Wednesday, October 10, 2012

shirdi sai baba teachings

बाघ की मुक्ति

बाबा के समाधिस्थ होने के सात दिन पूर्व शिरडी में एक विचित्र घटना घटी । मस्जिद के सामने एक बैलगाड़ी आकर रुकी, जिस पर एक बाघ जंजीरों से बँधा हुआ था । उसका भयानक मुख गाड़ी के पीछे की ओर था । वह किसी अज्ञात पीड़ा या दर्द से दुःखी था । उसके पालक तीन दरवेश थे, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में जाकर उसके नित्य प्रदर्शन करते और इस प्रकार यथेष्ठ द्रव्य संचय करते थे और यही उनके जिविकोपार्जन का एक साधन था । उन्होंने उसकी चिकित्सा के सभी प्रयत्न किये, परन्तु सब कुछ व्यर्थ हुआ । कहीं से बाबा की कीर्ति उनके कानों में पड़ गई और वे बाघ को लेकर साई दरबार में आये । हाथों से जंजीरें पकड़कर उन्होंने बाघ को मस्जिद के दरवाजे पर खड़ा कर दिया । वह स्वभावतः ही भयानक था, पर रुग्ण होने के कारण वह बेचैन था । लोग भय और आश्चर्य के साथ उसकी ओर देखने लगे । दरवेश अन्दर आये और बाबा को सब हाल बताकर उनकी आज्ञा लेकर वे बाघ को उनके सामने लाये । जैसे ही वह सीढ़ियों के समीप पहुँचा, वैसे ही बाबा के तेजःपुंज स्वरुप का दर्शन कर एक बार पीछे हट गया और अपनी गर्दन नीचे झुका दी । जब द
ोनों की दृष्टि आपस में एक हुई तो बाघ सीढ़ी पर चढ़ गया और प्रेमपूर्ण दृष्टि से बाबा की ओर निहारने लगा । उसने अपनी पूँछ हिलाकर तीन बार जमीन पर पटकी और फिर तत्क्षण ही अपने प्राण त्याग दिये । उसे मृत देखकर दरवेशी बड़े निराश और दुःखी हुए । तत्पश्चात जब उन्हें बोध हुआ तो उन्होंने सोचा कि प्राणी रोगग्रस्त था ही और उसकी मृत्यु भी सन्निकट ही थी । चलो, उसके लिये अच्छा ही हुआ कि बाबा सरीखे महान् संत के चरणों में उसे सदगति प्राप्त हो गई । वह दरवेशियों का ऋणी था और जब वह ऋण चुक गया तो वह स्वतंत्र हो गया और जीवन के अन्त में उसे साई चरणों में सदगति प्राप्त हुई । जब कोई प्राणी संतों के चरणों पर अपना मस्तक रखकर प्राण त्याग दे तो उसकी मुक्ति हो जाती है । पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों के अभाव में ऐसा सुखद अंत प्राप्त होना कैसे संभव है ?
(श्री साई सच्चरित्र)

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