बाबा ने हिन्दुओं की मूर्तियों तथा देवी-देवताओ की जरा सी उपेक्षा भी कभी सहन नहीं की।
एक बार नानासाहेब चाँदोरकर अपने साढू (साली के पति) श्री बिनीवले के साथ शिरडी आये । जब वे मस्जिद में पहुँचे, बाबा वार्तालाप करते हुए अनायास ही क्रोधित होकर कहने लगे कि, "तुम दीर्घकाल से मेरे सानिध्य में हो, फिर भी ऐसा आचरण क्यों करते हो ?" नानासाहेब प्रथमतः इन शब्दों का कुछ भी अर्थ न समझ सके । अतः उन्होंने अपना अपराध समझाने की प्रार्थना की । प्रत्युत्तर में बाबा ने कहा कि, "तुम कब कोपरगाँव आये और फिर वहाँ से कैसे शिरडी आ पहुँचे ?" तब नानासाहेब को अपनी भूल तुरन्त ही ज्ञात हो गयी । उनका यह नियम था कि शिरडी आने से पूर्व वे कोपरगाँव में गोदावरी के तट पर स्थित 'श्री दत्त' का पूजन किया करते थे । परन्तु रिश्तेदार के दत-उपासक होने पर भी इस बार विलम्ब होने के भय से उन्होंने उनको भी दत्त मंदिर में जाने से हतोत्साहित किया और वे दोनों सीधे शिरडी चले आये थे । अपना दोष स्वीकार कर उन्होंने कहा कि "गोदावरी स्नान करते समय पैर में एक बड़ा काँटा चुभ जाने के कारण अधिक कष्ट हो गया था ।" बाबा ने कहा कि "यह तो बहुत छोटा सा दंड था" और उन्हें भविष्य में ऐसे आचरण के लिये सदैव सावधान रहने की चेतावनी दी ।
(श्री साई सच्चरित्र)