Wednesday, December 24, 2014

Dark parts of yourself


Confront the dark parts of yourself, and work to banish them with illumination and forgiveness. Your willingness to wrestle with your demons will cause your angels to sing. Use the pain as fuel, as a reminder of your strength.

Monday, December 22, 2014

Friday, December 19, 2014

Wednesday, December 17, 2014

गजेन्द्र मोक्ष


गजेन्द्र मोक्ष
श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में गजेन्द्र मोक्ष की कथा है । द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्रकृत भगवान के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ अध्याय में गज ग्राह के पूर्व जन्म का इतिहास है । श्रीमद्भागवत में गजेन्द्र मोक्ष आख्यान के पाठ का माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यशदायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्न नाशक और श्रेयसाधक कहा गया है। तृतीय अध्याय का स्तवन बहुत ही उपादेय है । इसकी भाषा और भाव सिद्धांत के प्रतिपादक और बहुत ही मनोहर हैं ।
(सामग्री – गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गजेन्द्र मोक्ष पुस्तिका से साभार)
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श्री शुकदेव जी ने कहा 

यों निश्चय कर व्यवसित मति से मन प्रथम हृदय से जोड लिया ।
फिर पूर्व जन्म में अनुशिक्षित इस परम मंत्र का जाप किया ॥१॥

गजेन्द्र बोला 

मन से है ऊँ नमन प्रभु को जिनसे यह जड चेतन बनता ।
जो परमपुरुष जो आदि बीज, सर्वोपरि जिसकी ईश्वरता ॥२॥

जिसमें, जिससे, जिसके द्वारा जग की सत्ता, जो स्वयं यही ।
जो कारण-कार्य परे सबके , जो निजभू आज शरण्य वही ॥३॥

अपने में ही अपनी माया से ही रचे हुए संसार ।
को हो कभी प्रकट, अन्तर्हित, कभी देखता उभय प्रकार ॥
जो अविद्धदृक साक्षी बन कर, जो परसे भी सदा परे ।
है जो स्वयं प्रकाशक अपना, मेरी रक्षा आज करे ॥४॥

लोक, लोकपालों का, इन सबके कारण का भी संहार ।
कर देता संपूर्ण रूप से महाकाल का कठिन कुठार ॥
अंधकार तब छा जाता है, एक गहन गंभीर अपार ।
उसके पार चमकते जो विभु, वे में मुझको आज संभार ॥५॥

देवता तथा ऋषि लोग नही जिनके स्वरूप को जान सके ।
फिर कौन दूसरा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना रूप धरे , लीला अनेक नटतुल्य रचा ।
है दुर्गम जिनका चरितसिंधु , वे महापुरुष लें मुझे बचा ॥६॥

जो साधु स्वाभवी , सर्व सुहृद वे मुनिगण भी सब सग छोड ।
बस केवल मात्र आत्मा का सब भूतों से संबंध जोड ॥
जिनके मंगलमय पद दर्शन की इच्छा से वन मे पालन ।
करते अलोक व्रत का अखंड , वे ही हैं मेरे अवलम्बन ॥७॥

जिसका होता है जन्म नही, केवल होता भ्रम से प्रतीत ।
जो कर्म और गुण दोष तथा जो नाम रूप से है अतीत ॥
रचनी होती जब सृष्टि किंतु, जब करना होता उसका लय ।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धर्मों को वह यथा समय ॥८॥

उस परमेश्वर, उस परमब्रह्म, उस अमित शक्ति को नमस्कार ।
जो अद्भुतकर्मा जो अरूप फिर भी लेता बहुरूप धार ॥९॥

परमात्मा जो सबका साक्षी, उस आत्मदीप को नमस्कार ।
जिसतक जाने में पथ में ही जाते वाणी मन चित्त हार ॥१०॥

बन सतोगुणी सुनिवृत्तिमार्ग से पाते जिसको विद्वज्जन ।
जो सुखस्वरूप निर्वाण जनित, जो मोक्षधामपति, उसे नमन ॥११॥

जो शान्त, घोर, जडरूप प्रकट होते तीनों गुण धर्म धार ।
उन सौम्य ज्ञान घन निर्विशेष को नमस्कार है, नमस्कार ॥१२॥

सबके स्वामी, सबके साक्षी, क्षेत्रज्ञ ! तुझे है नमस्कार ।
हे आत्ममूल हे मूल प्रकृति, हे पुरुष नमस्ते बार बार ॥१३॥

इन्द्रिय विषयों का जो दृष्टा, इन्द्रियानुभव का जो कारन ।
जो व्यक्त असत की छाया में, हे सदाभास ! है तुझे नमन ॥१४॥

सबके कारण निष्कारण भी, हे विकृतिरहित सबके कारण ।
तेरे चरणों में बारबार है नमस्कार मेरा अर्पण ॥
सब श्रुतियों, शास्त्रों का सारे, जो केवल एक अगाध निलय ।
उस मोक्षरूप को नमस्कार, जिसमें पाते सज्जन आश्रय ॥१५॥

जो ज्ञानरूप से छिपा गुणों के बीच, काष्ठ में यथा अनल ।
अभिव्यक्ति चाहता मन जिसका, जिस समय गुणों में हो हलचल ॥
मैं नमस्कार करता उनको, जो स्वयं प्रकाशित हैं उनमें ।
आत्मालोचन करके न रहे जो विधि निषेध के बंधन में ॥१६॥

जो मेरे जैसे शरणागत जीवों का हरता है बंधन ।
उस मुक्त अमित करुणा वाले, आलस्य रहित के लिये नमन ॥
सब जीवों के मन के भीतर, जो हैं प्रतीत प्रत्यक्चेतन ।
बन अन्तर्यामी, हे भगवन! हे अपरिछिन्न ! है तुझे नमन ॥१७॥

जिसका मिलना है सहज नही, उन लोगों को जो सदा रमें ।
लोगों में, धन में, मित्रों में, अपने में, पुत्रों में, घर में ॥
जो निर्गुण, जिसका हृदय बीच जन अनासक्त करते चिन्तन ।
हे ज्ञानरूप ! हे परमेश्वर ! हे भगवन ! मेरा तुझे नमन ॥१८॥

जिनको विमोक्ष-धर्मार्थ काम की इच्छा वाले जन भज कर ।
वांछित फल को पा लेते हैं; जो देते तथा अयाचित वर ॥
भी अपने भजने वालों को, कर देते उनकी देह अमर ।
लें वे ही आज उबार मुझे, इस संकट से करुणासागर ॥१९॥

जिनके अनन्य जन धर्म, अर्थ या काम मोक्ष पुरुषार्थ-सकल ।
की चाह नही रखते मन में, जिनकी बस, इतनी रुचि केवल ॥
अत्यन्त विलक्षण श्री हरि के जो चरित परम मंगल सुन्दर ।
आनन्द-सिंधु में मग्न रहें , गा गा कर उनको निसि-वासर ॥२०॥

जो अविनाशी, जो सर्व व्याप्त. सबका स्वामी, सबके ऊपर ।
अव्यक्त किन्तु अध्यात्म मार्ग के पथिकों को जो है गोचर ॥
इन्द्रियातीत अति दूर सदृश जो सूक्ष्म तथा जो हैं अपार ।
कर कर बखान मैं आज रहा, उस आदि पुरुष को ही पुकार ॥२१॥

उत्पन्न वेद, ब्रह्मादि देव, ये लोक सकल , चर और अचर ।
होते जिसकी बस, स्वल्प कला से नाना नाम रूप धरकर ॥२२॥

ज्यों ज्वलित अग्नि से चिंगारी, ज्यों रवि से किरणें निकल निकल ।
फिर लौट उन्ही में जाती हैं, गुण कृत प्रपंच उस भाँति सकल ॥
मन बुद्दि सभी इन्द्रियों तथा सब विविध योनियों वाले तन ।
का जिससे प्रकटन हो जिसमें, हो जाता है पुनरावर्त्तन ॥२३॥

वह नही देव, वह असुर नही, वह नही मर्त्य वह क्लीब नही ।
वह कारण अथवा कार्य नही, गुण, कर्म, पुरुष या जीव नही ॥
सबका कर देने पर निषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वही ।
जो है अशेष हो प्रकट आज, हर ले मेरा सब क्लेश वही ॥२४॥

कुछ चाह न जीवित रहने की जो तमसावृत बाहर-भीतर -
ऐसे इस हाथी के तन को क्या भला करूंगा मैं रखकर ?
इच्छा इतनी-बन्धन जिसका सुदृढ न काल से भी टूटे ।
आत्मा की जिससे ज्योति ढँकी, अज्ञान वही मेरा छूटे ॥२५॥

उस विश्व सृजक , अज, विश्व रूप, जग से बाहर जग-सूत्रधार ।
विश्वात्मा, ब्रह्म, परमपद को, इस मोक्षार्थी का नमस्कार ॥२६॥

निज कर्मजाल को, भक्ति योग से जला, योग परिशुद्ध हृदय ।
में जिसे देखते योगीजन , योगेश्वर प्रति मैं नत सविनय ॥२७॥

हो सकता सहन नही जिसकी त्रिगुणात्मक शक्ति का वेग प्रबल ।
जो होता तथा प्रतीत धरे इन्द्रिय विषयों का रूप सकल ॥
जो दुर्गम उन्हें मलिन विषयों में जो कि इन्द्रियों के उलझे ।
शरणागत-पालक अमित शक्ति हे! बारंबार प्रणाम तुझे ॥२८॥

अनभिज्ञ जीव जिसकी माय, कृत अहंकार द्वारा उपहत ।
निज आत्मा से मैं उस दुरन्त महिमामय प्रभु के शरणागत ॥२९॥

श्री शुकदेव जी ने कहा 

यह निराकार-वपु भेदरहित की स्तुति गजेन्द्र वर्णित सुनकर ।
आकृति विशेषवाले रूपों के अभिमानी ब्रह्मादि अमर ॥
आये जब उसके पास नही , तब श्री हरि जो आत्मा घट घट ।
के होने से सब देव रूप, हो गये वहाँ उस काल प्रकट ॥३०॥

वे देख उसे इस भाँति दुःखी , उसका यह आर्त्तस्तव सुनकर ।
मन-सी गति वाले पक्षी राज की चढे पीठ ऊपर सत्वर ॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, निज कर में चक्र उठाये थे ।
तब जगनिवास के साथ साथ, सुर भी स्तुति करते आये थे ॥३१॥

अतिशय बलशाली ग्राह जिसे था पकडे हुए सरोवर में ।
गजराज देखकर श्री हरि को, आसीन गरुड पर अंबर में ॥
खर चक्र हाथ में लिये हुए, वह दुखिया उठा कमल करमें ।
‘हे विश्व-वन्द्य प्रभु ! नमस्कार’ यह बोल उठा पीडित स्वर में ॥३२॥

पीडा में उसको पडा देख, भगवान अजन्मा पडे उतर ।
अविलम्ब गरुड से फिर कृपया झट खींच सरोवर से बाहर ॥
कर गज को मकर-सहित, उसका मुख चक्रधार से चीर दिया ।
देखते-देखते सुरगण के हरि ने गजेन्द्र को छुडा लिया ॥३३॥
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!**नमो नारायण*!!
प्रातर्भजामि भजताम भयाकरं तं
प्राकसर्वजन्मकृतपापभयापहत्यै!
यो ग्राहवक्त्रपतितांगघ्रिगजेन्द्रघोर
शोकप्रणाशनकरो धृतशंखचक्र:!!
जिसने शंख-चक्र धारण करके ग्राह के मुख में पड़े हुए चरण वाले गजेन्द्र के घोर संकट का नाश किया, भक्तों को अभय करने वाले उन भगवान को अपने पूर्वजन्मों के सब पापों का नाश करने के लिये प्रात:काल भजना  चाहिए !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय!!
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Tuesday, December 16, 2014

WORRY & FEELINGS



The head worries and the heart feels. They cannot function at the same time. When your feelings dominate, worry dissolves. If you worry a lot, your feelings are dead; you are stuck in the head. Worrying makes your mind and heart inert and dull. Worries are like a rock in the head. Worry entangles you. Worry puts you in a cage. When you feel, you do not worry.

Feelings are like flowers, they come up, they blossom and they die. Feelings rise, they fall and then disappear. When feelings are expressed, you feel relieved. When you are angry, you express your anger and the next moment you are all right. Or you are upset, you cry and you get over it. Feelings last for some short time and then they drop, but worry eats at you for a longer period of time, and eventually eats you up.

Saturday, December 6, 2014

श्री दातात्रेय वंदना


*श्री दातात्रेय वंदना*
जै जै अवधूत पिता शरण तेरी हम आए l 
माया के प्रपंच से हम को ल्यों बचाए ll
जै जै साईं दातात्रेय जै त्रिभुवन के नाथ l
जगहितकारण अवतरे कीन्हो हमें सनाथ ll
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Thursday, December 4, 2014

श्री गुरुवे नमः


"गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवों महेश्वरा गुरुर साक्षात् परब्रह्म त्समई श्री गुरुवे नमः"


Wednesday, December 3, 2014

साई चरणों में प्रणाम


साई चरणों में प्रणाम 

हे साई प्रभु ! हे हमारे माता-पिता !
हे हमारे पालक-रक्षक-उद्धारक स्वामी !
हे करुणानिधान ! हे दिनबंधु ! हे दया के सागर ! हे कृपासिंधु !
आपके पावन चरणों में मेरा सादर प्रणाम ।
आपके निराकार स्वरुप को प्रणाम ।
आपके साकार स्वरुप को प्रणाम ।
शिरडी धाम को प्रणाम । समाधि मंदिर को प्रणाम ।
वहाँ आपकी दिव्य जीवंत प्रतिमा को प्रणाम ।
वहाँ आपकी परम चैतन्य समाधि को प्रणाम ।
वहाँ जलते दीपों को प्रणाम ।
वहाँ आपके पावन श्री चरणों को सादर प्रणाम ।
अतिशय जाग्रत द्वारकामाई मस्जिद को प्रणाम ।
वहाँ जलते दीपों को प्रणाम ।
वहाँ आपकी दिव्य तस्वीरों को प्रणाम ।
वहाँ प्रज्जवलित धूनी को प्रणाम ।
पवित्र उदी को प्रणाम ।
निम्ब वृक्ष को प्रणाम ।
पावन गुरुस्थान को प्रणाम ।
वहाँ जलते दीपों को प्रणाम ।
वहाँ आपकी तस्वीरों एवं मूर्तियों को प्रणाम ।
वहाँ आपके परम कल्याणकारी श्री चरणों को सादर प्रणाम ।
लेंडी बाग को प्रणाम ।
नंदादीप को प्रणाम । भगवान द्त्तात्रेय को प्रणाम ।
महादेव को प्रणाम । गणपति देव को प्रणाम ।
मारुति देव को प्रणाम । शनि देव को प्रणाम ।
देवी माँ दुर्गा को प्रणाम । देवी माँ काली को प्रणाम ।
देवी माँ सरस्वती को प्रणाम । देवी माँ लक्ष्मी को प्रणाम ।
सभी देवी-देवताओं को सादर प्रणाम ।
परायणकक्ष को प्रणाम । वहाँ जलते दीप को प्रणाम ।
वहाँ आपकी दिव्य तस्वीर को प्रणाम ।
चावड़ी को प्रणाम ।
वहाँ जलते दीपों को प्रणाम ।
वहाँ आपकी तस्वीरों को प्रणाम ।
खण्डोबा मंदिर को प्रणाम ।
खण्डोबा भगवान को प्रणाम ।
वहाँ आपके भिक्षुक स्वरुप को प्रणाम ।
आपकी लीलाओं के साक्षी रहे आपके सभी अनन्य भक्तों को सादर प्रणाम ।

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