Thursday, July 18, 2013

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 33


अध्याय 33 
 उदी की महिमा, बिच्छू का डंक, प्लेग की गाँठ, जामनेर का चमत्कार, नारायण राव, बाला बुवा सुतार, अप्पा साहेब कुलकर्णी, हरीभाऊ कर्णिक ।

पूर्व अध्याय में गुरु की महानता का दिग्दर्शन कराया गया है । अब इस अध्याय में उदी के माहात्म्य का वर्णन किया जायेगा ।
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प्रस्तावना
आओ, पहले हम सन्तों के चरणों में प्रणाम करें, जिनकी कृपादृष्टि मात्र से ही समस्त पापसमूह भस्म होकर हमारे आचरण के दोष नष्ट हो जायेंगे । उनसे वार्तालाप करना हमारे लिये शिक्षाप्रद और अति आनन्ददायक है । वे अपने मन में "यह मेरा और वह तुम्हारा" ऐसा कोई भेद नहीं रखते । इस प्रकार के भेदभाव की कल्पना उनके हृदय में कभी भी उत्पन्न नहीं होती । उनका ऋण इस जन्म में तो क्या, अनेक जन्मों में भी न चुकाया जा सकेगा ।

उदी (विभूति)
यह सर्वविदित है कि बाबा सबसे दक्षिणा लिया करते थे तथा उस धन राशि में से दान करने के पश्चात् जो कुछ भी शेष बचता, उससे वे ईधन मोल लेकर सदैव धूनी प्रज्वलित रखते थे । इसी धूनी की भस्म ही "उदी" कहलाती है । भक्तों के शिरडी से प्रस्थान करते समय यह भस्म मुक्तहस्त से उन सभी को वितरित कर दी जाती थी ।
इस उदी से बाबा हमें क्या शिक्षा देते है ? उदी वितरण कर बाबा हमें शिक्षा देते है कि इस अंगारे की तरह गोचर होने वाले ब्रह्मांड का प्रतिबिम्ब भस्म के ही समान है । हमारा तन भी ईधन सदृश ही है, अर्थात् पंचभूतादि से निर्मित है, जो कि सांसारिक भोगादि के उपरांत विनाश को प्राप्त होकर भस्म के रुप में परिणत हो जायेगा ।
भक्तों को इस बात की स्मृति दिलाने के हेतु ही कि अन्त में यह देह भस्म सदृश होने वाला है, बाबा उदी वितरण किया करते थे । बाबा इस उदी के द्वारा एक और भी शिक्षा प्रदान करते है कि इस संसार में ब्रह्म ही सत्य और जगत् मिथ्या है । इस संसार में वस्तुतः कोई किसी का पिता, पुत्र अथवा स्त्री नहीं हैं । हम जगत में अकेले ही आये है और अकेले ही जायेंगे । पूर्व में यह देखने में आ चुका है और अभी भी अनुभव किया जा रहा है कि इस उदी ने अनेक शारीरिक और मानसिक रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान किया है । यथार्थ में बाबा तो भक्तों को दक्षिणा और उदी द्वारा सत्य और असत्य में विवेक तथा असत्य के त्याग का सिद्घान्त समझाना चाहते थे । इस उदी से वैराग्य और दक्षिणा से त्याग की शिक्षा मिलती है । इन दोनों के अभाव में इस मायारुपी भवसागर को पार करना कठिन है, इसलिये बाबा दूसरे के भोग स्वयं भोग कर दक्षिणा स्वीकार कर लिया करते थे । जब भक्तगण विदा लेते, तब वे प्रसाद के रुप में उदी देकर और कुछ उनके मस्तक पर लगाकर अपना वरद-हस्त उनके मस्तक पर रखते थे । जब बाबा प्रसन्न चित्त होते, तब वे प्रेमपूर्वक गीत गाया करते थे । ऐसा ही एक भजन उदी के सम्बन्ध में भी है । भजन के बोल है, "रमते राम आओ जो आओ जी, उदिया की गोनियाँ लाओजी ।" यह बाबा शुद्ध और मधुर स्वर में गाते थे ।
यह सब तो उदी के आध्यात्मिक प्रभाव के सम्बन्ध में हुआ, परन्तु उसमें भौतिक प्रभाव भी था, जिससे भक्तों को स्वास्थ्य समृद्घि, चिंतामुक्ति एवं अनेक सांसारिक लाभ प्राप्त हुए । इसलिये उदी हमें आध्यात्मिक और सांसारिक लाभ पहुँचाती है । अब हम उदी की कथाएँ प्रारम्भ करते है ।

बिच्छू का डंक
नासिक के श्री. नारायण मोतीराम जानी बाबा के परम भक्त थे । वे बाबा के अन्य भक्त रामचंद्र वामन मोडक के अधीन काम करते थे । एक बार वे अपनी माता के साथ शिरडी गये तथा बाबा के दर्शन का लाभ उठाया । तब बाबा ने उनकी माँ से कहा कि, "अब तुम्हारे पुत्र को नौकरी छोड़कर स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहिये ।" कुछ दिनों में बाबा के वचन सत्य निकले । नारायण जानी ने नौकरी छोड़कर एक उपाहार गृह 'आनंदाश्रम' चलाना प्रारम्भ कर दिया, जो अच्छी तरह चलने लगा । एक बार नारायण राव के एक मित्र को बिच्छू ने काट लिया, जिससे उसे असहनीय पीड़ा होने लगी । ऐसे प्रसंगों में उदी तो रामबाण प्रसिदृ ही है । काटने के स्थान पर केवल उसे लगा ही तो देना है । नारायण ने उदी खोजी, परन्तु कहीं न मिल सकी । उन्होंने बाबा के चित्र के समक्ष खड़े होकर उनसे सहायता की प्रार्थना की और उनका नाम लेते हुए, उनके चित्र के सम्मुख जलती हुई अगरबत्ती में से एक चुटकी भस्म बाबा की उदी मानकर बिच्छू के डंक मारने के स्थान पर लेप कर दिया । वहाँ से उनके हाथ हटाते ही पीड़ा तुरंत मिट गई और दोनों अति प्रसन्न होकर चले गये ।

प्लेग की गाँठ
एक समय एक भक्त बाँद्रा में था । उसे वहाँ पता चला कि उसकी लड़की, जो दूसरे स्थान पर है, प्लेगग्रस्त है और उसे गिल्टी निकल आई है । उनके पास उस समय उदी नहीं थी, इसलिये उन्होंने नाना चाँदोरकर के पास उदी भेजने के लिये सूचना भेजी । नानासाहेब ठाणे रेल्वे स्टेशन के समीप ही रास्ते में थे । जब उनके पास यह सूचना पहुँची, वे अपनी पत्नी सहित कल्याण जा रहे थे । उनके पास भी उस समय उदी नहीं थी । इसीलिये उन्होंने सड़क पर से कुछ धूल उठाई और श्री साईबाबा का ध्यान कर उनसे सहायता की प्रार्थना की तथा उस धूल को अपनी पत्नी के मस्तक पर लगा दिया । वह भक्त खड़े-खड़े यह सब नाटक देख रहा था । जब वह घर लौटा तो उसे जानकर अति हर्ष हुआ कि जिस समय से नानासाहेब ने ठाणे रेल्वे स्टेशन के पास बाबा से सहायता करने की प्रार्थना की, तभी से उनकी लड़की की स्थिति में पर्याप्त सुधार हो चला था, जो गत तीन दिनों से पीड़ित थी ।

जामनेर का विलक्षण चमत्कार
सन् 1904-05 में नानासाहेब चाँदोरकर खानदेश जिले के जामनेर में मामलतदार थे । जामनेर शिरडी से लगभग 100 मील से भी अधिक दूरी पर है । उनकी पुत्री मैनाताई गर्भावस्था में थी और प्रसव काल समीप ही था । उसकी स्थिति अति गम्भीर थी । 2-3 दिनों से उसे प्रसव-वेदना हो रही थी । नानासाहेब ने सभी संभव प्रयत्न किये, परन्तु वे सब व्यर्थ ही सिदृ हुए । तब उन्होंने बाबा का ध्यान किया और उनसे सहायता की प्रार्थना की । उस समय शिरडी में एक रामगीर बुवा, जिन्हें बाबा बापूगीर बुवा के नाम से पुकारते थे, अपने घर खानदेश को लौट रहे थे । बाबा ने उन्हें अपने समीप बुलाकर कहा कि तुम घर लौटते समय थोड़ी देर के लिये जामनेर में उतरकर यह उदी और आरती श्री. नानासाहेब को दे देना । रामगीर बुवा बोले कि, "मेरे पास केवल दो ही रुपये है, जो कठिनाई से जलगाँव तक के किराये को ही पर्याप्त होंगे । फिर ऐसी स्थिति में जलगाँव से और 30 मील आगे जाना मेरे लिए कैसे संभव होगा?" बाबा ने उत्तर दिया कि, "चिंता की कोई बात नहीं । तुम्हारी सब व्यवस्था हो जायेगी ।" तब बाबा ने शामा से माधव अडकर द्वारा रचित प्रसिदृ आरती की प्रतिलिपि कराई और उदी के साथ नानासाहेब के पास भेज दी । बाबा के वचनों पर विश्वास कर रामगीर बुवा ने शिरडी से प्रस्थान कर दिया और पौने तीन बजे रात्रि को जलगाँव पहुँचे । इस समय उनके पास केवल दो आने ही शेष थे, जिससे वे बड़ी दुविधा में थे । इतने में ही एक आवाज उनके कानों में पड़ी कि, "शिरडी से आये हुए बापूगीर बुवा कौन है?" उन्होंने आगे बढ़कर बतलाया कि, "मैं ही शिरडी से आ रहा हूँ और मेरा ही नाम बापूगीर बुवा है ।" उस चपरासी ने, जो कि अपने आपको नानासाहेब चाँदोरकर द्वारा भेजा हुआ बतला रहा था, उन्हें बाहर लाकर एक शानदार ताँगे में बिठाया, जिसमें दो सुन्दर घोड़ी जुते हुए थे । अब वे दोनों रवाना हो गये । ताँगा बहुत वेग से चल रहा था । प्रातःकाल वे एक नाले के समीप पहुँचे, जहाँ ताँगेवाले ने ताँगा रोककर घोड़ों को पानी पिलाया । इसी बीच चपरासी ने रामगीर बुवा से थोड़ा सा नाश्ता करने को कहा । उसकी दाढ़ी-मूछें तथा अन्य वेशभूषा से उसे मुसलमान समझकर उन्होंने जलपान करना अस्वीकार कर दिया । तब उस चपरासी ने कहा कि मैं गढ़वाल का क्षत्रिय वंशी हिन्दू हूँ । यह सब नाश्ता नानासाहेब ने आपके लिये ही भेजा है तथा इसमें आपको कोई आपत्ति और संदेह नहीं करना चाहिये । तब वे दोनों जलपान कर पुनः रवाना हुए और सूर्योदय काल में जामनेर पहुँच गये । रामगीर बुवा लघुशंका को गये और थोड़ी देर में जब वे लौटकर आये तो क्या देखते है कि वहाँ पर न तो ताँगा था, और न ताँगेवाला और न ही ताँगे के घोड़े । उनके मुख से एक शब्द भी न निकल रहा था । वे समीप ही कचहरी में पूछताछ करने गये और वहाँ उन्हें बतलाया कि इस समय मामलतदार घर पर ही है । वे नानासाहेब के घर गये और उन्हें बतलाया कि, "मैं शिरडी से बाबा की आरती और उदी लेकर आ रहा हूँ ।" उस समय मैनाताई की स्थिति बहुत ही गंभीर थी और सभी को उसके लिये बड़ी चिंता थी । नानासाहेब ने अपनी पत्नी को बुलाकर उदी को जल में मिलाकर अपनी लड़की को पिला देने और आरती करने को कहा । उन्होंने सोचा कि बाबा की सहायता बड़ी सामयिक है । थोड़ी देर में ही समाचार प्राप्त हुआ कि प्रसव कुशलतापूर्वक होकर समस्त पीड़ा दूर हो गई है । जब रामगीर बुवा ने नानासाहेब को चपरासी, ताँगा तथा जलपान आदि रेलवे स्टेशन पर भेजने के लिये धन्यवाद दिया तो नानासाहेब को यह सुनकर महान् आश्चर्य हुआ और वे कहने लगे कि मैने न तो कोई ताँगा या चपरासी ही भेजा था और न ही मुझे शिरडी से आपके पधारने की कोई पूर्वसूचना ही थी !
ठाणे के सेवानिवृत श्री. बी. व्ही. देव ने नानासाहेब चाँदोरकर के पुत्र बापूसाहेब चाँदोरकर और शिरडी के रामगीर बुवा से इस सम्बन्ध में बड़ी पूछताछ की और फिर संतुष्ट होकर श्री साईलीला पत्रिका, भाग 13 (नं 11,12,13) में गद्य और पद्य में एक सुन्दर रचना प्रकाशित की । भाई श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी ने भी (1) मैनाताई (भाग 5, पृष्ठ 14), (2) बापूसाहेब चाँदोरकर (भाग 20, पृष्ठ 50) और (3) रामगीर बुवा (भाग 27, पृष्ठ 83) के कथन लिये है, जो कि क्रमशः 1 जून 1936, 16 सितम्बर 1936 और दिसम्बर 1936 को छपे है और यह सब उन्होंने अपनी पुस्तक भक्तों के अनुभव भाग 3 में प्रकाशित किये है । निम्नलिखित प्रसंग रामगीर बुवा ने कथनानुसार उदधृत किया जाता है ।"एक दिन मुझे बाबा ने अपने समीप बुलाकर एक उदी की पुड़िया और एक आरती की प्रतिलिपि देकर आज्ञा दी कि जामनेर जाओ और यह आरती तथा उदी नानासाहेब को दे दो । मैंने बाबा को बताया कि मेरे पास केवल दो रुपये ही है, जो कि कोपरगाँब से जलगाँव जाने और फिर वहाँ से बैलगाड़ी द्वारा जामनेर जाने के लिये अपर्याप्त है । बाबा ने कहा "अल्ला देगा ।" शुक्रवार का दिन था । मैं शीघ्र ही रवाना हो गया । मैं मनमाड 6-30 बजे सायंकाल और जलगाँव रात्रि को 2 बजकर 45 मिनट पर पहुँचा । उस समय प्लेग निवारक आदेश जारी थे, जिससे मुझे असुविधा हुई और मैं सोच रहा था कि कैसे जामनेर पहुँचूँ । रात्रि को 3 बजे एक चपरासी आया, जो पैर में बूट पहिने था, सिर पर पगड़ी बाँधे व अन्य पोशाक भी पहने था । उसने मुझे ताँगे में बिठा लिया और ताँगा चल पड़ा । मैं उस समय भयभीत-सा हो रहा था । मार्ग में भगूर के समीप मैंने जलपान किया । जब प्रातःकाल जामनेर पहुँचा, तब उसी समय मुझे लघुशंका करने की इच्छा हुई । जब मैं लौटकर आया, तब देखा कि वहाँ कुछ भी नहीं है । ताँगा और ताँगेवाला अदृश्य है ।" 

नारायण राव
भक्त नारायण राव को बाबा के दर्शनों का तीन बार सौभाग्य प्राप्त हुआ । सन् 1918 में बाबा के महासमाधि लेने के तीन वर्ष पश्चात् वे शिरडी जाना चाहते थे, परन्तु किसी कारणवश उनका जाना न हो सका । बाबा के समाधिस्थ होने के एक वर्ष के भीतर ही वे रुग्ण हो गये । किसी भी उपचार से उन्हें लाभ न हुआ । तब उन्होंने आठों प्रहर बाबा का ध्यान करना प्रारंभ कर दिया । एक रात को उन्हें स्वप्न हुआ । बाबा एक गुफा में से उन्हें आते हुए दिखाई पड़े और सांत्वना देकर कहने लगे कि, "घबराओ नहीं, तुम्हें कल से आराम हो जायेगा और एक सप्ताह में ही चलने-फिरने लगोगे ।" ठीक उतने ही समय में नारायणराव स्वस्थ हो गये । अब यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या बाबा देहधारी होने से जीवित कहलाते थे और क्या उन्होंने देह त्याग दी, इसलिये मृत हो गये ? नहीं । बाबा अमर है, क्योंकि वे जीवन और मृत्यु से परे है । एक बार भी अनन्य भाव से जो उनकी शरण में जाता है, वह कहीं भी हो, उसे वे सहायता पहुँचाते है । वे तो सदा हमारे साथ ही खड़े है और चाहे जैसा रुप लेकर भक्त के समक्ष प्रकट होकर उसकी इच्छा पूर्ण कर देते है ।

अप्पासाहेब कुलकर्णी
सन् 1917 में अप्पासाहेब कुलकर्णी के शुभ दिन आये । उनका ठाणे को स्थानानंतरण हो गया । उन्होंने बालासाहेब भाटे द्वारा प्राप्त बाबा के चित्र का पूजन करना आरम्भ कर दिया । उन्होंने सच्चे हृदय से पूजा की । वे हर दिन फूल, चन्दन और नैवेद्य बाबा को अर्पित करते और उनके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा रखते थे । इस सम्बन्ध में इतना तो कहा जा सकता है कि उत्सुकतापूर्वक बाबा के चित्र को देखना ही बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन के सदृश है । नीचे लिखी कथा से यह बात स्पष्ट हो जाती है ।

बाला बुवा सुतार
बम्बई मे एक बालाबुवा नाम के संत थे, जो कि अपनी भक्ति, भजन और आचरण के कारण 'आधुनिक तुकाराम' के नाम से विख्यात थे । सन् 1917 में वे शिरडी आये । जब उन्होंने बाबा को प्रणाम किया तो बाबा कहने लगे कि मैं तो इन्हें चार वर्षों से जानता हूँ । बालाबुवा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि मैं तो प्रथम बार ही शिरडी आया हूँ, फिर यह कैसे संभव हो सकता है? गहन चिन्तन करने पर उन्हें स्मरण हुआ कि चार वर्ष पूर्व उन्होंने बम्बई में बाबा के चित्र को नमस्कार किया था । उन्हें बाबा के शब्दों की यथार्थता का बोध हो गया और वे मन ही मन कहने लगे कि संत कितने सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी होते है तथा अपने भक्तों के प्रति उनके हृदय में कितनी दया होती है । मैंने तो केवल उनके चित्र को ही नमस्कार किया था तो भी यह घटना उनको ज्ञात हो गई । इसलिए उन्होंने मुझे इस बात का अनुभव कराया है कि उनके चित्र को देखना ही उनके दर्शन करने के सदृश है ।
अब हम अप्पासाहेब की कथा पर आते है । जब वे ठाणे में थे तो उन्हें भिवंडी दौरे पर जाना पड़ा, जहां से उन्हें एक सप्ताह में लौटना संभव न था । उनकी अनुपस्थिति में तीसरे दिन उनके घर में निम्नलिखित विचित्र घटना हुई । दोपहर के समय अप्पासाहेब के गृह पर एक फकीर आया, जिसकी आकृति बाबा के चित्र से ही मिलती-जुलती थी । श्रीमती कुलकर्णी तथा उनके बच्चों ने उनसे पूछा कि आप शिरडी के श्री साईबाबा तो नहीं है? इस पर उत्तर मिला कि वे तो साईबाबा के आज्ञाकारी सेवक है और उनकी आज्ञा से ही आप लोगों की कुशल-क्षेम पूछने यहाँ आये है । फकीर ने दक्षिणा माँगी तो श्रीमती कुलकर्णी ने उन्हें एक रुपया भेंट किया । तब फकीर ने उन्हें उदी की एक पुड़िया देते हुए कहा कि इसे अपने पूजन में चित्र के साथ रखो । इतना कहकर वह वहाँ से चला गया । अब बाबा की अदभुत लीला सुनिये ।
भिवंडी में अप्पासाहेब का घोड़ा बीमार हो गया, जिससे वे दौरे पर आगे न जा सके । तब उसी शाम को वे घर लौट आये । घर आने पर उन्हें पत्नी के द्वारा फकीर के आगमन का समाचार प्राप्त हुआ । उन्हें मन में थोड़ी अशांति-सी हुई कि मैं फकीर के दर्शनों से वंचित रह गया तथा पत्नी द्वारा केवल एक रुपया दक्षिणा देना उन्हें अच्छा न लगा । वे कहने लगे कि यदि मैं उपस्थित होता तो 10 रुपये से कम कभी न देता । तब वे फिर भूखे ही फकीर की खोज में निकल पड़े । उन्होंने मस्जिद एवं अन्य कई स्थानों पर खोज की, परन्तु उनकी खोज व्यर्थ ही सिदृ हुई । पाठक अध्याय 32 में कहे गये बाबा के वचनों का स्मरण करें कि भूखे पेट ईश्वर की खोज नहीं करनी चाहिये । अप्पासाहेब को शिक्षा मिल गई । वे भोजन के उपरांत जब अपने मित्र श्री. चित्रे के साथ घूमने को निकले, तब थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हें सामने से एक फकीर द्रुत गति से आता हुआ दिखाई पड़ा । अप्पासाहेब ने सोचा कि यह तो वही फकीर प्रतीत होता है, जो मेरे घर पर आया था तथा उसकी आकृति भी बाबा के चित्र के अनुरुप ही है । फकीर ने तुरन्त ही हाथ बढ़ाकर दक्षिणा माँगी । अप्पासाहेब ने उन्हें एक रुपया दे दिया, तब वह और माँगने लगा । अब अप्पासाहेब ने दो रुपये दिये । तब भी उसे संतोष न हुआ । उन्होंने अपने मित्र चित्रे से 3 रुपये उधार लेकर दिये, फिर भी वह माँगता ही रहा । तब अप्पासाहेब ने उसे घर चलने को कहा । सब लोग घर पर आये और अप्प्साहेब ने उन्हें 3 रुपये और दिये अर्थात् कुल 9 रुपये, फिर भी वह असन्तुष्ट प्रतीत होता था और माँगे ही जा रहा था । तब अप्पासाहेब ने कहा कि मेरे पास तो 10 रुपये का नोट है । तब फकीर ने नोट ले लिया और 9 रुपये लौटाकर चला गया । अप्पासाहेब ने 10 रुपये देने को कहा था, इसलिये उनसे 10 रुपये ले लिये और बाबा द्वारा स्पर्शित 9 रुपये उन्हें वापस मिल गये । अंक 9 रुपये अर्थपूर्ण है तथा नवविद्या भक्ति की ओर इंगित करते है (देखो अध्याय 21) । यहाँ ध्यान दें कि लक्ष्मीबाई को भी उन्होंने अंत समय में 9 रुपये ही दिये थे।
उदी की पुड़िया खोलने पर अप्पासाहेब ने देखा कि उसमें फूल के पत्ते और अक्षत है । जब वे कालान्तर में शिरडी गये तो उन्हें बाबा ने अपना एक केश भी दिया । उन्होंने उदी और केश को एक ताबीज में रखा और उसे वे सदैव हाथ पर बाँधते थे । अब अप्पासाहेब को उदी की शक्ति विदित हो चुकी थी । वे कुशाग्र बुद्घि के थे । प्रथम उन्हें 40 रुपये मासिक मिलते थे, परन्तु बाबा की उदी और चित्र प्राप्त होने के पश्चात उनका वेतन कई गुना हो गया तथा उन्हें मान और यश भी मिला । इन अस्थायी आकर्षणों के अतिरिक्त उनकी आध्यात्मिक प्रगति भी शीघ्रता से होने लगी । इसलिये सौभाग्यवश जिनके पास उदी है, उन्हें स्नान करने के पश्चात मस्तक पर धारण करना चाहिये और कुछ जल में मिलाकर वह तीर्थ की तरह ग्रहण करना चाहिये ।

हरीभाऊ कर्णिक
सन् 1917 में गुरु पुर्णिमा के शुभ दिन डहाणू, जिला ठाणे के हरीभाऊ कर्णिक शिरडी आये तथा उन्होंने बाबा का यथाविधि पूजन किया । उन्होंने वस्तुएं और दक्षिणा आदि भेंट कर शामा के द्वारा बाबा से लौटने की आज्ञा प्राप्त की । वे मस्जिद की सीढ़ियों पर से उतरे ही थे कि उन्हें विचार आया कि एक रुपया और बाबा को अर्पण करना चाहिये । वे शामा को संकेत से यह सूचना देना चाहते थे कि बाबा से जाने की आज्ञा प्राप्त हो चुकी है, इसलिए मैं लौटना नहीं चाहता हूँ । परन्तु शामा का ध्यान उनकी ओर नहीं गया, इसलिए वे घर को चल पड़े । मार्ग में वे नासिक के मुख्य द्वार के भीतर बैठा करते थे, भक्तों को वहीं छोड़कर हरीभाऊ के पास आये और उनका हाथ पकड़कर कहने लगे कि, "मुझे मेरा रुपया दे दो ।" कर्णिक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सहर्ष रुपया दे दिया । उन्हें विचार आया कि मैंने बाबा को रुपया देने का मन में संकल्प किया था और बाबा ने यह रुपया नासिक के नरसिंह महाराज के द्वारा ले लिया । इस कथा से सिद्ध होता है कि सब संत अभिन्न है तथा वे किसी न किसी रुप में एक साथ ही कार्य किया करते है ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।


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