Thursday, January 31, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 13


अध्याय 13 

अन्य कई लीलाएँ-रोगनिवारण

1.भीमाजी पाटील
2.बाला गणपत दर्जी
3.बापूसाहेब बूटी
4.आलंदीस्वामी
5. काका महाजनी
6.हरदा के दत्तोपंत ।
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माया की अभेद्य शक्ति
बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विद्वतापूर्ण तथा समतोल रहते थे । वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे । उनका कथन था कि "मैं फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री ही है और न घर-द्घार ही । सब चिंताओं को त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ । फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती हैं । मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया मुझे नहीं भूलती, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है । श्रीहरि की यह माया ब्रहादि को भी नहीं छोड़ती, फिर मुझ सरीखे फकीर का तो कहना ही क्या हैं ? परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जायेंगे ।" इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया । भगवान श्रीकृष्ण भागवत में उदृव से कहते कि "सन्त मेरे जीवित स्वरुप हैं" और बाबा का भी कहना यही था कि वे भाग्यशाली, जिनके समस्त पाप नष्ट हो गये हो, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रसर होते है, यदि तुम केवल 'साई साई' का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार उतार दूँगा । इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश्य लाभ होगा । मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है । मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ । अब आगे देखिये कि अनाश्रितों के आश्रयदाता साई ने भक्तों के कल्याणार्थ क्या-क्या किया ।

भीमाजी पाटील : सत्य साई व्रत
नारायण गाँव (तालुका जुन्नर, जिला पूना) के एक महानुभाव भीमाजी पाटील को सन् 1909 में वक्षस्थल में एक भयंकर रोग हुआ, जो आगे चलकर क्षय रोग में परिणत हो गया । उन्होंने अनेक प्रकार की चिकित्सा की, परन्तु लाभ कुछ न हुआ । अन्त में हताश होकर उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, "हे नारायण ! हे प्रभो ! मुझ अनाथ की कुछ सहायता करो !" यह तो विदित ही है कि जब हम सुखी रहते है तो भगवत्-स्मरण नहीं करते, परन्तु ज्यों ही दुर्भाग्य घेर लेता है और दुर्दिन आते है, तभी हमें भगवान की याद आती है । इसीलिए भीमाजी ने भी ईश्वर को पुकारा । उन्हें विचार आया कि क्यों न साईबाबा के परम भक्त श्री. नानासाहेब चाँदोरकर से इस विषय में परामर्श लिया जाय और इसी हेतु उन्होंने अपना स्थिति पूर्ण विवरण सहित उनके पास लिख भेजी और उचित मार्गदर्शन के लिये प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में श्री. नानासाहेब ने लिख दिया कि "अब तो केवल एक ही उपाय शेष है और वह है साई बाबा के चरणकमलों की शरणागति ।" नानासाहेब के वचनों पर विश्वास कर उन्होंने शिरडी-प्रस्थान की तैयारी की । उन्हें शिरडी में लाया गया और मस्जिद में ले जाकर लिटाया गया । श्री. नानासाहेब और शामा भी इस समय वहीं उपस्थित थे । बाबा बोले कि ,"यह पूर्व जन्म के बुरे कर्मों का ही फल है । इस कारण मै इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता ।" यह सुनकर रोगी अत्यन्त निराश होकर करुणपूर्ण स्वर में बोला कि, "मैं बिल्कुल निस्सहाय हूँ और अन्तिम आशा लेकर आपके श्री-चरणों में आया हूँ । आपसे दया की भीख माँगता हूँ । हे दीनों के शरण ! मुझ पर दया करो ।" इस प्रार्थना से बाबा का हृदय द्रवित हो आया और वे बोले कि "अच्छा, ठहरो ! चिन्ता न करो । तुम्हारे दुःखों का अन्त शीघ्र होगा । कोई कितना भी दुःखित और पीड़ित क्यों न हो, जैसे ही वह मस्जिद की सीढ़ियों पर पैर रखता है, वह सुखी हो जाता हैं । मस्जिद का फकीर बहुत दयालु है और वह तुम्हारा रोग भी निर्मूल कर देगा । वह तो सब पर प्रेम और दया रखकर रक्षा करता हैं ।" रोगी को हर पाँचवे मिनट पर खून की उल्टियाँ हुआ करती थी, परन्तु बाबा के समक्ष उसे कोई उल्टी न हुई । जिस समय से बाबा ने अपने श्री-मुख से आशा और दयापूर्ण शब्दों में उक्त उदगार प्रगट किये, उसी समय से रोग ने भी पल्टा खाया । बाबा ने रोगी को भीमाबाई के घर में ठहरने को कहा । यह स्थान इस प्रकार के रोगी को सुविधाजनक और स्वास्थ्यप्रद तो न था, फिर भी बाबा की आज्ञा कौन टाल सकता था ? वहाँ पर रहते हुए बाबा ने दो स्वप्न देकर उसका रोग हरण कर लिया । पहले स्वप्न में रोगी ने देखा कि वह एक विद्यार्थी है और शिक्षक के सामने कविता मुखाग्र न कर सकने के दण्डस्वरुप बेतों की मार से असहनीय कष्ट भोग रहा है । दूसरे स्वप्न में उसने देखा कि कोई हृदय पर नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर पत्थर घुमा रहा है, जिससे उसे असह्य पीड़ा हो रही हैं । स्वप्न में इस प्रकार कष्ट पाकर वह स्वस्थ हो गया और घर लौट आया । फिर वह कभी-कभी शिऱडी आता और साईबाबा की दया का स्मरण कर साष्टांग प्रणाम करता था । बाबा अपने भक्तों से किसी वस्तु की आशा न रखते थे । वे तो केवल स्मरण, दृढ़ निष्ठा और भक्ति के भूखे थे । महाराष्ट्र के लोग प्रतिपक्ष या प्रतिमास सदैव सत्यनारायण का व्रत किया करते है । परन्तु अपने गाँव पहुँचने पर भीमाजी पाटीन ने सत्यनारायण व्रत के स्थान पर एक नया ही 'सत्य साई व्रत' प्रारम्भ कर दिया ।

बाला गणपत दर्जी
एक दूसरे-भक्त, जिनका नाम बाला गणपत दर्जी था, एक समय जीर्ण ज्वर से पीड़ित हुए । उन्होंने सब प्रकार की दवाइयाँ और काढ़े लिये, परन्तु इनसे कोई लाभ न हुआ । जब ज्वर तिलमात्र भी न घटा तो वे शिरडी दौडे़ आये और बाबा के श्रीचरणों की शरण ली । बाबा ने उन्हें विचित्र आदेश दिया कि, "लक्ष्मी मंदिर के पास जाकर एक काले कुत्ते को थोड़ासा दही और चावल खिलाओ ।" वे यह समझ न सके कि इस आदेश का पालन कैसे करें ? घर पहुँचकर चावल और दही लेकर वे लक्ष्मी मंदिर पहुँचे, जहाँ उन्हें एक काला कुत्ता पूँछ हिलाते हुए दिखा । उन्होंने वह चावल और दही उस कुत्ते के सामने रख दिया, जिसे वह तुरन्त ही खा गया । इस चरित्र की विशेषता का वर्णन कैसे करुँ कि उपयुर्क्त उपाय करने मात्र से ही बाला दर्जी का ज्वर हमेशा के लिये जाता रहा ।

बापूसाहेब बूटी
श्रीमान् बापूसाहेब बूटी एक बार अम्लपित्त के रोग से पीड़ित हुए । उनकी आलमारी में अनेक औषधियाँ थी, परन्तु कोई भी गुणकारी न हो रही थी । बापूसाहेब अम्लपित्त के कारण अति दुर्बल हो गये और उनकी स्थिति इतनी गम्भीर हो गई कि वे अब मस्जिद में जाकर बाबा के दर्शन करने में भी असमर्थ थे । बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने सम्मुख बिठाया और बोले, "सावधान, अब तुम्हें दस्त न लगेंगे ।" अपनी उँगली उठाकर फिर कहने लगे "उलटियाँ भी अवश्य रुक जायेंगी ।" बाबा ने ऐसी कृपा की कि रोग समूल नष्ट हो गया और बूटीसाहेब पूर्ण स्वस्थ हो गये ।
एक अन्य अवसर पर भी वे हैजा से पीडि़त हो गये । फलस्वरुप उनकी प्यास अधिक तीव्र हो गई । डाँ. पिल्ले ने हर तरह के उपचार किये, परन्तु स्थिति न सुधरी । अन्त में वे फिर बाबा के पास पहुँचे और उनसे तृशारोग निवारण की औषधि के लिये प्रार्थना की । उनकी प्रार्थना सुनकर बाबा ने उन्हें "मीठे दूध में उबाला हुआ बादाम, अखरोट और पिस्ते का काढ़ा पियो ।" - यह औषधि बतला दी ।
दूसरा डाँक्टर या हकीम बाबा की बतलाई हुई इस औषधि को प्राणघातक ही समझता, परन्तु बाबा की आज्ञा का पालन करने से यह रोगनाशक सिद्ध हुई और आश्चर्य की बात है कि रोग समूल नष्ट हो गया ।

आलंदी के स्वामी
आलंदी के एक स्वामी बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे । उनके कान में असह्य पीड़ा थी, जिसके कारण उन्हें एक पल भी विश्राम करना दुष्कर था । उनकी शल्य चिकित्सा भी हो चुकी थी, फिर भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ था । दर्द भी अधिक था । वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वापिस लौटने के लिये बाबा से अनुमति माँगने गये । यह देखकर शामा ने बाबा से प्रार्थना की कि, "स्वामी के कान में अधिक पीड़ा है । आप इन पर कृपा करो ।" बाबा आश्वासन देकर बोले, "अल्लाह अच्छा करेगा ।" स्वामीजी वापस पूना लौट गये और एक सप्ताह के बाद उन्होंने शिरडी को पत्र भेजा कि "पीड़ा शान्त हो गई है । परन्तु सूजन अभी पूर्ववत् ही है ।" सूजन दूर हो जाय, इसके लिए वे शल्यचिकित्सा (आपरेशन) कराने बम्बई गये । शल्यचिकित्सा विशेषक्ष (सर्जन) ने जाँच करने के बाद कहा कि शल्यचिकित्सा (आपरेशन) की कोई आवश्यकता नहीं । बाबा के शब्दों का गूढ़ार्थ हम निरे मूर्ख क्या समझें?

काका महाजनी
काका महाजनी नाम के एक अन्य भक्त को अतिसार की बीमारी हो गई । बाबा का सेवा-क्रम कहीं टूट न जाय, इस कारण वे एक लोटा पानी भरकर मस्जिद के एक कोने में रख देते थे, ताकि शंका होने पर शीघ्र ही बाहर जा सकें । श्री साईबाबा को तो सब विदित ही था । फिर भी काका ने बाबा को सूचना इसलिये नहीं दी कि वे रोग से शीघ्र ही मुक्ति पा जायेंगे । मस्जिद में फर्श बनाने की स्वीकृति बाबा से प्राप्त हो ही चुकी थी, परन्तु जब कार्य प्रारम्भ हुआ तो बाबा क्रोधित हो गये और उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे, जिससे भगदड़ मच गई । जैसे ही काका भागने लगे, वैसे ही बाबा ने उन्हें पकड़ लिया और अपने सामने बैठा लिया । इस गडबड़ी में कोई आदमी मूँगफली की एक छोटी थैली वहाँ भूल गया । बाबा ने एक मुट्ठी मूँगफली उसमें से निकाली और छील कर दाने काका को खाने के लिये दे दिये । क्रोधित होना, मूँगफली छीलना और उन्हें काका को खिलाना, यह सब कार्य एक साथ ही चलने लगा । स्वंय बाबा ने भी उसमें से कुछ मूँगफली खाई । जब थैली खाली हो गई तो बाबा ने कहा कि मुझे प्यास लगी है । जाकर थोड़ा जल ले आओ । काका एक घड़ा पाना भर लाये और दोनों ने उसमें से पानी पिया । फिर बाबा बोले कि, "अब तुम्हारा अतिसार रोग दूर हो गया । तुम अपने फर्श के कार्य की देखभाल कर सकते हो ।" थोडे ही समय में भागे हुए लोग भी लौट आये । कार्य पुनः प्रारम्भ हो गया । काका कारो अब प्रायः दूर हो चुका था । इस कारण वे कार्य में संलग्न हो गये । क्या मूँगफली अतिसार रोग की औषधि है ? इसका उत्तर कौन दे ? वर्तमान चिकित्सा प्रणाली के अनुसार तो मूँगफली से अतिसार में वृद्घि ही होती है, न कि मुक्ति । इस विषय में सदैव की भाँति बाबा के श्री वचन ही औषधिस्वरुप थे ।

हरदा के दत्तोपन्त
हरदा के एक सज्जन, जिनका नाम श्री दत्तोपन्त था, 14 वर्ष से उदररोग से पीड़ित थे । किसी भी औषधि से उन्हें लाभ न हुआ । अचानक कहीं से बाबा की कीर्ति उनके कानों में पड़ी कि उनकी दृष्टि मात्र से ही रोगी स्वस्थ हो जाते हैं । अतः वे भी भाग कर शिरडी आये और बाबा के चरणों की शरण ली । बाबा ने प्रेम-दृष्टि से उनकी ओर देखकर आशीर्वाद देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रखा । आशीष और उदी प्राप्त कर वे स्वस्थ हो गये तथा भविष्य में फिर कोई पीड़ा न हुई ।
इसी तरह के निम्नलिखित तीन चमत्कार इस अध्याय के अन्त में टिप्पणी में दिये गये हैं –
माधवराव देशपांडे बवासीर रोग से पीडि़त थे । बाबा की आज्ञानुसार सोनामुखी का काढ़ा सेवन करने से वे नीरोग हो गये । दो वर्ष पश्चात् उन्हें पुनः वही पीड़ा उत्पन्न हुई । बाबा से बिना परामर्श लिये वे उसी काढ़े का सेवन करने लगे । परिणाम यह हुआ कि रोग अधिक बढ़ गया । परन्तु बाद में बाबा की कृपा से शीघ्र ही ठीक हो गया ।
काका महाजनी के बड़े भाई गंगाधरपन्त को कुछ वर्षों से सदैव उदर में पीड़ा बनी रहती थी । बाबा की कीर्ति सुनकर वे भी शिरडी आये और आरोग्य-प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने लगे । बाबा ने उनके उदर को स्पर्श कर कहा, "अल्लाह अच्छा करेगा ।" इसके पश्चात् तुरन्त ही उनकी उदर-पीड़ा मिट गई और वे पूर्णतः स्वस्थ हो गये ।
श्री नानासाहेब चाँदोरकर को भी एक बार उदर में बहुत पीड़ा होने लगी । वे दिनरात मछली के समान तड़पने लगे । डाँ. ने अनेक उपचार किये, परन्तु कोई परिणाम न निकला । अन्त में वे बाबा की शरण में आये । बाबा ने उन्हें घी के साथ बर्फी खाने की आज्ञा दी । इस औषधि के सेवन से वे पूर्ण स्वस्थ हो गये ।
इन सब कथाओं से यही प्रतीत होता है कि सच्ची औषधि, जिससे अनेंकों को स्वास्थ्य-लाभ हुआ, वह बाबा के केवल श्रीमुख से उच्चरित वचनों एवं उनकी कृपा का ही प्रभाव था ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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संदेश

"साईं इतने दयालु हैं की पतितों को भी शिर्डी की भूमि पर बुलाकर पावन कर देते हैं।"

Wednesday, January 30, 2013

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संदेश

"परमार्थ जैसा निष्काम कार्य किसी शुद्ध एवं पावन जगह पर ही सफल होता है। शिर्डी एक ऐसा स्थान है जहाँ यह कार्य संभव है।"

Tuesday, January 29, 2013

Monday, January 28, 2013

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संदेश

"मन तभी पवित्र होगा जब उसका तार प्रभु से जुड़ा होगा।"

Sunday, January 27, 2013

श्री खाटू श्याम जी की आरती


श्री खाटू श्याम जी की आरती



ॐ जय श्री श्याम हरे, बाबा जय श्री श्याम हरे |
खाटू धाम विराजत, अनुपम रूप धरे || ॐ

रतन जड़ित सिंहासन, सिर पर चंवर ढुरे |
तन केसरिया बागो, कुण्डल श्रवण पड़े || ॐ

गल पुष्पों की माला, सिर पार मुकुट धरे |
खेवत धूप अग्नि पर दीपक ज्योति जले || ॐ

मोदक खीर चूरमा, सुवरण थाल भरे |
सेवक भोग लगावत, सेवा नित्य करे || ॐ

झांझ कटोरा और घडियावल, शंख मृदंग घुरे |
भक्त आरती गावे, जय - जयकार करे || ॐ

जो ध्यावे फल पावे, सब दुःख से उबरे |
सेवक जन निज मुख से, श्री श्याम - श्याम उचरे || ॐ

श्री श्याम बिहारी जी की आरती, जो कोई नर गावे |
कहत भक्त - जन, मनवांछित फल पावे || ॐ

जय श्री श्याम हरे, बाबा जी श्री श्याम हरे |
निज भक्तों के तुमने, पूरण काज करे || ॐ
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संदेश

"अपनी सोच पवित्र रखें व सद्बुद्धि का आश्रय लें ।"

Saturday, January 26, 2013

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संदेश

"इश्वर की कृपा गत जन्मों के शुभ कर्मों के बिना संभव नहीं।"

Friday, January 25, 2013

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संदेश

"वे सभी भाग्यशाली हैं जिनको शिर्डी आकर बाबा के समीप आने का अवसर प्राप्त होता है।"

Thursday, January 24, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 12


अध्याय 12 

 काका महाजनी, धुमाल वकील, श्रीमती निमोणकर, नासिक के मुले शास्त्री, एक डाँक्टर के द्घारा बाबा की लीलाओं का अनुभव ।
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इस अध्याय में बाबा किस प्रकार भक्तों से भेंट करते और कैसा बर्ताव करते थे, इसका वर्णन किया गया हैं ।

सन्तों का कार्य
हम देख चुके है कि ईश्वरीय अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों का संहार करना है । परन्तु संतों का कार्य तो सर्वथा भिन्न ही है । सन्तों के लिए साधु और दुष्ट प्रायःएक समान ही है । यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालों की प्रथम चिन्ता होती है और वे उन्हें उचित पथ पर लगा देते है । वे भवसागर के कष्टों को सोखने के लिए अगस्त्य के सदृश है और अज्ञान तथा अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य के समान है । सन्तों के हृदय में भगवान वासुदेव निवास करते है । वे उनसे पृथक नहीं है । श्री साई भी उसी कोटि में है, जो कि भक्तों के कल्याण के निमित्त ही अवतीर्ण हुए थे । वे ज्ञानज्योति स्वरुप थे और उनकी दिव्यप्रभा अपूर्व थी । उन्हें समस्त प्राणियों से समान प्रेम था । वे निष्काम तथा नित्यमुक्त थे । उनकी दृष्टि में शत्रु, मित्र, राजा और भिक्षुक सब एक समान थे । पाठको ! अब कृपया उनका पराक्रम श्रवण करें । भक्तों के लिये उन्होंने अपना दिव्य गुणसमूह पूर्णतः प्रयोग किया और सदैव उनकी सहायता के लिये तत्पर रहे । उनकी इच्छा के बिना कोई भक्त उनके पास पहुँच ही न सकता था । यदि उनके शुभ कर्म उदित नहीं हुए है तो उन्हे बाबा की स्मृति भी कभी नहीं आई और न ही उनकी लीलायें उनके कानों तक पहुँच सकी । तब फिर बाबा के दर्शनों का विचार भी उन्हें कैसे आ सकता था? अनेक व्यक्तियों की श्री साईबाबा के दर्शन की इच्छा होते हुए भी उन्हें बाबा के महासमाधि लेने तक कोई योग प्राप्त न हो सका । अतः ऐसे व्यक्ति जो दर्शनलाभ से वंचित रहे है, यदि वे श्रद्घापूर्वक साईलीलाओं का श्रवण करेंगे तो उनकी साई-दर्शन की इच्छा बहुत कुछ सीमा तक तृप्त हो जायेगी । भाग्यवश यदि किसी को किसी प्रकार बाबा के दर्शन हो भी गये तो वह वहाँ अधिक ठहर न सका । इच्छा होते हुए भी केवल बाबा की आज्ञा तक ही वहाँ रुकना संभव था और आज्ञा होते ही स्थान छोड़ देना आवश्यक हो जाता था । अतः यह सव उनकी शुभ इच्छा पर ही अवलंबित था ।

काका महाजनी
एक समय काका महाजनी बम्बई से शिरडी पहुँचे । उनका विचार एक सप्ताह ठहरने और गोकुल अष्टमी उत्सव में सम्मिलित होने का था । दर्शन करने के बाद बाबा ने उनसे पूछा, "तुम कब वापस जाओगे ?" उन्हें बाबा के इस प्रश्न पर आश्चर्य-सा हुआ । उत्तर देना तो आवश्यक ही था, इसलिये उन्होंने कहा, "जब बाबा आज्ञा दे ।" बाबा ने अगले दिन जाने को कहा । बाबा के शब्द कानून थे, जिनका पालन करना नितान्त आवश्यक था । काका महाजनी ने तुरन्त ही प्रस्थान किया । जब वे बम्बई में अपने आफिस में पहुँचे तो उन्होंने अपने सेठ को अति उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते पाया । मुनीम के अचानक ही अस्वस्थ हो जाने के कारण काका की उपस्थिति अनिवार्य हो गई थी । सेठ ने शिरडी को जो पत्र काका के लिये भेजा था, वह बम्बई के पते पर उनको वापस लौटा दिया गया ।

भाऊसाहेब धुमाल
अब एक विपरीत कथा सुनिये । एक बार भाऊसाहेब धुमाल एक मुकदमे के सम्बन्ध में निफाड़ के न्यायालय को जा रहे थे । मार्ग में वे शिरडी उतरे । उन्होंने बाबा के दर्शन किये और तत्काल ही निफाड़ को प्रस्थान करने लगे, परन्तु बाबा की स्वीकृति प्राप्त न हुई । उन्होने उन्हे शिरडी में एक सप्ताह और रोक लिया । इसी बीच में निफाड़ के न्यायाधीश उदर-पीड़ा से ग्रस्त हो गये । इस कारण उनका मुकदमा किसी अगले दिन के लिये बढ़ाया गया । एक सप्ताह बाद भाऊसाहेब को लौटने की अनुमति मिली । इस मामले की सुनवाई कई महीनों तक और चार न्यायाधीशों के पास हुई । फलस्वरुप धुमाल ने मुकदमे में सफलता प्राप्त की और उनका मुवक्किल मामले में बरी हो गया ।

श्रीमती निमोणकर
श्री नानासाहेब निमोणकर, जो निमोण के निवासी और अवैतनिक न्यायाधीश थे, शिरडी में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे । निमोणकर तथा उनकी पत्नी बहुत-सा समय बाबा की सेवा और उनकी संगति में व्यतीत किया करते थे । एक बार ऐसा प्रसंग आया कि उनका पुत्र बेलापुर में रोग से पीड़ित हो गया तब उसकी माता ने वहाँ जाकर अपने पुत्र और अन्य संबंधियों से मिलने तथा कुछ दिन वहीं व्यतीत करने का निश्चय किया । परन्तु श्री नानासाहेब ने दूसरे दिन ही उन्हें लौट आने को कहा । वे असमंजस में पड़ गई कि अब क्या करना चाहिए, परन्तु बाबा ने सहायता की । शिरडी से प्रस्थान करने के पूर्व वे बाबा के पास गई । बाबा साठेवाड़ा के समीप नानासाहेब और अन्य लोगों के साथ खड़े हुये थे । उन्होंने जाकर चरणवन्दना की और प्रस्थान करने की अनुमति माँगी । बाबा ने उनसे कहा, "शीघ्र जाओ, घबराओ नही; शान्त चित्त से बेलापुर में चार दिन सुखपूर्वक रहकर सब सम्बन्धियों से मिलो और तब शिरडी आ जाना ।" बाबा के शब्द कितने सामयिक थे । श्री निमोणकर की आज्ञा बाबा द्घारा रद्द हो गई ।

नासिक के मुले शास्त्रीः ज्योतिषी
नासिक के एक कर्मनिष्ठ, अग्नहोत्री ब्राह्मण थे, जिनका नाम मुले शास्त्री था । इन्होंने 6 शास्त्रों का अध्ययन किया था और ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे । वे एक बार नागपुर के प्रसिद्ध करोड़पति श्री बापूसाहेब बूटी से भेंट करने के बाद अन्य सज्जनों के साथ बाबा के दर्शन करने मस्जिद में गये । बाबा ने फल बेचने वाले से अनेक प्रकार के फल और अन्य पदार्थ खरीदे और मस्जिद में उपस्थित लोंगों में उनको वितरित कर दिया । बाबा आम को इतनी चतुराई से चारों ओर से दबा देते थे कि चूसते ही सम्पूर्ण रस मुँह में आ जाता तथा गुठली और छिलका तुरन्त फेंक दिया जा सकता था बाबा ने केले छीलकर भक्तों में बाँट दिये और उनके छिलके अपने लिये रख लिये । हस्तरेएखा विशारद होने के नाते, मुले शास्त्री ने बाबा के हाथ की परीक्षा करने की प्रार्थना की । परन्तु बाबा ने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान न देकर उन्हें चार केले दिये इसके बाद सब लोग वाड़े को लौट आये । अब मुले शास्त्री ने स्नान किया और पवित्र वस्त्र धारण कर अग्निहोत्र आदि में जुट गये । बाबा भी अपने नियमानुसार लेण्डी को रवाना हो गये । जाते-जाते उन्होंने कहा कि कुछ गेरु लाना, आज भगवा वस्त्र रँगेंगे । बाबा के शब्दों का अभिप्राय किसी की समझ में न आया । कुछ समय के बाद बाबा लौटे । अब मध्याहृ बेला की आरती की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई थी । बापूसाहेब जोग ने मुले से आरती में साथ करने के लिये पूछा । उन्होंने उत्तर दिया कि वे सन्ध्या समय बाबा के दर्शनों को जायेंगे । तब जोग अकेले ही चले गये । बाबा के आसन ग्रहण करते ही भक्त लोगों ने उनकी पूजा की । अब आरती प्रारम्भ हो गई । बाबा ने कहा, "उस नये ब्राह्मण से कुछ दक्षिणा लाओ ।" बूटी स्वयं दक्षिणा लेने को गये और उन्होंने बाबा का सन्देश मुले शास्त्री को सुनाया । वे बुरी तरह घबड़ा गये । वे सोचने लगे कि "मैं तो एक अग्निहोत्री ब्राह्मण हूँ, फिर मुझे दक्षिणा देना क्या उचित है ? माना कि बाबा महान् संत है, परन्तु मैं तो उनका शिष्य नहीं हूँ ।" फिर भी उन्होंने सोचा कि जब बाबा सरीखे महानसंत दक्षिणा माँग रहे है और बूटी सरीखे एक करोड़पति लेने को आये है तो वे अवहेलना कैसे कर सकते है ? इसलिये वे अपने कृत्य को अधूरा ही छोड़कर तुरंत बूटी के साथ मस्जिद को गये । वे अपने को शुद्घ और पवित्र तथा मस्जिद को अपवित्र जानकर, कुछ अन्तर से खड़े हो गये और दूर से ही हाथ जोड़कर उन्होंने बाबा के ऊपर पुष्प फेंके । एकाएक उन्होंने देखा कि बाबा के आसन पर उनके कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी विराजमान हैं । अपने गुरु को वहाँ देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ । कहीं यह स्वप्न तो नहीं है ? नही ! नही ! यह स्वप्न नहीं हैं । मैं पूर्ण जागृत हूँ । परन्तु जागृत होते हुये भी, मेरे गुरु महाराज यहाँ कैसे आ पहुँचे ? कुछ समय तक उनके मुँह से एक भी शब्द न निकला । उन्होंने अपने को चिकोटी ली और पुनः विचार किया । परन्तु वे निर्णय न कर सके कि कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी मस्जिद में कैसे आ पहुँचे ? फिर सब सन्देह दूर करके वे आगे बढ़े और गुरु के चरणों पर गिर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे । दूसरे भक्त तो बाबा की आरती गा रहे थे, परन्तु मुले शास्त्री अपने गुरु के नाम की ही गर्जना कर रहे थे । फिर सब जातिपाँति का अहंकार तथा पवित्रता और अपवित्रता की कल्पना त्याग कर वे गुरु के श्रीचरणों पर पुनः गिर पड़े । उन्होंने आँखें मूँद ली; परन्तु खड़े होकर जब उन्होंने आँखें खोलीं तो बाबा को दक्षिणा माँगते हुए देखा । बाबा का आनन्दस्वरुप और उनकी अनिर्वचनीय शक्ति देख मुले शास्त्री आत्मविस्मृत हो गये । उनके हर्ष का पारावार न रहा । उनकी आँखें अश्रुपूरित होते हुए भी प्रसन्नता से नाच रही थी । उन्होंने बाबा को पुनः नमस्कार किया और दक्षिणा दी । मुले शास्त्री कहने लगे कि "मेरे सब संशय दूर हो गये । आज मुझे अपने गुरु के दर्शन हुए ।" बाबा की यह अदभुत लीला देखकर सब भक्त और मुले शास्त्री द्रवित हो गये । "गेरु लाओ, आज भगवा वस्त्र रंगेंगे" – बाबा के इन शब्दों का अर्थ अब सब की समझ में आ गया । ऐसी अदभुत लीला श्री साईबाबा की थी ।

डाँक्टर
एक समय एक मामलतदार अपने एक डाँक्टर मित्र के साथ शिरडी पधारे । डाँक्टर का कहना था कि मेरे इष्ट श्रीराम हैं । मैं किसी यवन को मस्तक न नमाऊँगा । अतः वे शिरडी जाने में असहमत थे । मामलतदार ने समझाया कि "तुम्हें नमन करने को कोई बाध्य न करेगा और न ही तुम्हें कोई ऐसा करने को कहेगा । अतः मेरे साथ चलो, आनन्द रहेगा ।" वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दर्शन को गये । परन्तु डाँक्टर को ही सबसे आगे जाते देख और बाबा की प्रथम चरण वन्दना करते देख सब को बढ़ा विस्मय हुआ । लोगों ले डाँक्टर से अपना निश्चय बदलने और इस भाँति एक यवन को दंडवत् करने का कारण पूछा । डाँक्टर ने बतलाया कि बाबा के स्थान पर उन्हें अपने प्रिय इष्ट देव श्रीराम के दर्शन हुए और इसलिये उन्होंने नमस्कार किया । जब वे ऐसा कह ही रहे थे, तभी उन्हें साईबाबा का रुप पुनः दीखने लगा । वे आश्चर्यचकित होकर बोले – "क्या यह स्वप्न है ? ये यवन कैसे हो सकते हैं ? अरे ! अरे ! यह तो पूर्ण योग-अवतार है ।" दूसरे दिन से उन्होंने उपवास करना प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक बाबा स्वयं बुलाकर आशीर्वाद नहीं देंगे, तब तक मस्जिद में कदापि न जाऊँगा । इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये । चौथे दिन उनका एक इष्ट मित्र खानदेश से शरडी आया । वे दोनों मस्जिद में बाबा के दर्शन करने गये । नमस्कार होने के बाद बाबा ने डाँक्टर से पूछा, "आपको बुलाने का कष्ट किसने किया ? आप यहाँ कैसे पधारे ?" यह प्रश्न सुनकर डाँक्टर द्रवित हो गये और उसी रात्रि को बाबा ने उनपर कृपा की । डाँक्टर को निद्रा में ही परमानन्द का अनुभव हुआ । वे अपने शहर लौट आये तो भी उन्हें 15 दिनों तक वैसा ही अनुभव होता रहा । इस प्रकार उनकी साईभक्ति कई गुनी बढ़ गई ।
उपर्यु्क्त कथाओं की शिक्षा, विशेषतः मुले शास्त्री की, यही है कि हमें अपने गुरु में दृढ़ विश्वास होना चाहिये ।
अगले अध्याय में बाबा की अन्य लीलाओं का वर्णन होगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Shree Sai Vachan


संदेश

"शिर्डी बुलाकर बाबा मनुष्य को अपनी शरण में आने का अवसर प्रदान करते हैं।"

Wednesday, January 23, 2013

संदेश

"शिर्डी का मार्ग मुक्ति का मार्ग है और साईं से अनुग्रह करना चाहिए की व उसे उस मार्ग तक पहुँचाये।"

Tuesday, January 22, 2013

श्री हनुमान जी की आरती


श्री हनुमान जी की आरती


आरति कीजै हनुमान लला की |
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ||

जाके बल से गिरिवर कांपै |
रोग - दोष जाके निकट न झांपै ||

अंजनी पुत्र महा बलदाई |
सन्तन के प्रेम सदा सहाई ||

दे बीरा रघुनाथ पठाये |
लंका जारि सिया सुधि लाये ||

लंका सो कोट समुद्र सी खाई |
जात पवनसुत बार न लाई||

लंक जारि असुर संहारे |
सिया रामजी के काज सँवारे ||

लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे |
आनि सजीवन प्रान उबारे||

पैठि पताल तोरि जम - कारे |
अहिरावन की भुजा उखारे ||

बायें भुजा असुर दल मारे |
दहिने भुजा सन्तजन तारे ||

सुर नर मुनि आरती उतारे |
जै जै जै हनुमान उचारे ||

कंचन थार कपूर लौ छाई |
आरती करत अंजना माई ||

जो हनुमान जी की आरती गावै |
बसि बैकुंठ परम पद पावै ||

लंक विध्वंस किये रघुराई |
तुलसीदास स्वामी कीर्ति गाई ||

आरती कीजै हनुमान लला की |
दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ||
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Sai Baba Teachings,Top Quotes


shirdi sai baba teachings


संदेश

"जिस पर साईं की कृपा हो जाती है वह भक्त शिर्डी तक अवश्य पहुँच जाता है।"

Monday, January 21, 2013

संदेश

"सच्ची श्रद्धा ऐसा आचरण है जो मनुष्य को किसी लक्ष्य तक ले जाने को प्रेरित करता है।"

Sunday, January 20, 2013

In chapter XXVII of Shri Sai Satcharitra,


An incident about Lord Vitthal's vision is described.

On day while Kakasaheb Dixit was in meditation, after his morning bath in his Wada at Shirdi, he saw a vision of Vitthal. When he went to see Baba afterwards, Baba asked him, "Did Vitthal Patil come? Did you not see Him? He is very elusive, hold Him fast otherwise, He will give you the slip and run away." Then at noon, a certain hawker came there with 20 or 25 pictures of Vitthal of Pandharpur, for sale. Mr. Dixit was surprised to see that the form of Vitthal, he saw in his meditation, exactly tallied with that in the picture, and he was also reminded of Baba's words. He, therefore, bought one picture most willingly and kept it in his shrine for worship.

shirdi sai baba teachings


संदेश

"बिना गुरु के न तो ज्ञान मिलता हैं और न ही मुक्ति।"

Saturday, January 19, 2013

संदेश

"श्रद्धा तो ऐसी अनुभूति है जो मनुष्य के अंतकरण से उत्पन्न होती है।"

Friday, January 18, 2013

संदेश

"जो अच्छा है उसे ग्रहण करना चाहिए तथा बुरे को त्याग देने में ही भलाई है।"

Thursday, January 17, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय (11)



अध्याय 11

  सगुण ब्रह्म श्री साईबाबा, डाँक्टर पंडित द्वारा पूजन, हाजी सिद्दीक फालके, तत्वों पर नियंत्रण ।
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इस अध्याय में अब हम श्री साईबाबा के सगुण ब्रह्म स्वरुप, उनका पूजन तथा तत्वनियंत्रण का वर्णन करेंगे ।
सगुण ब्रह्म श्री साईबाबा
ब्रह्म के दो स्वरुप है – निर्गुण और सगुण । निर्गुण नराकार है और सगुण साकार है । यद्यपि वे एक ही ब्रह्म के दो रुप है, फिर भी किसी को निर्गुण और किसी को सगुण उपासना में दिलचस्पी होती है, जैसा कि गीता के अध्याय 12 में वर्णन किया गया है । सगुण उपासना सरल और श्रेष्ठ है । मनुष्य स्वंय आकार (शरीर, इन्द्रिय आदि) में है, इसीलिये उसे ईश्वर की साकार उपासना स्वभावताः ही सरल हैं । जब तक कुछ काल सगुण ब्रह्म की उपासना न की जाये, तब तक प्रेम और भक्ति में वृद्घि ही नहीं होती । सगुणोपासना में जैसे-जैसे हमारी प्रगति होती जाती है, हम निर्गुण ब्रह्म की ओर अग्रसर होते जाते हैं । इसलिये सगुण उपासना से ही श्री गणेश करना अति उत्तम है । मूर्ति, वेदी, अग्नि, प्रकाश, सूर्य, जल और ब्राह्मण आदि सप्त उपासना की वस्तुएँ होते हुए भी, सदगुरु ही इन सभी में श्रेष्ठ हैं ।
श्री साई का स्वरुप आँखों के सम्मुख लाओ, जो वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति और अनन्य शरणागत भक्तों के आश्रयदाता है । उनके शब्दों में विश्वास लाना ही आसन और उनके पूजन का संकल्प करना ही समस्त इच्छाओं का त्याग हैं ।
कोई-कोई श्रीसाईबाबा की गणना भगवदभक्त अथवा एक महाभागवत (महान् भक्त) में करते थे या करते है । परन्तु हम लोगों के लिये तो वे ईश्वरावतार है । वे अत्यन्त क्षमाशील, शान्त, सरल और सन्तुष्ट थे, जिनकी कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती । यद्यपि वे शरीरधारी थे, पर यथार्थ में निर्गुण, निराकार,अनन्त और नित्यमुक्त थे । गंगा नदी समुद्र की ओर जाती हुई मार्ग में ग्रीष्म से व्यथित अनेकों प्राणियों को शीतलता पहुँचा कर आनन्दित करती, फसलों और वृक्षों को जीवन-दान देती और जिस प्रकार प्राणियों की क्षुधा शान्त करती है, उसी प्रकार श्री साई सन्त-जीवन व्यतीत करते हुए भी दूसरों को सान्त्वना और सुख पहुँचाते है । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है "संत ही मेरी आत्मा है । वे मेरी जीवित प्रतिमा और मेरे ही विशुद्घ रुप है । मैं सवयं वही हूँ ।" यह अवर्णनीय शक्तियाँ या ईश्वर की शक्ति, जो कि सत्, चित्त् और आनन्द हैं । शिरडी में साई रुप में अवर्तीण हुई थी । श्रुति (तैतिरीय उपनिषद्) में ब्रह्म को आनन्द कहा गया है । अभी तक यह विषय केवल पुस्तकों में पढ़ते और सुनते थे, परन्तु भक्तगण ने शिरडी में इस प्रकार का प्रत्यक्ष आनन्द पा लिया है । बाबा सब के आश्रयदाता थे, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता न थी । उनके बैठने के लिये भक्तगण एक मुलायम आसन और एक बड़ा तकिया लगा देते थे । बाबा भक्तों के भावों का आदर करते और उनकी इच्छानुसार पूजनादि करने देने में किसी प्रकार की आपत्ति न करते थे । कोई उनके सामने चँवर डुलाते, कोई वाद्य बजाते और कोई पादप्रक्षालन करते थे । कोई इत्र और चन्दन लगाते, कोई सुपारी, पान और अन्य वस्तुएँ भेंट करते और कोई नैवेद्य ही अर्पित करते थे । यद्यपि ऐसा जान पड़ता था कि उनका निवासस्थान शिरडी में है, परन्तु वे तो सर्वव्यापक थे । इसका भक्तों ने नित्य प्रति अनुभव किया । ऐसे सर्वव्यापक गुरुदेव के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार हैं ।
डाँक्टर पंडित की भक्ति
एक बार श्री तात्या नूलकर के मित्र डाँक्टर पंडित बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे बाबा को प्रणाम कर वे मस्जिद में कुछ देर तक बैठे । बाबा ने उन्हें श्री दादा भट केलकर के पास भेजा, जहाँ पर उनका अच्छा स्वागत हुआ । फिर दादा भट और डाँक्टर पंडित एक साथ पूजन के लिये मस्जिद पहुँचे । दादा भट ने बाबा का पूजन किया । बाबा का पूजन तो प्रायः सभी किया करते थे, परन्तु अभी तक उनके शुभ मस्तक पर चन्दन लगाने का किसी ने भी साहस नहीं किया था । केवल एक म्हालसापति ही उनके गले में चन्दन लगाया करते थे । डाँक्टर पंडित ने पूजन की थाली में से चन्दन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुण्डाकार लगाया । लोगों ने महान् आश्चर्य से देखा कि बाबा ने एक शब्द भी नहीं कहा । सन्ध्या समय दादा भट ने बाबा से पूछा, "क्या कारण है कि आप दूसरों को तो मस्तक पर चन्दन नहीं लगाने देते, परन्तु डाँक्टर पंडित को आपने कुछ भी नहीं कहा?" बाबा कहने लगे, "डाँक्टर पंडित ने मुझे अपने गुरु श्री रघुनाथ महाराज धोपेश्वरकर, जो कि काका पुराणिक के नाम से प्रसिद्ध है, के ही समान समझा और अपने गुरु को वे जिस प्रकार चन्दन लगाते थे, उसी भावना से उन्होंने मुझे चन्दन लगाया । तब मैं कैसे रोक सकता था?" पुछने पर डाँक्टर पंडित ने दादा भट से कहा कि मैंने बाबा को अपने गुरु काका पुराणिक के समान ही जानकर उन्हें त्रिपुण्डाकार चन्दन लगाया है, जिस प्रकार मैं अपने गुरु को सदैव लगाया करता था ।
यद्यपि बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने देते थे, परन्तु कभी-कभी तो उनका व्यवहार विचित्र ही हो जाया करता था । जब कभी वे पूजन की थाली फेंक कर रुद्रावतार धारण कर लेते, तब उनके समीप जाने का साहस ही किसी को न हो सकता था । कभी वे भक्तों को झिड़कते और कभी मोम से भी नरम होकर शान्ति तथा क्षमा की मूर्ति-से प्रतीत होते थे । कभी-कभी वे क्रोधावस्था में कम्पायमान हो जाते और उनके लाल नेत्र चारों ओर घूमने लगते थे, तथापि उनके अन्तःकरण में प्रेम और मातृ-स्नेह का स्त्रोत बहा ही करता था । भक्तों को बुलाकर वे कहा करते थे कि उन्हें तो कुछ ज्ञात ही नहीं हे कि वे कब उन पर क्रोधित हुए । यदि यह सम्भव हो कि समुद्र नदियों को लौटा दे तो ही वे भक्तों के कल्याण की भी उपेक्षा कर सकते हैं । वे तो भक्तों के समीप ही रहते हैं और जब भक्त उन्हें पुकारते है तो वे तुरन्त ही उपस्थित हो जाते है । वे तो सदा भक्तों के प्रेम के भूखे है ।
हाजी सिद्दीक फालके
यह कोई नहीं कह सकता था कि कब श्री साईबाबा अपने भक्त को अपना कृपापात्र बना लेंगे । यह उनकी सदिच्छा पर निर्भर था । हाजी सिद्दीक फालके की कथा इसी का उदाहरण है । कल्याणनिवासी एक यवन, जिनका नाम सिद्दीक फालके था, मक्का शरीफ की हज करने के बाद शिरडी आये । वे चावड़ी में उत्तर की ओर रहने लगे । वे मस्जिद के सामने खुले आँगन में बैठा करते थे । बाबा ने उन्हें 9 माह तक मस्जिद में प्रविष्ट होने की आज्ञा न दी और न ही मस्जिद की सीढ़ी चढ़ने दी । फालके बहुत निराश हुए और कुछ निर्णय न कर सके कि कौनसा उपाय काम में लाये । लोगों ने उन्हें सलाह दी कि आशा न त्यागो । शामा श्रीसाई बाबा के अंतरंग भक्त है । तुम उनके ही द्घारा बाबा के पास पहुँचने का प्रयत्न करो । जिस प्रकार भगवान शंकर के पास पहुँचने के लिये नन्दी के पास जाना आवश्यक होता है, उसी प्रकार बाबा के पास भी शामा के द्घारा ही पहुँचना चाहिये । फालके को यह विचार उचित प्रतीत हुआ और उन्होने शामा से सहायता की प्रार्थना की । शामा ने भी आश्वासन दे दिया और अवसर पाकर वे बाबा से इस प्रकार बोले कि, "बाबा, आप उस बूढ़े हाजी को मस्जिद में किस कारण नहीं आने देते ? अनेकों भक्त स्वेच्छापूर्वक आपके दर्शन को आया-जाया करते है । कम से कम एक बार तो उसे आशीष दे दो ।" बाबा बोले, "शामा, तुम अभी नादान हो । यदि फकीर (अल्लाह) नहीं आने देता है तो मै क्या करुँ? उनकी कृपा के बिना कोई भी मस्जिद की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता । अच्छा, तुम उससे पूछ आओ कि क्या वह बारवी कुएँ निचली पगडंडी पर आने को सहमत है?" शामा स्वीकारात्मक उत्तर लेकर पहुँचे । फिर बाबा ने पुनः शामा से कहा कि उससे फिर पुछो कि ,"क्या वह मुझे चार किश्तों में चालीस हजार रुपये देने को तैयार है?" फिर शामा उत्तर लेकर लौटे कि, "आप कि आप कहें तो मैं चालीस लाख रुपये देने को तैयार हूँ ।" "मैं मस्जिद में एक बकरा हलाल करने वाला हूँ, उससे पुछो कि उसे क्या रुचिकर होगा – बकरे का मांस, नाध या अंडकोष?" शामा यह उत्तर लेकर लौटे कि "यदि बाबा के भोजन-पात्र में से एक ग्रास भी मिल जाय तो हाजी अपने को सौभाग्यशाली समझेगा ।" यह उत्तर पाकर बाबा उत्तेजित हो गये और उन्होंने अपने हाथ से मिट्टी का बर्तन (पानी की गागर) उठाकर फेंक दी और अपनी कफनी उठाये हुए सीधे हाजी के पास पहुँचे । वे उनसे कहने लगे कि "व्यर्थ ही नमाज क्यों पढ़ते हो? अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन क्यों करते हो? यह वृद्ध हाजियों के समान वे्शभूषा तुमने क्यों धारण की है? क्या तुम कुरान शरीफ का इसी प्रकार पठन करते हो? तुम्हें अपने मक्का हज का अभिमान हो गया है, परन्तु तुम मुझसे अनभिज्ञ हो ।" इस प्रकार डाँट सुनकर हाजी घबडा गया । बाबा मस्जिद को लौट आयो और कुछ आमों की टोकरियाँ खरीद कर हाजी के पास भेज दी । वे स्वयं भी हाजी के पास गये और अपने पास से 55 रुपये निकाल कर हाजी को दिये । इसके बाद से ही बाबा हाजी से प्रेम करने लगे तथा अपने साथ भोजन करने को बुलाने लगे । अब हाजी भी अपनी इच्छानुसार मस्जिद में आने-जाने लगे । कभी-कभी बाबा उन्हें कुछ रुपये भी भेंट में दे दिया करते थे । इस प्रकार हाजी बाबा के दरबार में सम्मिलित हो गये ।

बाबा का तत्वों पर नियंत्रण
बाबा के तत्व-नियंत्रण की दो घटनाओं के उल्लेख के साथ ही यह अध्याय समाप्त हो जायेगा ।
एक बार सन्ध्या समय शिरडी में भयानक झंझावात आया । आकाश में घने और काले बादल छाये हुये थे । पवन झकोरों से बह रहा था । बादल गरज रहे थे और बिजली चमक रही थी । मूसलाधार वर्षा प्रारंभ हो गई । जहाँ देखो, वहाँ जल ही जल दृष्टिगोचर होने लगा । सब पशु, पक्षी और शिरडीवासी अधिक भयभीत होकर मस्जिद में एकत्रित हुए। शिरडी में देवियाँ तो अनेकों है, परन्तु उस दिन सहायतार्थ कोई न आई । इसलिये सभी ने अपने भगवान साई से, जो भक्ति के ही भूखे थे, संकट-निवारण करने की प्रार्थना की । बाबा को भी दया आ गई और वे बाहर निकल आये । मस्जिद के समीप खड़े होकर उन्होंने बादलों की ओर दृष्टि कर गरजते हुए शब्दों में कहा कि "बस, शांत हो जाओ ।" कुछ समय के बाद ही वर्षा का जोर कम हो गया । और पवन मन्द पड़ गयी तथा आँधी भी शान्त हो गई । आकाश में चन्द्रदेव उदित हो गये । तब सब लोग अति प्रसन्न होकर अपने-अपने घर लौट आये ।
एक अन्य अवसर पर मध्याहृ के समय धूनी की अग्नि इतनी प्रचण्ड होकर जलने लगी कि उसकी लपटें ऊपर छत तक पहुँचने लगी । मस्जिद में बैठे हुए लोगों की समझ में न आता था कि जल डाल कर अग्नि शांत कर दें अथवा कोई अन्य उपाय काम में लावें । बाबा से पूछने का साहस भी कोई नहीं कर पा रहा था ।
परन्तु बाबा शीघ्र परिस्थिति को जान गये । उन्होंने अपना सटका उठाकर सामने के खम्भे पर बलपूर्वक प्रहार किया और बोले "नीचे उतरो और शान्त हो जाओ ।" सटके की प्रत्येक ठोकर पर लपटें कम होने लगी और कुछ मिनटों में ही धूनी शान्त और यथापूर्वक हो गई । श्रीसाई ईश्वर के अवतार हैं । जो उनके सामने नत होकर उनके शरणागत होगा, उस पर वे अवश्य कृपा करेंगे । जो भक्त इस अध्याय की कथायें प्रतिदिन श्रद्घा और भक्तिपूर्वक पठन करेगा, उसका दुःखों से शीघ्र ही छुटकारा हो जायेगा । केवल इतना ही नही, वरन् उसे सदैव श्रीसाई चरणों का स्मरण बना रहेगा और उसे अल्प काल में ही ईश्वर-दर्शन की प्राप्ति होकर, उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और इस प्रकार वह निष्काम बन जायेगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

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om sai ram


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"बाबा ने कहा है की कोई भी उत्तम और आवश्यक कार्य करते वक्त स्वयं को कर्ता न मानकर अभिमान शून्य होकर ही कर्म करो।"

Monday, January 14, 2013

श्री शिव स्तुति


श्री शिव स्तुति 

शीश गंग अर्द्धागड़ पार्वती,
सदा विराजत कैलाशी |
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं,
धरत ध्यान सुर सुख रासी ||
शीतल मंद सुगंध पवन बहे,
वहाँ बैठे है शिव अविनासी |
करत गान गंधर्व सप्त स्वर,
राग रागिनी सब गासी ||
यक्षरक्ष भैरव जहं डोलत,
बोलत है बनके वासी |
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर,
भंवर करत हैं गुंजासी ||
कल्पद्रुम अरु पारिजात,
तरु लाग रहे हैं लक्षासी |
कामधेनु कोटिक जहं डोलत,
करत फिरत है भिक्षासी ||
सूर्य कांत समपर्वत शोभित,
चंद्रकांत अवनी वासी |
छहों ऋतू नित फलत रहत हैं,
पुष्प चढ़त हैं वर्षासी ||
देव मुनिजन की भीड़ पड़त है,
निगम रहत जो नित गासी |
ब्रह्मा विष्णु जाको ध्यान धरत हैं,
कछु शिव हमको फरमासी ||
ऋद्धि-सिद्धि के दाता शंकर,
सदा अनंदित सुखरासी |
जिनको सुमरिन सेवा करते,
टूट जाय यम की फांसी ||
त्रिशूलधर को ध्यान निरन्तर,
मन लगाय कर जो गासी |
दूर करे विपता शिव तन की
जन्म-जन्म शिवपत पासी ||
कैलाशी काशी के वासी,
अविनासी मेरी सुध लीज्यो |
सेवक जान सदा चरनन को,
आपन जान दरश दीज्यो ||
तुम तो प्रभुजी सदा सयाने,
अवगुण मेरो सब ढकियो |
सब अपराध क्षमाकर शंकर,
किंकर की विनती सुनियो ||

ॐ नमों शिवाय

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Saturday, January 12, 2013

श्री शनि चालीसा


श्री शनि चालीसा

जयति जयति शनिदेव दयाला । करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै । माथे रतन मुकुट छवि छाजै ॥
परम विशाल मनोहर भाला । टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके । हिये माल मुक्तन मणि दमके ॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा । पल बिच करैं आरिहिं संहारा ॥
पिंगल, कृष्णों, छाया, नन्दन । यम, कोणस्थ, रौद्र, दुख भंजन ॥
सौरी, मन्द, शनि, दश नामा । भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥
जा पर प्रभु प्रसन्न है जाहीं । रंकहुं राव करैंक्षण माहीं ॥
पर्वतहू तृण होई निहारत । तृण हू को पर्वत करि डारत ॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हो । कैकेइहुं की मति हरि लीन्हों ॥
बनहूं में मृग कपट दिखाई । मातु जानकी गई चतुराई ॥
लखनहिं शक्ति विकल करि डारा । मचिगा दल में हाहाकारा ॥
रावण की गति-मति बौराई । रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥
दियो कीट करि कंचन लंका । बजि बजरंग बीर की डंका ॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा । चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥
हार नौलाखा लाग्यो चोरी । हाथ पैर डरवायो तोरी ॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो । तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो ॥
विनय राग दीपक महं कीन्हों । तब प्रसन्न प्रभु है सुख दीन्हों ॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी । आपहुं भरे डोम घर पानी ॥
तैसे नल परदशा सिरानी । भूंजी-मीन कूद गई पानी ॥
श्री शंकरहि गहयो जब जाई । पार्वती को सती कराई ॥
तनिक विलोकत ही करि रीसा । नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी । बची द्रौपदी होति उघारी ॥
कौरव के भी गति मति मारयो । युद्घ महाभारत करि डारयो ॥
रवि कहं मुख महं धरि तत्काला । लेकर कूदि परयो पाताला ॥
शेष देव-लखि विनती लाई । रवि को मुख ते दियो छुड़ई ॥
वाहन प्रभु के सात सुजाना । जग दिग्ज गर्दभ मृग स्वाना ॥
जम्बुक सिंह आदि नखधारी । सो फल जज्योतिष कहत पुकारी ॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं । हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं ॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा । गर्दभ सिद्घ कर राज समाजा ॥
जम्बुक बुद्घि नष्ट कर डारै । मृग दे कष्ट प्रण संहारै ॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी । चोरी आदि होय डर भारी ॥
तैसहि चारि चरण यह नामा । स्वर्ण लौह चांजी अरु तामा ॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं । धन जन सम्पत्ति नष्ट करावै ॥
समता ताम्र रजत शुभकारी । स्वर्ण सर्व सुख मंगल कारी ॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै । कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥
अदभुत नाथ दिखावैं लीला । करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई । विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत । दीप दान दै बहु सुख पावत ॥
कहत रामसुन्दर प्रभु दासा । शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥


॥ दोहा ॥
पाठ शनिश्चर देव को, की हों विमल तैयार । 
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ॥

|| इति श्री शनि चालीसा ||

shirdi sai baba teachings


Friday, January 11, 2013

shirdi sai baba teachings


In chapter XVIII and XIX of Shri Sai Satcharitra,

Baba gives invaluable advice regarding our behaviour which is for our general welfare.

Baba says, "Unless there is some relationship or connection, nobody goes anywhere. If any men or creatures come to you, do not discourteously drive them away but receive them well, and treat them with due respect. Shri Hari (God) will be certainly pleased, if you give water to the thirsty, bread to the hungry, clothes to the naked and your Verandah to strangers for resting. If anybody wants money from you and you are not inclined to give, do not give but do not bark at him like a dog. Let anybody speak hundreds of things against you, do not resent by giving any bitter reply. If you tolerate such things you will certainly be happy. Let the world go topsy-turvy, you remain where you are. Standing in your own place look on calmly at the show of all things passing before you. Demolish the wall of difference that separates you from Me, and then the road for our meeting will be clear and open. The sense of differentiation as I and thou, is the barrier, that keeps away the disciple from his Master and unless that is destroyed the state of union or atonement is not possible, "Allah Malik", i.e. God is the sole Proprietor, nobody else is our Protector. His method of work is extra-ordinary, invaluable and inscrutable. His Will be done and He will show us the way, and satisfy our heart's desires. It is on account of Rinanubandh(former relationship) that we have come together, let us love and serve each other and be happy. He who attains supreme goal of life, is immortal and happy, all others merely exist, i.e. live so long as they breathe."

Thursday, January 10, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय (10)


अध्याय 10 - 
श्री साईबाबा का रहन-सहन, शयन पटिया, शिरडी में निवास, उनके उपदेश, उनकी विनयशीनता, नानावली, सुगम पथ ।
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प्रारम्भ
श्री साईबाबा का सदा ही प्रेमपूर्वक स्मरण करो, क्योंकि वे सदैव दूसरों के कल्याणार्थ तत्पर तथा आत्मलीन रहते थे । उनका स्मरण करना ही जीवन और मृत्यु की पहेली हल करना है । साधनाओं में यह अति श्रेष्ठ तथा सरल साधना है, क्योंकि इसमें कोई द्रव्य व्यय नहीं होता । केवल मामूली परिश्रम से ही भविष्य नितान्त फलदायक होता है । जब तक इन्द्रियाँ बलिष्ठ है, क्षण-क्षण इस साधना को आचरण में लाना चाहिये । अन्य सब देवी-देवता तो भ्रमित करने वाले है, केवल गुरु ही ईश्वर है । हमें उनके ही पवित्र चरणकमलों में श्रद्धा रखनी चाहिये । वे तो हर इन्सान के भाग्यविधाता और प्रेममय प्रभु हैं । जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करेंगे, वे भवसागर से निश्चय ही मुक्ति को प्राप्त होंगे । न्याय अथवा मीमांसा या दर्शनशास्त्र पढ़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं है । जिस प्रकार नदी या समुद्र पार करते समय नाविक पर विश्वास रखते है, उसी प्रकार का विश्वास हमें भवसागर से पार होने के लिये सदगुरु पर करना चाहिये । सदगुरु तो केवल भक्तों के भक्ति-भाव की ओर ही देखकर उन्हें ज्ञान और परमानन्द की प्राप्ति करा देते हैं ।
गत अध्याय में बाबा की भिक्षावृत्ति, भक्तों के अनुभव तथा अन्य विषयों का वर्णन किया गया हैं । अब पाठकगण सुनें कि श्री साईबाबा किस प्रकार रहते, शयन करते और शिक्षा प्रदान करते थे ।

बाबा का विचित्र बिस्तर
पहले हम यह देखेंगे कि बाबा किस प्रकार शयन करते थे । श्री नानासाहेब डेंगले एक चार हाथ लम्बा और एक हथेली चौड़ा लकड़ी का तख्ता श्री साईबाबा के शयन के हेतु लाये । तख्ता कहीं नीचे रखकर उस पर सोते, ऐसा न कर बाबा ने पुरानी चिन्दियों से मस्जिद की बल्ली से उसे झूले के समान बाँधकर उस पर शयन करना प्रारम्भ कर दिया ।
चिन्दियों के बिल्कुल पतली और कमजोर होने के कारण लोगों को उसका झूला बनाना एक पहेली-सा बन गया । चिन्दियाँ तो केवल तख्ते का भी भार सहन नहीं कर सकती थी । फिर वे बाबा के शरीर का भार किस प्रकार सहन कर सकेंगी? जिस प्रकार भी हो, यह तो राम ही जानें, परन्तु यह तो बाबा की एक लीला थी, जो फटी चिन्दियाँ तख्ते तथा बाबा का भार सँभाल रही थी । बाबा को तख्ते पर बैठे या शयन करते हुए देखना, देवताओं को भी दुर्लभ दृश्य था । सब आश्चर्यचकित थे कि बाबा किस प्रकार तख्ते पर चढ़ते होंगे और किस प्रकार नीचे उतरते होंगे । कौतूहलवश लोग इस रहस्योद्घघाटन के हेतु दृष्टि लगाये रहते थे, परंतु यह समझने में कोई भी सफल न हो सका और इस रहस्य को जानने के लिये भीड़ उत्तरोत्तर बढ़ने लगी । इस कारण बाबा ने एक दिन तख्ता तोड़कर बाहर फेंक दिया । यद्यपि बाबा को अष्ट सिद्घियाँ प्राप्त थीं, परन्तु उन्होंने कभी भी उनका प्रयोग नहीं किया और न कभी उनकी ऐसी इच्छा ही हुई । वे तो स्वतः ही स्वाभाविक रुप से पू्र्णता प्राप्त होने के कारण उनके पास आ गई थी ।

ब्रह्म का सगुण अवतार
ब्राहृदृष्टि से श्री साईबाबा साढ़े तीन हाथ लम्बे एक सामान्य पुरुष थे, फिर भी प्रत्येक के हृदय में वे विराजमान थे । अंदर से वे आसक्ति-रहित और स्थिर थे, परन्तु बाहर से जन-कल्याण के लिये सदैव चिन्तित रहते थे । अंदर से वे संपूर्ण रुप से निःस्वार्थी थे । भक्तों के निमित्त उनके हृदय में परम शांति विराजमान थी, परंतु बाहर से वे अशान्त प्रतीत होते थे । वे भीतर से ब्रह्मज्ञानी, परन्तु बाहर से संसार में उलझे हुए दिखलाई पड़ते थे । वे कभी प्रेमदृष्टि से देखते तो कभी पत्थर मारते, कभी गालियाँ देते और कभी हृदय से लगाते थे । वे गम्भीर, शान्त और सहनशील थे । वे सदैव दृढ़ और आत्मलीन रहते थे और अपने भक्तों का सदैव उचित ध्यान रखते थे। वे सदा एक आसन पर ही विराजमान रहते थे । वे कभी यात्रा को नहीं निकले । उनका दंड एक छोटी सी लकड़ी था, जिसे वे सदैव अपने पास सँभाल कर रखते थे । विचारशून्य होने के कारण वे शान्त थे । उन्होंने कंचन और कीर्ति की कभी चिन्ता नहीं की तथा सदा ही भिक्षावृति द्घारा निर्वाह करते रहे । उनका जीवन ही इस प्रकार का था । "अल्लाह मालिक" सदैव उनके होठों पर रहता था । उनका भक्तों पर विशेष और अटूट प्रेम था । वे आत्म-ज्ञान की खान और परम दिव्य स्वरुप थे । श्री साईबाबा का दिव्य स्वरुप इस तरह का था । एक अपरिमित, अनन्त, सत्य और अपरिवर्तनशील सिद्घान्त, जिसके अन्तर्गत यह सारा विश्व है, श्री साईबाबा में आविर्भूत हुआ था । यह अमुल्य निधि केवल सत्वगुण-सम्पन्न और भाग्यशाली भक्तों को ही प्राप्त हुई । जिन्होंने श्री साईबाबा को केवल मनुष्य या सामान्य पुरुष समझा या समझते है, वे यथार्थ में अभागे थे या हैं ।
श्री साईबाबा के माता-पिता तथा उनकी जन्मतिथि का ठीक-ठीक पता किसी को भी नहीं है तो भी उनके शिरडी में निवास के द्घारा इसका अनुमान लगाया जा सकता हैं । जब पहलेपहल बाबा शिरडी में आये थे तो उस समय उनकी आयु केवल 16 वर्ष की थी । वे शिरडी में 3 वर्ष तक रहने के बाद फिर कुछ समय के लिये अन्तर्धान हो गये । कुछ काल के उपरान्त वे औरंगाबाद के समीप (निजाम स्टेट) में प्रकट हुए और चाँद पाटील की बारात के साथ पुनः शिरडी पधारे । उस समय उनकी आयु 20 वर्ष की थी । उन्होंने लगातार 60 वर्षों तक शिरडी में वास किया और सन् 1918 में महासमाधि ग्रहण की । इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते है कि उनकी जन्म-तिथि सन् 1838 के लगभग थी ।

बाबा का ध्येय और उपदेश
सत्रहवी शताब्दी (1608-1681) में सन्त रामदास प्रकट हुए और उन्होंने यवनों से गायों और ब्राह्मणों की रक्षा करने का कार्य सफलतापूर्वक किया । परन्तु दो शताब्दियों के व्यतीत हो जाने के बाद हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य बढ़ गया और इसे दूर करने के लिये ही श्री साईबाबा प्रगट हुए । उनका सभी के लिये यही उपदेश था कि "राम (जो हिन्दुओं का भगवान है) और रहीम (जो मुसलमानों का खुदा है) एक ही है और उनमें किंचित मात्र भी भेद नहीं है । फिर तुम उनके अनुयायी क्यों पृथक-पृथक रहकर परस्पर झगड़ते हो ? अज्ञानी बालको ! दोनों जातियाँ एकता साध कर और एक साथ मिलजुलकर रहो । शांत चित्त से रहो और इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का ध्येय प्राप्त करो । कलह और विवाद व्यर्थ है । इसलिए न झगड़ो और न परस्पर प्राणघातक ही बनो । सदैव अपने हित तथा कल्याण का विचार करो । श्री हरि तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे । योग, वैराग्य, तप, ज्ञान आदि ईश्वर के समीप पहुँचने के मार्ग है । यदि तुम किसी तरह सफल साधक नहीं बन सकते तो तुम्हारा जन्म व्यर्थ है । तुम्हारी कोई कितनी ही निन्दा क्यों न करे, तुम उसका प्रतिकार न करो । यदि कोई शुभ कर्म करने की इच्छा है तो सदैव दूसरों की भलाई करो ।"
संक्षेप में यही श्री साईबाबा का उपदेश है कि उपयुक्त कथनानुसार आचरण करने से भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में तुम्हारी प्रगति होगी ।

सच्चिदानंद सदगुरु श्री साईनाथ महाराज
गुरु तो अनेक है कुछ गुरु ऐसे है, जो द्घार-द्घार हाथ में वीणा और करताल लिये अपनी धार्मिकता का प्रदर्शन करते फिरते हैं । वे शिष्यों के कानों में मंत्र फूँकते और उनकी सम्पत्ति का शोषण करते हैं । वे ईश्वर भक्ति तथा धार्मिकता का केवल ढोंग ही रचते हैं । वे वस्तुतः अपवित्र और अधार्मिक होते है । श्री साईबाबा ने धार्मिक निष्ठा प्रदर्शित करने का विचार भी कभी मन में नहीं किया । दैहिक बुद्घि उन्हें किंचितमात्र भी छू न गई थी । परन्तु उनमें भक्तों के लिए असीम प्रेम था । गुरु दो प्रकार के होते है –
नियत और अनियत ।
अनियत गुरु के आदेशों से अपने में उत्तम गुणों का विकास होता तथा चित्त की शुद्घि होकर विवेक की वृद्घि होती है । वे भक्ति-पथ पर लगा देते हैं । परन्तु नियत गुरु की संगति मात्र से द्घैत बुद्घि का ह्रास शीघ्र हो जाता है । गुरु और भी अनेक प्रकार के होते है, जो भिन्न-भिन्न प्रकार की सांसारिक शिक्षाये प्रदान करते हैं । यथार्थ में जो हमें आत्मस्थित बनाकर इस भवसागर से पार उतार दे, वही सदगुरु है । श्री साईबाबा इसी कोटि के सदगुरु थे । उनकी महानता अवर्णीनीय है । जो भक्त बाबा के दर्शनार्थ आते, उनके प्रश्न करने के पूर्व ही बाबा उनके समस्त जीवन की त्रिकालिक घटनाओं का पूरा-पूरा विवरण कह देते थे । वे समस्त भूतों में ईश्वर-दर्शन किया करते थे । मित्र और शत्रु उन्हें दोनों एक समान थे । वे निःस्वार्थी तथा दृढ़ थे । भाग्य और दुर्भाग्य का उन पर कोई प्रभाव न था । वे कभी संशयग्रस्त नहीं हुए । देहधारी होकर भी उन्हें देह की किंचितमात्र आसक्ति न थी । देह तो उनके लिए केवल एक आवरण मात्र था । यथार्थ में तो वे नित्य मुक्त थे ।
वे शिरडीवासी धन्य है, जिन्होंने श्री साईबाबा की ईश्वर-रुप में उपासना की । सोते-जागते, खाते-पीते, वाड़े या खेत तथा घर में अन्य कार्य करते हुए भी वे लोग सदैव उनका स्मरण तथा गुणगान करते थे । साईबाबा के अतिरिक्त दूसरा कोई ईश्वर वे मानते ही न थे । शिरडी की नारियों के प्रेम की माधुरी का तो कहना ही क्या है ! वे विलकुल भोलीभाली थी । उनका पवित्र प्रेम उन्हें ग्रामीण भाषा में भजन रचने की सदैव प्रेरणा देता रहता था । यद्यपि वे शिक्षित न थी तो भी उनके सरल भजनों में वास्तविक काव्य की झलक थी । यह कोई विदृता न थी, वरना उनका सच्चा प्रेम ही इस प्रकार की कविता का प्रेरक था । कविता तो सच्चे प्रेम का प्रगट स्वरुप ही है, जिसमें चतुर श्रोता-गण ही यथार्थ दर्शन या रसिकता का अनुभव करते है । 

बाबा की विनयशीलता
ऐसा कहते है कि भगवान् में 6 प्रकार के विशेष गुण होते है – 
यथा
कीर्ति
श्री
वैराग्य
ज्ञान
ऐश्वर्य और
उदारता
श्री साईबाबा में भी ये सब गुण विद्यमान थे । उन्होंने भक्तों की इच्छा-पूर्ति के निमित्त ही सगुण अवतार धारण किया था । उनकी कृपा (दया) बड़ी ही विचित्र थी। भक्तों के हेतु वे अपने श्रीमुख से ऐसे वचन कहते, जिनका वर्णन करने का सरस्वती भी साहस न कर सकती । उनमें से यहाँ पर एक रोचक नमूना दिया जाता हैं । बाबा अति विनम्रता से इस प्रकार बोलते "दासानुदास, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ," कैसी विनम्रता है ? 
यद्यपि बाहृय दृष्टि से बाबा विषय-पदार्थों का उपभोग करते हुए प्रतीत होते थे, परन्तु उन्हें किंचितमात्र भी उनकी गन्ध न थी और न ही उनके उपभोग का ज्ञान था । वे खाते अवश्य थे, परन्तु उनकी जिव्हा को कोई स्वाद न था । वे नेत्रों से देखते थे, परन्तु उस दृश्य में उनकी कोई रुचि न थी । काम के सम्बन्ध में वे हनुमान सदृश अखंड ब्रहमचारी थे । उन्हें किसी पदार्थ में आसक्ति न थी । वे शुद्घ चैतन्य स्वरुप थे, जहाँ समस्त इच्छाएँ, अहंकार और अन्य चेष्टाएँ विश्राम पाती थी । संक्षेप में वे निःस्वार्थ, मुक्त और पूर्ण ब्रहम थे । इस कथन को समझने के हेतु एक रोचक कथा का उदाहरण यहाँ दिया जाता है ।

नानावली
शिरडी में नानावली नाम का एक विचित्र और अनोखा व्यक्ति था । वह बाबा के सब कार्यों की देखभाल किया करता था । एक समय जब बाबा गादी पर विराजमान थे, वह उनके पास पहुँचा । वह स्वयं ही गादी पर बैठना चाहता था । इसलिये उसने बाबा को वहाँ से हटने को कहा । बाबा ने तुरन्त गादी छोड़ दी और तब नानावल्ली वहाँ विराजमान हो गया । थोड़े ही समय वहाँ बैठकर वह उठा और बाबा को अपना स्थान ग्रहण करने को कहा । बाबा पुनः आसन पर बैठ गये । यह देखकर नानावली उनके चरणों पर गिर पड़ा । इस प्रकार अनायास ही आज्ञा दिये जाने और वहाँ से उठाये जाने के कारण बाबा में किंचितमात्र भी अप्रसन्नता की झलक न थी ।

सुगम पथः 
संतों की कथाओं का श्रवण करना और उनका समागम 
यद्यपि बाहय दृष्टि से श्री साईबाबा का आचरण सामान्य पुरुषों के सदृश ही था, परन्तु उनके कार्यों से उनकी असाधारण बुद्घिमत्ता और चतुराई स्पष्ट ही प्रतीत होती थी । उनके समस्त कर्म भक्तों की भलाई के निमित्त ही होते थे । उन्होने कभी भी अपने भक्तों को किसी आसन या प्राणायाम के नियमों अथवा किसी उपासना का आदेश कभी नहीं दिया और न उनके कानों में कोई मन्त्र ही फूँका । उनका तो सभी के लिये यही कहना था कि चातुर्य त्याग कर सदैव साई साई यही स्मरण करो । इस प्रकार आचरण करने से समस्त बन्धन छूट जायेंगे और तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो जायेगी । पंचाग्नि, तप, त्याग, स्मरण, अष्टांग योग आदि का साध्य होना केवल ब्राहमणों को ही सम्भव है ।
मन का कार्य विचार करना है । बिना विचार किये वह एक क्षण भी नहीं रह सकता । यदि तुम उसे किसी विषय में लगा दोगे तो वह उसी का चिन्तन करने लगेगा और यदि उसे गुरु को अर्पण कर दोगे तो वह गुरु के सम्बन्ध में ही चिन्तन करता रहेगा । आप लोग बहुत ध्यानपूर्वक साई की महानता और श्रेष्ठता श्रवण कर ही चुके है । ये कथाएँ सासारिक भय को निर्मूल कर आध्यात्मिक पथ पर आरुढ़ करती है । इसलिये इन कथाओं का हमेशा श्रवण और मनन करो तथा आचरण में भी लाओ । यदि इन्हें कार्यान्वित किया गया तो न केवन ब्राहमण, वरन स्त्रियाँ और अन्य दलित जातियाँ भी शुदृ और पावन हो जायेंगी । सासारिक कार्यों में लगे रहने पर भी अपना चित्त साई और उनकी कथाओं में लगाये रहो । तब तो यह निश्चत है कि वे कृपा अवश्य करेंगे । यह मार्ग अति सरल होने पर भी क्या कारण है कि सब कोई इसका अवलम्बन नहीं करते ? कारण केवल यह है कि ईश-कृपा के अभाववश लोगों मे सन्त कथाएँ श्रवण करने की रुचि उत्पन्न नहीं होती । ईश्वर की कृपा से ही प्रत्येक कार्य सुचारु एवम सुंदर ढंग से चलता है । सन्तों की कथा का श्रवण ही सन्तसमागम सदृश है । सन्त-सानिध्य का महत्व अति महान है । उससे दैहिक वुद्घि, अहंकार और जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति, हो जाती है । हृदय की समस्त ग्रंथियाँ खुल जाती है और ईश्वर से मिलन हो जाता है, जो चैतन्यघन स्वरुप है । विषयों से निश्चय ही विरक्ति बढ़ती है तथा दुःखों और सुखों में स्थिर रहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है और आध्यात्मिक उन्नति सुलभ हो जाती है । यदि तुम कोई साधन जैसे नामस्मरण, पूजन या भक्ति इत्यादि नहीं करते, परन्तु अनन्य भाव से केवल सन्तों के ही शरणागत हो जाओ तो वे तुम्हें आसानी से भवसागर के उस पार उतार देंगे । इसी कार्य के निमित्त ही सन्त विश्व में प्रगट होते है । पवित्र नदियाँ – गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि जो संसार के समस्त पापों को धो देती है, वे भी सदैव इच्छा करती है कि कोई महात्मा अपने चरण-स्पर्श से हमें पावन करे । ऐसा सन्तों का प्रभाव है । गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही श्री साई चरणों की प्राप्ति संभव है ।
मैं श्रीसाई के मोह-विनाशक चरणों का ध्यान कर यह अध्याय समाप्त करता हूँ । उनका स्वरुप कितना सुन्दर और मनोहर है । मस्जिद के किनारे पर खड़े हुए वे सब भक्तों को, उनके कल्याणार्थ उदी वितरण किया करते है । जो इस विश्व को मिथ्या मानकर सदा आत्मानंद में निमग्न रहते थे, ऐसे सच्चिदानंद श्रीसाईमहाराज के चरणकमलों में मेरा बार-बार नमस्कार हैं ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

shirdi sai baba teachings


shirdi sai.jai jai sai

आप सभी को साँई-वार की हार्दिक शुभ कामनायें
गम और ख़ुशी की रातें सब हैं उसकी सौगांते
देनेवाला जो दे दे हंस-हंसके सहते जाओ
जिस हाल में रखे साई उस हाल में रहते जाओ
॥ श्री सच्चिदानंद सदगुरु साईनाथ महाराज की जय ॥
॥ ॐ साईं राम ॥!♥!॥ ॐ साईं राम ॥!♥!॥ ॐ साईं राम ॥

In chapter XVIII and XIX of Shri Sai Satcharitra,

It is written that, Sai Baba required no special place nor any special time for giving instructions.
Whenever any occasion demanded, He gave them freely.
Once it so happened that, a Bhakta of Baba, reviled someone behind his back before other people. On leaving aside merits he dwelt on the faults of his brother and spoke so sarcastically that, the hearers were disgusted. Generally we see that, people have a tendency to scandalize others un-necessarily and this brings on ill-feelings. Saints see scandal in another light. They say that there are various ways of cleansing or removing dirt, viz. by means of water and soap etc. but a scandal-monger has got a way of his own. He removes the dirt (faults) of others by his tongue, so in a way, he obliges the person, whom he reviles and for this he is to be thanked. Sai Baba had His own method of correcting the scandal-monger. He knew by His omniscience what the slanderer had done and when He met him at noon, near the Lendi, Baba pointed out to him a pig, that was eating filth near the fence and said to him, "Behold, how, with what relish it is gulping filth. Your conduct is similar. You go on reviling your own brethren to your heart's content. After performing many deeds of merit you are born as a human and if you act like this, how can Shirdi help you in any way?"

Needless to say that the Bhakta took the lesson to his heart and went away.

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