद और कभी आत्मज्ञान में निमग्न रहा करते थे । कभी वे अनेक कार्य करते हुए भी उनसे असंबन्ध रहते थे । यद्यपि कभी-कभी वे पूर्ण निष्क्रिय प्रतीत होते, तथापि वे आलसी नहीं थे । प्रशान्त महासागर की तरह सदैव जागरुक रहकर भी वे गंभीर, प्रशान्त और स्थिर दिखाई देते थे । उनकी प्रकृति का वर्णन तो सामर्थ्य से परे है ।
यह तो सर्व विदित है कि वे बालब्रह्मचारी थे । वे सदैव पुरुषों को भ्राता तथा स्त्रियों को माता या बहिन सदृश ही समझा करते थे । उनकी संगति द्वारा हमें जिस अनुपम ज्ञान की उपलब्धि हुई है, उसकी विस्मृति मृत्युपर्यन्त न होने पाये, ऐसी उनके श्रीचरणों में हमारी विनम्र प्रार्थना है । हम समस्त भूतों में ईश्वर का ही दर्शन करें और नामस्मरण की रसानुभूति करते हुए हम उनके मोहविनाशक चरणों की अनन्य भाव से सेवा करते रहे, यही हमारी आकांक्षा है ।
हेमाडपंत ने अपने दृष्टिकोण द्वारा आवश्यकतानुसार वेदान्त का विवरण देकर चावड़ी के समारोह का वर्णन निम्न प्रकार किया है -

चावड़ी का समारोह
बाबा के शयनागार का वर्णन पहले ही हो चुका है । वे एक दिन मस्जिद में और दूसरे दिन चावड़ी में विश्राम किया करते थे और यह कार्यक्रम उनकी महासमाधि पर्यन्त चालू रहा । भक्तों ने चावड़ी में नियमित रुप से उनका पूजन-अर्चन 10 दिसम्बर, सन् 1909 से आरम्भ कर दिया था ।
अब उनके चरणाम्बुजों का ध्यान कर, हम चावड़ी के समारोह का वर्णन करेंगे । इतना मनमोहक दृश्य था वह कि देखने वाले ठिठक-ठिठक कर रह जाते थे और अपनी सुध-बुध भूल यही आकांक्षा करते रहते थे कि यह दृश्य कभी हमारी आँखों से ओझल न हो । जब चावड़ी में विश्राम करने की उनकी नियमित रात्रि आती तो उस रात्रि को भक्तों का अपार जन-समुदाय मस्जिद के सभा मंडप में एकत्रित होकर घण्टों तक भजन किया करता था । उस मंडप के एक ओर सुसज्जित रथ रखा रहता था और दूसरी ओर तुलसी वृन्दावन था । सारे रसिक जन सभा-मंडप मे ताल, चिपलिस, करताल, मृदंग, खंजरी और ढोल आदि नाना प्रकार के वाद्य लेकर भजन करना आरम्भ कर देते थे । इन सभी भजनानंदी भक्तों को चुम्बक की तरह आकर्षित करने वाले तो श्री साईबाबा ही थे ।
मस्जिद के आँगन को देखो तो भक्त-गण बड़ी उमंगों से नाना प्रकार के मंगल-कार्य सम्पन्न करने में संलग्न थे । कोई तोरण बाँधकर दीपक जला रहे थे, तो कोई पालकी और रथ का श्रृंगार कर निशानादि हाथों में लिये हुए थे । कही-कही श्री साईबाबा की जयजयकार से आकाशमंडल गुंजित हो रहा था । दीपों के प्रकाश से जगमगाती मस्जिद ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो आज मंगलदायिनी दीपावली स्वयं शिरडी में आकर विराजित हो गई हो । मस्जिद के बाहर दृष्टिपात किया तो द्वार पर श्री साईबाबा का पूर्ण सुसज्जित घोड़ा श्यामसुंदर खड़ा था । श्री साईबाबा अपनी गादी पर शान्त मुद्रा में विराजित थे कि इसी बीच भक्त-मंडलीसहित तात्या पटील ने आकर उन्हें तैयार होने की सूचना देते हुए उठने में सहायता की । घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण तात्या पाटील उन्हें 'मामा' कहकर संबोधित किया करते थे । बाबा सदैव की भाँति अपनी वही कफनी पहिन कर बगल में सटका दबाकर चिलम और तम्बाखू संग लेकर धन्धे पर एक कपड़ा डालकर चलने को तैयार हो गये । तभी तात्या पाटील ने उनके शीश पर एक सुनहरा जरी का शेला डाल दिया । इसके पश्चात् स्वयं बाबा ने धूनी को प्रज्वलित रखने के लिये उसमें कुछ लकड़ियाँ डालकर तथा धूनी के समीप के दीपक को बाँयें हाथ से बुझाकर चावड़ी को प्रस्थान कर दिया । अब नाना प्रकार के वाद्य बजने आरम्भ हो गये और उनसे भाँति-भाँति के स्वर निकलने लगे । सामने रंग-बिरंगी आतिशबाजी चलने लगी और नर-नारी भाँति-भाँति के वाद्य बजाकर उनकी कीर्ति के भजन गाते हुए आगे-आगे चलने लगे । कोई आनंद-विभोर हो नृत्य करने लगा तो कोई अनेक प्रकार के ध्वज और निशान लेकर चलने लगे । जैसे ही बाबा ने मस्जिद की सीढ़ी पर अपने चरण रखे, वैसे ही भालदार ने ललकार कर उनके प्रस्थान की सूचना दी । दोनों ओर से लोग चँवर लेकर खड़े हो गये और उन पर पंखा झलने लगे । फिर पथ पर दूर तक बिछे हुए कपड़ो के ऊपर से समारोह आगे बढ़ने लगा । तात्या पाटील उनका बायाँ तथा म्हालसापति दायाँ हाथ पकड़ कर तथा बापूसाहेब जोग उनके पीछे छत्र लेकर चलने लगे । इनके आगे-आगे पूर्ण सुसज्जित अश्व श्यामसुंदर चल रहा था और उनके पीछे भजन मंडली तथा भक्तों का समूह वाद्यों की ध्वनि के संग हरि और साई नाम की ध्वनि, जिससे आकाश गूँज उठता था, उच्चारित करते हुए चल रहा था । अब समारोह चावड़ी के कोने पर पहुँचा और सारा जनसमुदाय अत्यन्त आनंदित तथा प्रफुल्लित दिखलाई पड़ने लगा । जब कोने पर पहुँचकर बाबा चावड़ी के सामने खड़े हो गये, उस समय उनके मुख-मंडल की दिव्यप्रभा बड़ी अनोखी प्रतीत होने लगी और ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो अरुणोदय के समय बाल रवि क्षितिज पर उदित हो रहा हो । उत्तराभिमुख होकर वे एक ऐसी मुद्रा में खड़े गये, जैसे कोई किसी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हो । वाद्य पूर्ववत ही बजते रहे और वे अपना दाहिना हाथ थोड़ी देर ऊपर-नीचे उठाते रहे । वादक बड़े जोरों से वाद्य बजाने लगे और इसी समय काकासाहेब दीक्षित गुलाल और फूल चाँदी की थाली में लेकर सामने आये और बाबा के ऊपर पुष्प तथा गुलाल की वर्षा करने लगे । बाबा के मुखमंडल पर रक्तिम आभा जगमगाने लगी और सब लोग तृप्त-हृदय हो कर उस रस-माधुरी का आस्वादन करने लगे । इस मनमोहक दृश्य और अवसर का वर्णन शब्दों में करने में लेखनी असमर्थ है । भाव-विभोर होकर भक्त म्हालसापति तो नृत्य करने लगे, परन्तु बाबा की अभंग एकाग्रता देखकर सब भक्तों को महान् आश्चर्य होने लगा । एक हाथ में लालटेन लिये तात्या पाटील बाबा के बाँई ओर और आभूषण लिये म्हालसापति दाहिनी ओर चले । देखो तो, कैसे सुन्दर समारोह की शोभा तथा भक्ति का दर्शन हो रहा है । इस दृश्य की झाँकी पाने के लिये ही सहस्त्रों नर-नारी, क्या अमीर और क्या फकीर, सभी वहाँ एकत्रित थे । अब बाबा मंद-मंद गति से आगे बढ़ने लगे और उनके दोनों ओर भक्तगम भक्तिभाव सहित, संग-संग चले लगे और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण दिखाई पड़ने लगा । सम्पूर्ण वायुमंडल भी खुशी से झूम उठा और इस प्रकार समारोह चावड़ी पहुँचा । अब वैसा दृश्य भविष्य में कोई न देख सकेगा । अब तो केवल उसकी याद करके आँखों के सम्मुख उस मनोरम अतीत की कल्पना से ही अपने हृदय की प्यास शान्त करनी पड़ेगी ।
चावड़ी की सजावट भी अति उत्तम प्रकार से की गई थी । उत्तम चाँदनी, शीशे और भाँति-भाँति के हाँड़ी-लालटेन (गैस बत्ती) लगे हुए थे । चावड़ी पहुँचने पर तात्या पाटील आगे बढ़े और आसन बिछाकर तकिये के सहारे उन्होंने बाबा को बैठाया । फिर उनको एक बढ़िया अँगरखा पहिनाया और भक्तों ने नाना प्रकार से उनकी पूजा की, उन्हें स्वर्ण-मुकुट धारण कराया, तथा फूलों और जवाहरों की मालाएँ उनके गले में पहनाई । फिर ललाट पर कस्तूरी का वैष्णवी तिलक तथा मध्य में बिन्दी लगाकर दीर्घ काल तक उनकी ओर अपलक निहारते रहे । उनके सिर का कपड़ा बदल दिया गया और उसे ऊपर ही उठाये रहे, क्योंकि सभी शंकित थे कि कहीं वे उसे फेक न दे, परन्तु बाबा तो अन्तर्यामी थे और उन्होंने भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने दिया । इन आभूषणों से सुसज्जित होने के उपरान्त तो उनकी शोभा अवर्णनीय थी ।
नानासाहेब निमोणकर ने वृत्ताकार एक सुन्दर छत्र लगाया, जिसके केंद्र में एक छड़ी लगी हुई थी । बापूसाहेब जोग ने चाँदी की एक सुन्दर थाली में पादप्रक्षालन किया और अघ्र्य देने के पश्चात् उत्तम विधि से उनका पूजन-अर्चन किया और उनके हाथों में चन्दन लगाकर पान का बीड़ा दिया । उन्हें आसन पर बिठलाया गया । फिर तात्या पाटील तथा अन्य सब भक्त-गण उनके श्री-चरणों पर अपने-अपने शीश झुकाकर प्रणाम करने लगे । जब वे तकिये के सहारे बैठ गये, तब भक्तगण दोनों ओर से चँवर और पंखे झलने लगे । शामा ने चिलम तैयार कर तात्या पाटील को दी । उन्होंने एक फूँक लगाकर चिलम प्रज्वलित की और उसे बाबा को पीने को दिया । उनके चिलम पी लेने के पश्चात फिर वह भगत म्हालसापति को तथा बाद में सब भक्तों को दी गई । धन्य है वह निर्जीव चिलम । कितना महान् तप है उसका, जिसने कुम्हार द्वारा पहिले चक्र पर घुमाने, धूप में सुखाने, फिर अग्नि में तपाने जैसे अनेक संस्कार पाये । तब कहीं उसे बाबा के कर-स्पर्श तथा चुम्बन का सौभाग्य प्राप्त हुआ । जब यह सब कार्य समाप्त हो गया, तब भक्तगण ने बाबा को फूलमालाओं से लाद दिया और सुगन्धित फूलों के गुलदस्ते उन्हें भेंट किये । बाबा तो वैराग्य के पूर्ण अवतार थे और वे उन हीरे-जवाहरात व फूलों के हारों तथा इस प्रकार की सजधज में कब रुचि लेने वाले थे ? परन्तु भक्तों के सच्चे प्रेमवश ही, उनके इच्छानुसार पूजन करने में उन्होंने कोई आपत्ति न की । अन्त में मांगलिक स्वर में वाद्य बजने लगे और बापूसाहेब जोग ने बाबा की यथाविधि आरती की । आरती समाप्त होने पर भक्तों ने बाबा को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर सब एक-एक करके अपने घर लौटने लगे । तब तात्या पाटील ने उन्हें चिनम पिलाकर गुलाब जल, इत्र इत्यादि लगाया और विदा लेते समय एक गुलाब का पुष्प दिया । तभी बाबा प्रेमपूर्वक कहने लगे कि, "तात्या, मेरी देखभाल भली भाँति करना । तुम्हें घर जाना है तो जाओ, परन्तु रात्रि में कभी-कभी आकर मुझे देख भी जाना ।" तब स्वीकारात्मक उत्तर देकर तात्या पाटील चावड़ी से अपने घर चले गये । फिर बाबा ने बहुत सी चादरें बिछाकर स्वयं अपना बिस्तर लगाकर विश्राम किया ।
अब हम भी विश्राम करें और इस अध्याय को समाप्त करते हुये हम पाठकों से प्रार्थना करते है कि वे प्रतिदिन शयन के पूर्व श्री साईबाबा और चावड़ी समारोह का ध्यान अवश्य कर लिया करें ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

om sai ram


Wednesday, November 6, 2013

श्री शिव चालीसा



श्री शिव चालीसा
दोहा
अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।
बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार॥

आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति -मुक्ति -दातार।
करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥

पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार।
सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार॥

पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार।
ढरौ तुरन्त स्वभाववश, नेक न करौ अबार॥

|| चौपाई ||

जय शिव शङ्कर औढरदानी। 
जय गिरितनया मातु भवानी॥

सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। 
सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर॥

सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। 
उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता॥

पराशक्ति - पति अखिल विश्वपति। 
परब्रह्म परधाम परमगति॥

सर्वातीत अनन्य सर्वगत। 
निजस्वरूप महिमामें स्थितरत॥

अंगभूति - भूषित श्मशानचर। 
भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर॥

वृषवाहन नंदीगणनायक। 
अखिल विश्व के भाग्य-विधायक॥

व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। 
रीछचर्म ओढे गिरिजावर॥

कर त्रिशूल डमरूवर राजत। 
अभय वरद मुद्रा शुभ साजत॥

तनु कर्पूर-गोर उज्ज्वलतम। 
पिंगल जटाजूट सिर उत्तम॥

भाल त्रिपुण्ड्र मुण्डमालाधर। 
गल रुद्राक्ष-माल शोभाकर॥

विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी। 
बने सृजन-पालन-लयकारी॥

तुम हो नित्य दया के सागर। 
आशुतोष आनन्द-उजागर॥

अति दयालु भोले भण्डारी। 
अग-जग सबके मंगलकारी॥

सती-पार्वती के प्राणेश्वर। 
स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर॥

हरि-हर एक रूप गुणशीला। 
करत स्वामि-सेवक की लीला॥

रहते दोउ पूजत पुजवावत। 
पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत॥

मारुति बन हरि-सेवा कीन्ही। 
रामेश्वर बन सेवा लीन्ही॥

जग-जित घोर हलाहल पीकर। 
बने सदाशिव नीलकंठ वर॥
असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। 
असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर॥
नम: शिवाय मन्त्र जपत मिटत सब क्लेश भयंकर॥

जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित। 
तिनको शिव अति करत परमहित॥

श्रीकृष्ण तप कीन्हों भारी। 
ह्वै प्रसन्न वर दियो पुरारी॥

अर्जुन संग लडे किरात बन। 
दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन॥

भक्तन के सब कष्ट निवारे। 
दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे॥

शङ्खचूड जालन्धर मारे। 
दैत्य असंख्य प्राण हर तारे॥

अन्धकको गणपति पद दीन्हों। 
शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों॥

तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं। 
बाणासुर गणपति-गति कीन्हीं॥

अष्टमूर्ति पंचानन चिन्मय। 
द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग ज्योतिर्मय॥

भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। 
अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा॥

काशी मरत जंतु अवलोकी। 
देत मुक्ति -पद करत अशोकी॥

भक्त भगीरथ की रुचि राखी। 
जटा बसी गंगा सुर साखी॥

रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी। 
ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी॥

शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक। 
शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक॥

इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। 
देत मुदित ह्वै अति दुर्लभ वर॥

अति उदार करुणावरुणालय। 
हरण दैन्य-दारिद्रय-दु:ख-भय॥

तुम्हरो भजन परम हितकारी। 
विप्र शूद्र सब ही अधिकारी॥

बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। 
ते अलभ्य शिवपद को पावहिं॥

भेदशून्य तुम सबके स्वामी। 
सहज सुहृद सेवक अनुगामी॥

जो जन शरण तुम्हारी आवत। 
सकल दुरित तत्काल नशावत॥

|| दोहा ||

बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार।
गनौ न अघ, अघ-जाति कछु, सब विधि करो सँभार॥

तुम्हरो शील स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय।
तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नहिं कुभाग्य जन कोय॥

दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार।
कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करो पाप सब छार॥

कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करो पवित्र।
राखो पदकमलनि सदा, हे कुपात्र के मित्र॥

।। इति श्री शिव चालीसा समाप्त ।।

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