Friday, August 31, 2012

श्री हेमाडपंत कहते है



श्री हेमाडपंत कहते है कि, "हे मेरे प्यारे साई! तुम तो दया के सागर हो।" यह तो तुम्हारी ही दया का फल है, जो आज यह "साई सच्चरित्र" भक्तों के समक्ष प्रस्तुत है, अन्यथा मुझमें इतनी योग्यता कहाँ, जो ऐसा कठिन कार्य करने का दुस्साहस भी कर सकता ? जब पूर्ण उत्तरदायित्व साई ने अपने ऊपर ही ले लिया तो हेमाडपंत को तिलमात्र भी भार प्रतीत न हुआ और न ही इसकी उन्हें चिन्ता ही हुई। श्री साई ने इस ग्रन्थ के रुप में उनकी सेवा स्वीकार कर ली। यह केवल उनके पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के कारण ही सम्भव हुआ, जिसके लिये वे अपने को भाग्यशाली और कृतार्थ समझते है।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय-30)

Sai Vachan


ॐ साईं श्री साईं

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
साईं चरणन की टेक बिन, थोथे सकल आधार |
साईं खेवनहार बिन, सब डूबे मंझधार ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Thursday, August 30, 2012

"भिक्षावृत्ति की आवश्यकता"


"भिक्षावृत्ति की आवश्यकता"
अब हम भिक्षावृत्ति के प्रश्न पर विचार करेंगें । संभव है, कुछ लोगों के मन में सन्देह उत्पन्न हो कि जब बाबा इतने श्रेष्ठ पुरुष थे तो फिर उन्होंने आजीवन भिक्षावृत्ति पर ही क्यों निर्वाह किया ।

इस प्रश्न को दो दृष्टिकोण समक्ष रख कर हल किया जा सकता हैं ।
पहला दृष्टिकोण – भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का कौन अधिकारी है ।
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शास्त्रानुसार वे व्यक्ति, जिन्होंने तीन मुख्य आसक्तियों –
1. कामिनी
2. कांचन और
3. कीर्ति का त्याग कर, आसक्ति-मुक्त हो सन्यास ग्रहण कर लिया हो
– वे ही भिक्षावृत्ति के उपयुक्त अधिकारी है, क्योंकि वे अपने गृह में भोजन तैयार कराने का प्रबन्ध नहीं कर सकते । अतः उन्हें भोजन कराने का भार गृहस्थों पर ही है । श्री साईबाबा न तो गृहस्थ थे और न वानप्रस्थी । वे तो बालब्रहृमचारी थे । उनकी यह दृढ़ भावना थी कि विश्व ही मेरा गृह है । वे तो स्वया ही भगवान् वासुदेव, विश्वपालनकर्ता तथा परब्रहमा थे । अतः वे भिक्षा-उपार्जन के पूर्ण अधिकारी थे ।
दूसरा दृष्टिकोण
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पंचसूना – (पाँच पाप और उनका प्रायश्चित) – सब को यह ज्ञात है कि भोजन सामग्री या रसोई बनाने के लिये गृहस्थाश्रमियों को पाँच प्रकार की क्रयाएँ करनी पड़ती है –
1. कंडणी (पीसना)
2. पेषणी (दलना)
3. उदकुंभी (बर्तन मलना)
4. मार्जनी (माँजना और धोना)
5. चूली (चूल्हा सुलगाना)
इन क्रियाओं के परिणामस्वरुप अनेक कीटाणुओं और जीवों का नाश होता है और इस प्रकार गृहस्थाश्रमियों को पाप लगता है । इन पापों के प्रायश्चित स्वरुप शास्त्रों ने पाँच प्रकार के याग (यज्ञ) करने की आज्ञा दी है, अर्थात्
1. ब्रहमयज्ञ अर्थात् वेदाध्ययन - ब्रहम को अर्पण करना या वेद का अछ्ययन करना
2. पितृयज्ञ – पूर्वजों को दान ।
3. देवयज्ञ – देवताओं को बलि ।
4. भूतयज्ञ – प्राणियों को दान ।
5. मनुष्य (अतिथि) यज्ञ – मनुष्यों (अतिथियों) को दान ।
यदि ये कर्म विधिपूर्वक शास्त्रानुसार किये जायें तो चित्त शुदृ होकर ज्ञान और आत्मानुभूति की प्राप्ति सुलभ हो जाती हैं । बाबा दृार-दृार जाकर गृहस्थाश्रमियों को इस पवित्र कर्तव्य की स्मृति दिलाते रहते थे और वे लोग अत्यन्त भाग्यशाली थे, जिन्हें घर बैठे ही बाबा से शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिल जाता था ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

(श्री साईं सच्चरित्र अध्याय 9)

श्री साई सच्चरित्र संदेश


ॐ साईं राम 
श्री साई सच्चरित्र  संदेश 
"बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता I व्यक्त के अव्यक्त होने का संबंध सदा सत्य से होता है और इसका अनुभव सर्वत्र होता है" I 
No action is done without a reason. What is imperceptible becomes perceptible becuase it is enjoined to truth always. This well- known through experience. 
(Clause 44 Adhaya 37, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

"भिन्न भिन्न कार्यों की भक्तों को प्रेरणा"


"भिन्न भिन्न कार्यों की भक्तों को प्रेरणा"
'श्री हेमाडपंत कहते है' भगवान अपने किसी भक्त को मन्दिर, मठ, किसी को नदी के तीर पर घाट बनवाने, किसी को तीर्थपर्यटन करने और किसी को भगवत् कीर्तन करने एवं भिन्न भिन्न कार्य करने की प्रेरणा देते है। परंतु उन्होंने मुझे 'साई-सच्चरित्र' - लेखन की प्रेरणा की। किसी भी विद्या का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण मैं इस कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य था। अतः मुझे इस दुष्कर कार
्य का दुस्साहस क्यों करना चाहिये? श्री साई महाराज की यथार्थ जीवनी का वर्णन करने की सामर्थय किसे है? उनकी कृपा मात्र से ही कार्य सम्पूर्ण होना सम्भव है। इसीलिये जब मैंने लेखन प्रारम्भ किया तो बाबा ने मेरा अहं नष्ट कर दिया और उन्हेंने स्वयं अपना चरित्र रचा। अतः इस चरित्र का श्रेय उन्हीं को है, मुझे नही। जन्मतः ब्राह्मण होते हुए भी मैं दिव्य चक्षु-विहीन था, अतः 'साई सच्चरित्र' लिखने में सर्वथा अयोग्य था।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय-3)

Sai Vachan


ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
जन्म जन्म के पाप सब,
पल में सब धुल जात,
"साईं चरणन" तीर्थ में,
जो "श्रद्धा" से नहात 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Wednesday, August 29, 2012

बाबा का चरित्रः



बाबा का चरित्रः ज्योतिस्तंभ स्वरुप
समुद्र में अनेक स्थानों पर ज्योतिस्तंभ इसलिये बनाये जाते है, जिससे नाविक चटटानों और दुर्घटनाओं से बच जायें और जहाज का कोई हानि न पहुँचे। इस भवसागर में श्री साई बाबा का चरित्र ठीक उपयुक्त भाँति ही उपयोगी है। वह अमृत से भी अति मधुर और सांसारिक पथ को सुगम बनाने वाला है । जब वह कानों के द्वारा हृदय में प्रवेश करता है, तब दैहिक बुदि नष्ट हो जाती है और हृदय में एकत्रित करने से, समस्त कुशंकाएँ लोप हो जाती है। अहंकार का विनाश हो जाता है तथा बौद्धिक आवरण लुप्त होकर ज्ञान प्रगट हो जाता है। बाबा की विशुद्ध कीर्ति का वर्णन निष्ठापूर्वक श्रवण करने से भक्तों के पाप नष्ट होंगे। अतः यह मोक्ष प्राप्ति का भी सरल साधन है।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय-3)

Sai Vachan


ॐ साईं श्री साईं

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं
जिस सेवक के हिय में, बसे साईं का प्यार |
लोक और परलोक में, साईं ताके रखवार ||
"श्री साईं जी अपनी कृपा बक्शो जी"

Tuesday, August 28, 2012

Sai Vachan


ॐ साईं श्री साईं

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
उपकार कितना दास पे साईं जी है तुम्हारा,
जन्मों जन्म का बिगड़ा मेरा भाग्य है सवांरा 
"श्री साईं जी" अपनी कृपा बनाये रखना जी

Monday, August 27, 2012

श्री साई समर्थ



श्री साई समर्थ धन्य है, जिनका नाम बड़ा सुन्दर है ! वे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही विषयों में अपने भक्तों को उपदेश देते है और भक्तों को अपना जीवनध्येय प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर उन्हें सुखी बनाते है। श्री साई अपना वरद हस्त भक्तों के सिर पर रखकर उन्हें अपनी शक्ति प्रदान करते है। वे भेदभाव की भावना को नष्ट कर उन्हें अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराते है। भक्त लोग साई के चरणों पर भक्तिपूर्वक गिरते है और श्री साईबाबा भी भेदभावरहित होकर प्रेमपूर्वक भक्तों को हृदय से लगाते है। वे भक्तगण में ऐसे सम्मिलित हो जाते है, जैसे वर्षाऋतु में जल नदियों से मिलता तथा उन्हें अपनी शक्ति और मान देता है।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 40)

Sai Vachan


ॐ साईं श्री साईं

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
परम पुरुष साईं नाथ जी, हैं अनाथ के नाथ |
श्रद्धापूर्ण मम वन्दना, धर चरणन पे माथ ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 

Sunday, August 26, 2012

गीता रहस्य


गीता रहस्य
ब्रहृविघा (अध्यात्म) का जो भक्त अध्ययन करते, उन्हें बाबा सदैव प्रोत्साहित करते थे। इसका एक उदाहरण है कि एक समय बापूसाहेब जोग का एक पार्सल आया, जिसमें श्री लोकमान्य तिलक कृत गीता-भाष्य की एक प्रति थी, जिसे काँख में दबाये हुये वे मस्जिद में आये। जब वे चरण-वन्दना के लिये झुके तो वह पार्सल बाबा के श्री-चरणों पर गिर पड़ा। तब बाबा उनसे पूछने लगे कि इसमें क्या है। श्री जोग ने तत्काल ही पार्सल से वह पुस्तक निकालकर बाबा के कर—कमलों में रख दी। बाबा ने थोड़ी देर उसके कुछ पृष्ठ देखकर जेब से एक रुपया निकाला और उसे पुस्तक पर रखकर जोग को लौटा दिया और कहने लगे कि, "इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करते रहो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।"
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 27)

Sai Vachan


ॐ साईं

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
जो सेवक निसदिन करे, साईं का सुमरिन ध्यान |
जन्म मरण संकट टरे, पावे पद निर्वाण ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे  

Saturday, August 25, 2012

श्री हेमाडपंत कहते है


'श्री हेमाडपंत कहते है' जब वेद और पुराण ही ब्रह्म या सदगुरु का वर्णन करने में अपनी असमर्थता प्रगट करते है, तब मैं एक अल्पज्ञ प्राणी अपने सदगुरु श्री साईबाबा का वर्णन कैसे कर सकता हूँ? मेरा स्वयं का तो यह मत है कि इस विषय में मौन धारण करना ही अति उत्तम है। सच पूछा जाय तो मूक रहना ही सदगुरु की विमल पताकारुपी विरुदावली का उत्तम प्रकार से वर्णन करना है। परन्तु उनमें जो उत्तम गुण है, वे हमें मूक कहाँ रहने देते है? यदि स्वादिष्ट भोजन बने और मित्र तथा सम्बन्धी आदि साथ बैठकर न खायें तो वह नीरस-सा प्रतीत होता है; और जब वही भोजन सब एक साथ बैठकर खाते है, तब उसमें एक विशेष प्रकार की सुस्वादुता आ जाती है। वैसी ही स्थिति साईलीलामृत के सम्बन्ध में भी है। इसका एकांत में रसास्वादन कभी नहीं हो सकता। यदि मित्र और पारिवारिक जन सभी मिलकर इसका रस लें तो और अधिक आनन्द आ जाता है। श्री साईबाबा स्वयं ही अंतःप्रेरणा कर अपनी इच्छानुसार ही इन कथाओं को मुझसे वर्णित कर रहे है। इसलिये हमारा तो केवल इतना ही कर्तव्य है कि अनन्यभाव से उनके शरणागत होकर उनका ही ध्यान करें।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 49)

शिरडी यात्रा की विशेषता



शिरडी यात्रा की विशेषता 

शिरडी यात्रा की एक विशेषता यह थी कि बाबा की आज्ञा के बिना कोई भी शिरडी से प्रस्थान नहीं कर सकता था और यदि किसी ने किया भी, तो मानो उसने अनेक कष्टों को निमन्त्रण दे दिया । परन्तु यदि किसी को शिरडी छोड़ने की आज्ञा हुई तो फिर वहाँ उसका ठहरना नहीं हो सकता था । जब भक्तगण लौटने के समय बाबा को प्रणाम करने जाते तो बाबा उन्हें कुछ आदेश दिया करते थे, जिनका पालन अति आवश्यक था । यदि इन आदेशों की अवज्ञा कर कोई लौट गया तो निश्चय ही उसे किसी न किसी दुर्घटना का सामना करना पड़ता था । ऐसे कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं ।

तात्या कोते पाटील

एक समय तात्या कोते पाटील गाँगे में बैठकर कोपरगाँव के बाजार को जा रहे थे । वे शीघ्रता से मसजिद में आये । बाबा को नमन किया और कहा कि मैं कोपरगाँव के बाजार को जा रहा हूँ । बाबा ने कहा, शीघ्रता न करो, थोड़ा ठहरो । बाजार जाने का विचार छोड़ दो और गाँव के बाहर न जाओ । उनकी उतावली को देखकर बाबा ने कहा अच्छा, कम से कम शामा को साथ लेते जाओ । बाबा की आज्ञा की अवहेलना करके उन्होंने तुरन्त ताँगा आगे बढ़ाया । ताँगे के दो घोड़ो में से एक घोड़ा, जिसका मूल्य लगभग तीन सौ रुपया था, अति चंचल और द्रुतगामी था । रास्ते में सावली विहीर ग्राम पार करने के पश्चात ही वह अधिक वेग से दौड़ने लगा । अकस्मात ही उसकी कमी में मोच आ गई । वह वहीं गिर पड़ा । यघरि तात्या को अधिक चोट तो न आई, परन्तु उन्हें अपनी साई माँ के आदेशों की स्मृति अवश्य हो आई । एक अन्य अवसर पर कोल्हार ग्राम को जाते हुए भी उन्होंने बाबा के आदेशों की अवज्ञा की थी और ऊपर वर्णित घटना के समान ही दुर्घटना का उन्हें सामना करना पड़ता था ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
श्री साईं सच्चरित्र अध्याय 9

Sai Vachan


Sandesh

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
धन पदार्थ की चाह नहीं, साईं कृपा निधान |
ध्यान करूँ तब रैन दिन, दीजे यह वरदान ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Friday, August 24, 2012

श्री साई सच्चरित्र संदेश



अहंकार के वशीभूत होकर उच्च कोटि के विद्वान और चतुर पुरुष भी इस भवसागर की दलदल में फँस जाते है। परन्तु हे साई। आप केवल अपनी शक्ति से असहाय और सुहृदय भक्तों को इस दलदल से उबारकर उनकी रक्षा किया करते है। पर्दे की ओट में छिपे रहकर आप ही तो सब न्याय कर रहे है। फिर भी आप ऐसा अभिनय करते है, जैसे उनसे आपका कोई सम्बन्ध ही न हो। कोई भी आप की संपूर्ण जीवन गाथा न जान सका। इसलिये यही श्रेयस्कर है कि हम अनन्य भाव से आपके श्रीचरणों की शरण में आ जायें और अपने पापों से मुक्त होने के लिये एकमात्र आपका ही नामस्मरण करते रहे। आप अपने निष्काम भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर उन्हें परमानन्द की प्राप्ति करा दिया करते है। केवल आपके मधुर नाम का उच्चारण ही भक्तों के लिये अत्यन्त सुगम पथ है। 
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 46)

चना लीला

चना लीला
शिरडी में बाजार प्रति रविवार को लगता है । निकटवर्ती ग्रामों से लोग आकर वहाँ रास्तों पर दुकानें लगाते और सौदा बेचते है । मध्याहृ के समय मसजिद लोगों से ठसाठस भर जाया करती थी, परन्तु इतवार के दिन तो लोगों की इतनी अधिक भीड़ होती कि प्रायः दम ही घुटने लगता था । ऐसे ही एक रविवार के दिन श्री. हेमाडपंत बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे । शामा बाबा के बाई ओर व वामनराव बाबा के दाहिनी ओर थे । इस अवसर पर श्रीमान् बूटीसाहेब और काकसाहेब दीक्षित भी वहाँ उपस्थित थे । तब शामा ने हँसकर अण्णासाहेब से कहा कि देखो, तुम्हारे कोट की बाँह पर कुछ चने लगे हुए-से प्रतीत होते है । ऐसा कहकर शामा ने उनकी बाँह स्पर्श की, जहाँ कुछ चने के दाने मिले । जब हेमाडपंत ने अपनी बाईं कुहनी सीधी की तो चने के कुछ दाने लुढ़क कर नीचे भी गिर पड़े, जो उपस्थित लोगों ने बीनकर उठाये । भक्तों को तो हास्य का विषय मिल गया और सभी आश्चर्यचकित होकर भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे, परन्तु कोई भी यह न जान सका कि ये चने के दाने वहाँ आये कहाँ से और इतने समय तक उसमें कैसे रहे । इसका संतोषप्र
द उत्तर किसी के पास न था, परन्तु इस रहस्य का भेद जानने को प्रत्येक उत्सुक था । तब बाबा कहने लगे कि इन महाशय-अण्णासाहेब को एकांत में खाने की बुरी आदत है । आज बाजार का दिन है और ये चने चबाते हुए ही यहाँ आये है । मैं तो इनकी आदतों से भली भाँति परिचित हूँ और ये चने मेरे कथन की सत्यता के प्रमाणँ है । इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है । हेमाडपंत बोले कि बाबा, मुझे कभी भी एकांत में खाने की आदत नहीं है, फिर इस प्रकार मुझ पर दोशारोपण क्यों करते है । अभी तक मैंने शिरडी के बाजार के दर्शन भी नहीं किये तथा आज के दिन तो मैं भूल कर भी बाजार नहीं गया । फिर आप ही बताइये कि मैं ये चने भला कैसे खरीदता और जब मैंने खरीदे ही नही, तब उनके खाने की बात तो दूर की ही है । भोजन के समय भी जो मेरे निकट होते है, उन्हें उनका उचित भाग दिये बिना मैं कभी ग्रहण नहीं करता । 
बाबा-तुम्हारा कथन सत्य है । परन्तु जब तुम्हारे समीप ही कोई न हो तो तुम या हम कर ही क्या सकते है । अच्छा, बताओ :
क्या भोजन करने से पूर्व तुम्हें कभी मेरी स्मृति भी आती है ? 
क्या मैं सदैव तुम्हारे साथ नहीं हूँ ?
फिर क्या तुम पहले मुझे ही अर्पण कर भोजन किया करते हो ?
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
श्री साईं सत्चरित्र अध्याय 24

श्री साईं वचन

श्री साईं वचन - "योग, वैराग्य, तप, ज्ञान आदि ईश्वर के समीप शीघ्र पहुँचने के मार्ग है"

श्री साई सच्चरित्र संदेश

ॐ साईं राम 
श्री साई सच्चरित्र संदेश 
"जब ज्ञान का उधेश्य "श्रेय" हो, तब नि:संशय वह विद्या होती है I जब विषय केवल "प्रेय" (यानि भोतिक) हो, तब उसे अविद्या कहते हैं" I 
The 'good' or the well-being is the subject matter of knowledge undoubtedly; and where the only pleasant is the subject matter, it is definitely ignorance. 
(Clause 35 Adhaya 37, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

Sai Vachan


Sandesh

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
देखा भाला जगत में, कोऊ किसी का नाहीं |
इक मीत "साईं नाथ" मिले, सकल विश्व के माहीं ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Thursday, August 23, 2012

बाबा की भक्त-परायणता



बाबा की भक्त-परायणता
बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही सेवा करने दिया करते थे और इस विषय में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें सहन न था । एक अन्य अवसर पर मौसीबाई बाबा का पेट बलपूर्वक मसल रही थी, जिसे देख कर दर्शकगण व्यग्र होकर मौसीबाई से कहने लगे कि माँ । कृपा कर धीरे-धीरे ही पेट दबाओ । इस प्रकार मसलने से तो बाबा की अंतड़ियाँ और ना़ड़ियाँ ही टूट जायेंगी । वे इतना कह भी न पाये थे कि बाबा अपने आसन से
तुरन्त उठ बैठे और अंगारे के समान लाल आँखें कर क्रोधित हो गये । साहस किसे था, जो उन्हें रोके । उन्होंने दोनों हाथों से सटके का एक छोर पकड़ नाभि में लगाया और दूसरा छोर जमीन पर रख उसे पेट से धक्का देने लगे । सटका (सोटा) लगभग 2 या 3 फुट लम्बा था । अब ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पेट में छिद्र कर प्रवेश कर जायेगा । लोग शोकित एवं भयभीत हो उठे कि अब पेट फटने ही वाला है । बाबा अपने स्थान पर दृढ़ हो, उसके अत्यन्त समीप होते जा रहे थे और प्रतिक्षण पेट फटने की आशंका हो रही थी । सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे । वे आश्चर्यचकित और भयभीत हो ऐसे खड़े थे, मानो गूँगोंका समुदा
य हो । यथार्थ में भक्तगण का संकेत मौसीबाई को केवल इतना ही था कि वे सहज रीति से सेवा-शुश्रूषा करें । किसी की इच्छा बाबा को कष्ट पहुँचाने की न थी । भक्तों ने तो यह कार्य केवल सद्भभावना से प्रेरित होकर ही किया था । परन्तु बाबा तो अपने कार्य में किसी का हस्तक्षेप कणमात्र भी न होने देना चाहते थे । भक्तों को तो आश्चर्य हो रहा था कि शुभ भावना से प्रेरित कार्य दुर्गति से परिणत हो गया और वे केवल दर्शक बने रहने के अतिररिक्त कर ही क्या सकते थे । भाग्यवश बाबा का क्रोध शान्त हो गया और सटका छोड़कर वे पुनः आसन पर विराजमान हो गये । इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि अब दूसरों के कार्य में कभी भी हस्तक्षेप न करेंगे और सबको उनकी इच्छानुसार ही बाबा की सेवा करने देंगे । केवल बाबा ही सेवा का मूल्य आँकने में समर्थ थे ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
श्री साईं  सच्चरित्र अध्याय 24

Sandesh



हे साई। आपके श्रीचरण धन्य है और उनका स्मरण कितना सुखदायी है । आपके भवभयविनाशक स्वरुप का दर्शन भी धन्य है, जिसके फलस्वरुप कर्मबन्धन छिन्नभिन्न हो जाते है । यघपि अब हमें आपके सगुण स्वरुप का दर्शन नहीं हो सकता, फिर भी यदि भक्तगण आपके श्रीचरणों में श्रद्घा रखें तो आप उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव दे दिया करते है। आप एक अज्ञात आकर्षण शक्ति द्घारा निकटस्थ या दूरस्थ भक्तों को अपने समीप खींचकर उन्हें एक दयालु माता की समान हृदय से लगाते है। हे साई। भक्त नहीं जानते कि आपका निवास कहाँ है, परन्तु आप इस कुशलता से उन्हें प्रेरित करते है, जिसके परिणामस्वरुप भासित होने लगता है कि आपका अभयहस्त उनके सिर पर है और यह आपकी ही कृपा-दृष्टि का परिणाम है कि उन्हें अज्ञात सहायता सदैव प्राप्त होती रहती है।
(श्री साई सच्चरित्र)

श्री साई सच्चरित्र संदेश

ॐ साईं राम 
श्री साई सच्चरित्र संदेश
"अविद्या के समाप्त होने पर इस द्वैत भाव का लेशमात्र भी शेष नहीं रह जाता है, ऐसा व्यक्ति प्रभु और उसके रचे प्राणियों के बीच एकत्व के अहसास के कारण जन्म-मरण के चक्र से बच जाता है" I 
Once this ignorance is removed, even a trace of plurality will not remain, and will release the person from the cycle of birth and death. This caused by the knowledge of oneness. 
(Clause 33 Adhaya 37, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

Sai Vachan


ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं

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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
ध्यान ना बिसरे इक पलक, बिसर जाये संसार |
चरण कमल साईं नाथ के, दास के प्राण आधार ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 
साईंवार की हार्दिक शुभ कामनाएं 
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अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक राजाधिराज योगिराज परब्रह्म श्री सचिदानंद समस्त सद्गुरु श्री साईं नाथ महाराज की जय !
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Wednesday, August 22, 2012

SAI BABA:



‎"There will never be any dearth or scarcity, regarding food and clothes, in any devotees' homes. It is my special characteristic, that I always look to, and provide, for the welfare of those devotees, who worship Me whole-heartedly with their minds ever fixed on Me. Lord Krishna has also said the same in the Gita." - SAI BABA

SAI BABA:

"This Brahmin can bring lacs of men onto the white path and take them to their destination."

Sandesh



ॐ सांई राम
बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विदृतापूर्ण तथा समतोल रहते थे । वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे । उनका कथन था कि मैं
फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री ही है और न घर-द्वार ही । सब चिंताओं को त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ । फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती हैं । मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया को कदापि नहीं भूल सकता, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है । श्रीहरि की यह माया ब्रहादि को भी नहीं छोड़ती, फिर मुझ सरीखे फकीर का तो कहना ही क्या हैं । परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जायेंगे । इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया । भगवान श्रीकृष्ण भागवत में उदृव से कहते कि सन्त मेरे ही जीवित स्वरुप हैं और बाबा का भी कहना यही था कि वे भाग्यशाली, जिनके समस्त पाप नष्ट हो गये हो, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रसर होते है, यदि तुम केवल साई साई का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार उतार दूँगा । इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश्य लाभ होगा । मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है । मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ ।
(श्री साई सच्चरित्र)

Sai Sandesh



इसमें कोई सन्देह नहीं कि अब बाबा का साकार स्वरुप लुप्त हो गया है, परन्तु उनका निराकार स्वरुप तो सदैव विद्यमान रहेगा। अभी तक केवल उन्हीं घटनाओं और लीलाओं का उल्लेख किया गया है, जो बाबा के जीवनकाल में घटित हुई थी। उनके समाधिस्थ होने के पश्चात् भी अनेक लीलाएँ हो चुकी है और अभी भी देखने में आ रही है, जिनसे यह सिद्ध होता है कि बाबा अभी भी विद्यमान है और पूर्व की ही भाँति अपने भक्तों को सहायता पहुँचाया करते है। बाबा के जीवन-काल में जिन व्यक्तियों को उ
नका सानिध्य या सत्संग प्राप्त हुआ, यथार्थ में उनके भाग्य की सराहना कौन कर सकता है? यदि किसी को फिर भी ऐंद्रिक और सांसारिक सुखों से वैराग्य प्राप्त नहीं हो सका तो इस दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? जो उस समय आचरण में लाया जाना चाहिये था और अभी भी लाया जाना चाहिये, वह है अनन्य भाव से बाबा की भक्ति। समस्त चेतनाओं, इन्द्रिय-प्रवृतियों और मन को एकाग्र कर बाबा के पूजन और सेवा की ओर लगाना चाहिये । कृत्रिम पूजन से क्या लाभ? यदि पूजन या ध्यानादि करने की ही अभिलाषा है तो वह शुद्ध मन और अन्तःकरण से होनी चाहिये।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 45)

Sai Vachan


Sandesh

ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
पर उपकारी साईं 
संतन के सिरताज 
जीव काज हित जगत में 
प्रगटे "श्री साईं नाथ"
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Tuesday, August 21, 2012

Sai Sandesh



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
एक बार सदगुरु की शरण में जाने के बाद इस सांसारिक जीवन में भय का प्रशन कहाँ रह जाता है? तब दुनियादारी की कैसी चिन्ता, जब उन सब का निवारण करने के लिए वे हैं I 
What fear of the world can there be after thus surrendering to the Sadguru? And why unnecessarily worry about the worldly matters, leaving not a trace of good thoughts. 
(Clause 30 Adhaya 37, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

Sandesh



बाबा ने कभी किसी की उपेक्षा या अनादर नहीं किया। वे सब प्राणियों में भगवद दर्शन करते थे। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि, "मैं अनल हक़ (सोऽहम्) हूँ।" वे सदा यही कहते थे कि "मैं तो यादे हक़ (दासोऽहम्) हूँ।" "अल्ला मालिक" सदा उनके होठों पर था। हम अन्य संतों से परिचित नहीं है और न हमें ज्ञात है कि वे किस प्रकार आचरण किया करते है अथवा उनकी दिनचर्या इत्यादि क्या है । ईश-कृपा से केवल हमें इतना ही ज्ञात है कि वे अज्ञान और बद्ध जीवों के निमित्त स्वयं अवतीर्ण होते है । शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही हम में सन्तों की कथायें और लीलाये श्रवण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, अन्यथा नहीं। 
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 23)

Sai Vachan


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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
बाबा है यह तुम्हारा उपकार,दिया चरण आधार |
दास जानकर दीन को,बक्शो अपना प्यार ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Monday, August 20, 2012

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वस्तुतः मनुष्य त्रिगुणमय (तीन गुण अर्थात् सत्व-रज-तम) है तथा माया के प्रभाव से ही उसे भासित होने लगता है कि मैं शरीर हूँ । दैहिक बुद्घि के आवरण के कारण ही वह ऐसी धारणा बना लेता है कि मैं ही कर्ता और उपभोग करने वाला हूँ और इस प्रकार वह अपने को अनेक कष्टों में स्वयं फँसा लेता है । फिर उसे उससे छुटकारे का कोई मार्ग नहीं सूझता । मुक्ति का एकमात्र उपाय है – गुरु के श्री चरणों में अटल प्रेम और भक्ति । सबसे महान् अभिनयकर्ता भगवान् साई ने भक्तों को पूर्ण आनन्द पहुँचाकर उन्हें निज-स्वरुप में परिवर्तित कर लिया है । उपयुक्त कारणों से हम साईबाबा को ईश्वर का ही अवतार मानते है । परन्तु वे सदा यही कहा करते थे कि "मैं तो ईश्वर का दास हूँ ।" अवतार होते हुए भी मनुष्य को किस प्रकारा आचरण करना चाहिये तथा अपने वर्ण के कर्तव्यों को किस प्रकार निबाहना चाहिए, इसका उदाहरण उन्होंने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया । 
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 23)

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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
जीव बंधा मोह पाश में, साईं छुड़ावनहार |
बिना कृपा साईं की, होय नहीं निस्तार ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Sunday, August 19, 2012

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गुरु के कर-स्पर्श के गुण
जब सद्गगुरु ही नाव के खिवैया हों तो वे निश्चय ही कुशलता तथा सरलतापूर्वक इस भवसागर के पार उतार देंगे । 'सद्गगुरु' शब्द का उच्चारण करते ही मुझे श्री साई की स्मृति आ रही है । ऐसा प्रतीत होता है, मानो वो स्वयं मेरे सामने खड़े है और मेरे मस्तक पर उदी लगा रहे हैं । देखो, देखो, वे अब अपना वरद्-हस्त उठाकर मेरे मस्तक पर रख रहे है । अब मेरा हृदय आनन्द से भर गया है । मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे है । सद्गगुरु के कर-स्पर्श की शक्ति महान् आश्चर्यजनक है । लिंग (सूक्ष्म) शरीर, जो संसार को भस्म करने वाली अग्नि से भी नष्ट नहीं होता है, वह गुरु के कर-स्पर्श से ही पलभर में ही नष्ट हो जाता है । अनेक जन्मों के समस्त पाप नष्ट हो जाते है ।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 6)

Krishna Meera


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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं
सब संतों का मत येही, सब ग्रंथों का सार |
साईं नाम बिन मुक्ति नहीं, यह निश्चय हिय धार
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Saturday, August 18, 2012

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रामनवमी का दिन श्री साईबाबा के भक्तों को अत्यन्त ही प्रिय और पवित्र है । कार्य करने के लिये बहुत से स्वयंसेवक तैयार हो जाते थे और वे मेले के प्रबन्ध में सक्रिय भाग लेते थे । बाहर के समस्त कार्यों का भार तात्या पाटील और भीतर के कार्यों को श्री साईबाबा की एक परम भक्त महिला राधाकृश्ण माई सम्भालती  थी । इस अवसर पर उनका निवासस्थान अतिथियों से परिपूर्ण रहता और उन्हें सब लोगों की आवश्यक
ताओं का भी ध्यान रखना पड़ता था । साथ ही वे मेले की समस्त आवश्यक वस्तुओं का भी प्रबन्ध कर्ता थीं । दूसरा कार्य जो वे स्वयं खुशी से किया करती, वह था मसजिद की सफाई करना, चूना पोतना आदि । मसजिद की फर्श तथा दीवारें निरन्तर धूनी जलने के कारण काली पड़ गयी थी । जब रात्रि को बाबा चावड़ी में विश्राम करने चले जाते, तब वे यह कार्य कर लिया करती थी । समस्त वस्तुएँ धूनी सहित बाहर निकालनी पड़ती थी और सफई व पुताई हो जाने के पश्चात् वे पूर्ववत् सजा दी जाती थी । बाबा का अत्यन्त प्रिय कार्य गरीबों को भोजन कराना भी इस कार्यक्रम का एक अंग था । इस कार्य के लिये वृहद् भोज का आयोजन किया जाता था और अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती थी । यह सब कार्य राधाकृष्णमगई के निवासस्थान पर ही होता था । बहुत से धनाढ्य व श्रीमंत भक्त इस कार्य में आर्थिक सहायता पहुँचाते थे ।
श्री साईं  सच्चरित्र  अध्याय 6

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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
तुच्छ बुद्धि है जीव की, साईं महिमा है महान |
कहाँ शक्ति है जीव की, जो कर सके बखान ||
साईं जी अपनी कृपा बरसाओ जी  

Friday, August 17, 2012

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शामा की सर्पदंश से मुक्ति
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कथा प्रारंभ करने से पूर्व हेमाडपंत लिखते है कि जीव की तुलना पालतू तोते से की जा सकती है, क्योंकि दोनों ही बदृ है । एक शरीर में तो दूसरा पिंजड़े में । दोनों ही अपनी बद्घावस्था को श्रेयस्कर समझते है । परन्तु यदि हरिकृपा से उन्हें कोई उत्तम गुरु मिल जाय और वह उनके ज्ञानचक्षु खोलकर उन्हें बंधन मुक्त कर दे तो उनके जीवन का स्तर उच्च हो जाता है, जिसकी तुलना में पूर्व संकीर्ण स्थिति सर्वथा तुच्छ ही थी ।
गत अध्यया मे
ं किस प्रकार श्री. मिरीकर पर आने वाले संकट की पूर्वसूचना देकर उन्हें उससे बचाया गया, इसका वर्णन किया जा चुका है । पाठकवृन्द अब उसी प्रकार की और एक कथा श्रवण करें ।
एक बार शामा को विषधर सर्प ने उसके हाथ की उँगली में डस लिया । समस्त शरीर में विष का प्रसार हो जाने के कारण वे अत्यन्त कष्ट का अनुभव करके क्रंदन करने लगे कि अब मेरा अन्तकाल समीप आ गया है । उनके इष्ट मित्र उन्हें भगवान विठोबा के पास ले जाना चाहते थे, जहाँ इस प्रकार की समस्त पीड़ाओं की योग्य चिकित्सा होती है, परन्तु शामा मसजिद की ओर ही दौड़-अपने विठोबा श्री साईबाबा के पास । जब बाबा ने उन्हें दूर से आते देखा तो वे झिड़कने और गाली देने लगे । वे क्रोधित होकर बोले – अरे ओ नादान कृतघ्न बम्मन । ऊपर मत चढ़ । सावधान, यदि ऐसा किया तो । और फिर गर्जना करते हुए बोले, हटो, दूर हट, नीचे उतर । श्री साईबाबा को इस प्रकार अत्यंत क्रोधित देख शामा उलझन में पड़ गयाऔर निराश होकर सोचने लगा कि केवल मसजिद ही तो मेरा घर है और साईबाबा मात्र किसकी शरण में जाऊँ । उसने अपने जीवन की आशा ही छोड़ दी और वहीं शान्तीपूर्वक बैठ गया । थोड़े समय के पश्चात जब बाबा पूर्वव्त शांत हुए तो शामा ऊपर आकर उनके समीप बैठ गया । तब बाबा बोले, डरो नहीं । तिल मात्र भी चिन्ता मत करो । दयालु फकीर तुम्हारी अवश्य रक्षा करेगा । घर जाकर शान्ति से बैठो और बाहर न निकलो । मुझपर विश्वास कर निर्भय होकर चिन्ता त्याग दो । उन्हें घर भिजवाने के पश्चात ही पुछे से बाबा ने तात्या पाटील और काकासाहेब दीक्षित के द्घारा यह कहला भेजा कि वह इच्छानुसार भोजन करे, घर में टहलते रहे, लेटें नही और न शयन करें । कहने की आवश्यकता नहीं कि आदेशों का अक्षरशः पालन किया गया और थोड़े समय में ही वे पूर्ण स्वस्थ हो गये । इस विषय में केवल यही बात स्मरण योग्य है कि बाबा के शब्द (पंच अक्षरीय मंत्र-हटो, दूर हट, नीचे उतर) शामा को लक्ष्य करके नहीं कहे गये थे, जैसा कि ऊपर से स्पष्ट प्रतीत होता है, वरन् उस साँप और उसके विष के लिये ही यह आज्ञा थी (अर्थात् शामा के शरीर में विष न फैलाने की आज्ञा थी) अन्य मंत्र शास्त्रों के विशेषज्ञों की तरह बाबा ने किसी मंत्र या मंत्रोक्त चावल या जल आदि का प्रयोग नहीं किया ।
इस कथा और इसी प्रकार की अन्य अथाओं को सुनकर साईबाबा के चरणों में यह दृढ़ विश्वास हो जायगा कि यदि मायायुक्त संसार को पार करना हो तो केवल श्री साईचरणों का हृदय में ध्यान करो ।

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 23

श्री साई सच्चरित्र

श्री साई सच्चरित्र
"अधर्म, अज्ञान, राग, द्वेष इत्यादि ही हमें मृत्यु की ओर ले जाते हैं I वे जो इन पर काबू पा लेते हैं, केवल वे ही स्वर्गलोक में प्रवेश पा सकते हैं" I 
ॐ साईं राम 
Unrighteous conduct, ignorance, anger, hatred etc. are chains which fetter us to death. Those who can completely overcome them, only can enter heaven.
(Clause 12 Adhaya 37, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

श्री साईं वचन

श्री साईं वचन - "ईर्ष्या को त्यागो और शांति से रहो"

Sai Vachan


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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं
परम प्रभु साईं नाथ के, चरणन माहीं प्रणाम |
जिन चरणन के ध्यान से, पूर्ण हों सब काम ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे
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Thursday, August 16, 2012

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श्री साईबाबा' प्रेम तथा भक्तिपूर्वक अर्पित की हुई तुच्छ वस्तु को सहर्श स्वीकार कर लेते थे, परन्तु यदि वह अहंकारसहित भेंट की गई तो वह अस्वीकृत कर दी जाती थी । पूर्ण सच्चिदानन्द होने के कारण वे बाहृ आचार-विचारों को विशेष महत्त्व न देते थे और विनम्रता और आदरसहित भेंट की गई वस्तु का स्वागत करते थे । 
यथार्थ में देखा जाय तो सद्गगुरु साईबाबा से अधिक दयालु और हितैषी दूसरा इस संसार में कौन हो सकता है । उनकी तुलना समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली चिन्ता
मणि या कामधेनु से भी नहीं हो सकती । जिस अमूल्य निधि की उपलब्धि हमें सदगुरु से होती है, वह कल्पना से भी परे है। 
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 16/17)

Sai Vachan


Wednesday, August 15, 2012

Sai Sandesh



श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति 
शिरडीवासियों के भाग्य की कौन कल्पना कर सकता है कि जिनके द्वार पर परब्रह्म भिक्षुक के रुप में खड़े रहकर पुकार करते थे, "ओ माई । एक रोटी का टुकड़ा मिले" और उसे प्राप्त करने के लिये अपना हाथ फैलाते थे । एक हाथ में वे सदा टमरेल लिये रहते तथा दूसरे में एक 'झोली' कुछ घरों में तो वे प्रतिदिन ही जाते और किसी-किसी के द्वार पर केवल फेरी ही लगाते थे । वे साग, दूध या छाँछ आदि पदार्थ तो टिनपाट में लेते तथा भात व रोटी आदि अन्य सूखी वस्तुएँ झोली में डाल लेते थे । बाबा की जिवाह को कोई स्वाद-रुचि न थी, क्योंकि उन्होंने उसे अपने वश में कर लिया था । इसलिये वे भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वाद की चिन्ता क्यों करते? जो कुछ भी भिक्षा में उन्हें मिल जाता, उसे ही वे मिश्रित कर सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे । 
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 8 )

Sai Vachan


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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
माया ठगिनी सवल है, सब जग को भटकाए |
जो जन साईं नाथ शरण गहे, सो भक्त बच जाय ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे
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Tuesday, August 14, 2012

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धन्य ते जयांचे द्वारीं बाबा होऊनि भिक्षेकरी.... पोरी आण गे चतकुर भाकरी म्हणूनि पसरी निजकरी ||

In the very begining, Sai Baba was in the habit of going to a few houses in the neighbourhood to beg of food. At times baba would scold a grudging housewife by saying - "Mother, you have so many chapaties, so much rice and this or that vegetable in your pots, why refuse a bit of food to a faqir"! This gentle chastisement and the accuracy of the stange faqir's pronouncements would remove the veil of maya from these women who would then rush to put their all at his feet, as an offering of love.

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बाबा का रहन-सहन व नित्य कार्यक्रम 
तरुण अवस्था में श्री साई बाबा ने अपने केश कभी भी नहीं कटाये और वे सदैव एक पहलवान की तरह रहते थे । जब वे रहाता जाते (जो कि शिरडी से 3 मील दूर है) तो वहाँ से वे गेंदा, जाई और जुही के पौधे मोल ले आया करते थे । वे उन्हें स्वच्छ करके उत्तम भूमि देखकर लगा देते और स्वयं सींचते थे । वामन तात्या नाम के एक भक्त बाबा को नित्य प्रति दो मिट्टी के घडे़ दिया करते थे । इन घड़ों द्वारा बाबा स्वयं ही पौधों में पानी डाला करते थे । वे स्वयं कुएँ से पानी खींचते और संध्या समय घड़ों को नीम वृक्ष के नीचे रख देते थे । जैसे ही घड़े वहाँ रखते, वैसे ही वे फूट जाया करते थे, क्योंकि वे बिना तपाये और कच्ची मिट्टी के बने रहते थे । दूसरे दिन तात्या उन्हें फिर दो नये घड़े दे दिया करते थे । यह क्रम 3 वर्षों तक चला और श्री साई बाबा के कठोर परिश्रम तथा प्रयत्न से वहां फूलों की एक सुंदर फुलवारी बन गयी । आजकल इसी स्थान पर बाबा के समाधि-मंदिर की भव्य इमारत शोभायमान है, जहाँ सहस्त्रों भक्त आते-जाते है । 
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 5 )

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(श्री साई सच्चरित्र)
हम समस्त प्राणियों में ईशवर का ही दर्शन करें और नामस्मरण की रसानुभूति करते हुए उनके मोहविनाशक चरणों की अनन्य भाव से सेवा करते रहें I यही हमारी आकांक्षा है I
May our desire to serve him be abundant. Let our devotion be exclusively at his feet. May we see God in all beings and ever love his name.
(Clause 8 Adhaya 37, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

Sai Vachan


Monday, August 13, 2012

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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
काल बंधन काटे साईं, आवागमन मिटाए |
जो जन साईं वचनों पर चले, दुःख कष्ट मिट जाये ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Sai Vachan


Sunday, August 12, 2012

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श्री साईबाबा के पास अनेक सन्यासी, साधक और अन्य मुमुक्षुजन भी आया करते थे । बाबा भी सदैव उनके साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते, उनसे वार्तालाप कर उनका चित्तरंजन किया करते थे । 'अल्लाह मालिक' सदैव उनके होठों पर था । वे कभी भी विवाद और मतभेद में नहीं पडते थे तथा सदा शान्त और स्थिर रहते थे । परन्तु कभी-कभी वे क्रोधित हो जाया करते थे । वे सदैव ही वेदान्त की शिक्षा दिया करते थे । अमीर और गरीब दोनो उनके लिए एक समान थे । वे लोगों के गुहा व्यापार को पूर्णतया जानते थे और जब वे गुहा रहस्य स्पष्ट करते तो सब विस्मत हो जाते थे । स्वयं ज्ञानावतार होकर भी वे सदैव अज्ञानता का प्रदर्शन किया करते थे । उन्हें आदरसत्कार से सदैव अरुचि थी । इस प्रकार का श्री साईबाबा का वैशिष्टय था । थे तो वे शरीरधारी, परन्तु कर्मों से उनकी ईश्वरीयता स्पष्ट झलकती थी । शिरडी के सकल नर-नारी उन्हें परब्रहमा ही मानते थे ।
(श्री साई सच्चरित्र)

Sai Vachan


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ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
साईं सम हितकारी नहीं, देखा सब संसार |
बिगड़ी जन्म अनेक की, साईं सवारनहार ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 
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(श्री साई सच्चरित्र)
जब स्वानंदघन साईं का स्मरण किया जाता है, प्रति दिन उनके नाम का जप किया जाता है तो किसी अन्य प्रकार के जप-तप-साधन, कठोर ध्यान की आवश्यकता नहीं पड़ती I 
Remembering Sai, the cloud of Self bliss, chanting his name daily it is not necessary to practice any other means of prayers and penance or any other ways of meditation. 
(Clause 221 Adhaya 35, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

Saturday, August 11, 2012

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ॐ साईं राम 
अपने भक्त के वचन को प्रमाणित करने के लिए, प्रणतपालक, करुणाघन साईं दयाल-अपने भक्त द्वारा दिए गए आशवासन को सदेव प्रसन्नता से पूर्ण करते हैं I 
Sai, the Compassionate One, the Cloud of Mercy, the protector of those who have surrendered to him, to ensure that the words of the devotees came true, fondly fulfilled them.
(Clause 117 Adhaya 36, Sai Sachitra Dr R,N,Kakriya)

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वाइजाबाई द्वारा साईं सेवा 
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साईं बाबा पूर्ण सिद्धपुरुष थे और उनका कार्य-व्यवहार भी बिल्कुल सिद्धों जैसा ही था| उनके इस व्यवहार को देखकर शुरू-शुरू में शिरडी को लोग उन्हें पागल समझते थे और पागल फकीर कहते थे| बाद में बाबा इसी पागल सम्बोधन से प्रसिद्ध भी हो गए| जबकि साईं बाबा बाह्य दृष्टि से जैसे दिखाई देते थे, वास्तव में वे वैसे थे ही नहीं| बाबा उदार हृदय, और त्याग की साक्षात् मूर्ति थे| उनका हृदय महासागर की तरह बिल्कुल शांत था| लेकिन शिरडी में कुछ लोग ऐसे भी थे, जो बाबा को ईश्वर मानते थे| उनमे एक थी वाइजाबाई|

वाइजाबाई एक भद्र महिला वे तात्या कोते पाटिल की माता थीं| उन्होंने अपने पूरे जीवन में साईं बाबा की बहुत सेवा की थी| रोजाना दोपहर को वे एक टोकरी में रोटी और भाजी लेकर बाबा को ढूंढती-फिरतीं, कड़ी धूप में भी दो-चार मील घूमतीं, जहां पर भी उन्हें बाबा मिलते, उन्हें बड़े प्यार से अपने हाथों से खिलातीं| जब कभी बाबा अपनी ध्यानावस्था में मग्न बैठे रहते, तो वह घंटों बैठे उनके होश में आने का इंतजार करतीं| आंख खुलने पर उन्हें जबरन खिलातीं| साईं बाबा भी वा
इजाबाई की इस सेवा को अपने अंतिम समय तक नहीं भुला पाए| वाइजाबाई और उसके पुत्र तात्या कोते की भी साईं बाबा के प्रति गहन निष्ठा और श्रद्धा थी| वाइजाबाई की सेवा का प्रतिफल बाद में उसके पुत्र तात्या कोते को भी दिया|

साईं बाबा वाइजाबाई और तात्या कोते से यही कहा करते थे कि फकीरी ही सच्ची अमीरी है| वह अनंत है| जिसे अमीरी कहते हैं वह तो एक दिन समाप्त हो जाने वाली है| वाइजाबाई की सेवा को साईं बाबा ने समझ लिया और फिर उन्होंने भटकना छोड़ दिया और मस्जिद में रहकर ही भोजन करने लगे|
(श्री साई सच्चरित्र)

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उर्स का रामनवमी के त्यौहार में समन्वय
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सब कार्यक्रम इसी तरह उत्तम प्रकार से चलता रहा और मेले का महत्व शनैः शनैः बढ़ता ही गया । सन् 1911 में एक परिवर्तन हुआ । एक भक्त कृष्णराव जोगेश्वर भीष्म (श्री साई सगुणोपासना के लेखक) अमरावती के दादासाहेब खापर्डे के साथ मेले के एक दिन पूर्व शिरडी के दीक्षित-वाड़े में ठहरे । जब वे दालान में लेटे हुए विश्राम कर रहे थे, तब उन्हें एक कल्पना सूझी । इसी समय श्री. लक्ष्मणराव उपनाम काका महाजनी पूजन सामग्री लेकर मसजिद की ओर जा रहे थे । उन दोनों में विचार-विनिमय होने लगा ओर उन्होने सोचा कि शिरडी में उरुस व मेला ठीक रामनवमी के दिन ही भरता है, इसमें अवश्य ही कोई गुढ़ रहस्य निहित है । रामनवमी का दिन हिन्दुओं को बहुत ही प्रिय है । कितना अच्छा हो, यदि रामनवमी उत्सव (अर्थात् श्री राम का जन्म दिवस) का भी श्री गणेश कर दिया जाय । काका महाजनी को यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ । अब मुख्य कठिनाई हरिदास के मिलने की थी, जो इस शुभ अवसर पर कीर्तन व ईश्वर-गुणानुवाद कर सकें । परन्तु भीष्म ने इस समस्या को हल कर दिया । उन्होंने कहा कि मेरा स्वरचित राम आख्यान, जिसमें रामजन्म का वर्णन है, तैयार हो चुका है । मैं उसका ही कीर्तन करुँगा और तुम हारमोनियम पर साथ करना तथा राधाकृष्णमाई सुंठवडा़ (सोंठ का शक्कर मिश्रित चूर्ण) तैयार कर देंगी । तब वे दोनों शीघ्र ही बाबा की स्वीकृति प्राप्त करने हेतु मसजिद को गये । बाबा तो अंतर्यामी थे । उन्हें तो सब ज्ञान था कि वाड़े में क्या-क्या हो रहा है । बाबा ने महाजनी से प्रश्न किया कि वहाँ क्या चल रहा था । इस आकस्मिक प्रश्न से महाजनी घबडा गये और बाबा के शब्दों से पुछा कि क्या बात है । भीष्म ने रामनवमी-उत्सव मनाने का विचार बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया तथा स्वीकृति देने की प्रार्थना की । बाबा ने भी सहर्ष अनुमति दे दी । सभी भक्त हर्षित हहुये और रामजन्मोत्सव मनाने की तैयारियाँ करने लगे । दूसरे दिन रंग-बिरंगी झंडियों से मसजिद सजा दी गई । श्रीमती राधाकृष्णमाई ने एक पालना लाकर बाबा के आसन के समक्ष रख दिया और फिर उत्सव प्रारम्भ हो गया । भीष्म कीर्तन करने को खड़े हो गये और महाजनी हारमोनियम पर उनका साथ करने लगे । तभी बाबा ने महाजनी को बुलाबा भेजा । यहाँ महाजनी शंकित थे कि बाबा उत्सव मनाने की आज्ञा देंगे भी या नहीं । परन्तु जब वे बाबा के समीप पहुँचे तो बाबा ने उनसे प्रश्न किया यह सब क्या है, यह पलना क्यों रखा गया है महाजनी ने बतलाया कि रामनवमी का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया और इसी कारण यह पालना यहाँ रखा गया । बाबा ने निम्बर पर से दो हार उठाये । उनमें से एक हार तो उन्होंने काका जी के गले में डाल दिया तथा दूसरा भीष्म के लिये भेज दिया । अब कीर्तन प्रारम्भ हो गया था । कीर्तन समाप्त हुआ, तब श्री राजाराम की उच्च स्वर से जयजयकार हुई । कीर्तन के स्थान पर गुलाल की वर्षा की गई । जब हर कोई प्रसन्नता से झूम रहा था, अचानक ही एक गर्जती हुई ध्वनि उनके कानों पर पड़ी । वस्तुतः जिस समय गुलाल की वर्षा हो रही थी तो उसमें से कुछ कण अनायास ही बाबा की आँख में चले गये । तब बाबा एकदम क्रुदृ होकर उच्च स्वर में अपशव्द कहने व कोसने लगे । यह दृश्य देखकर सब लोग भयभीत होकर सिटपिटाने लगे । बाबा के स्वभाव से भली भाँति परिचित अंतरंग भक्त भला इन अपशब्दों का कब बुरा माननेवाले थे । बाबा के इन शब्दों तथा वाक्यों को उन्होंने आर्शीवाद समझा । उन्होंने सोचा कि आज राम का जन्मदिन है, अतः रावण का नाश, अहंकार एवं दुष्ट प्रवृतिरुपी राक्षसों के संहार के लिये बाबा को क्रोध उत्पन्न होना सर्वथा उचित ही है । इसके साथ-साथ उन्हें यह विदित था कि जब कभी भी शिरडी में कोई नवीन कार्यक्रम रचा जाता था, तब बाबा इसी प्रकार कुपित या क्रुदृ हो ही जाया करते थे । इसलिये वे सब स्तब्ध ही रहे । इधर राधाकृष्णमाई भी भयभीत थी कि कही बाबा पालना न तोड़-फोड़ डालें, इसलिये उन्होंने काका महाजनी से पालना हटाने के लिए कहा । परन्तु बाबा ने ऐसा करने से उन्हें रोका । कुछ समय पश्चात् बाबा शांत हो गये और उस दिन की महापूजा और आरती का कार्यक्रम निर्विध्र समाप्त हो गया । उसके बात काका महाजनी ने बाबा से पालना उतारने की अनुमति माँगी परन्तु बाबा ने अस्वीकृत करते हुये कहा कि अभी उत्सव सम्पूर्ण नहीं हुआ है । अगने दिन गोपाल काला उत्सव मनाया गया, जिसके पश्चात् बाबा ने पालना उतारने की आज्ञा दे दी । उत्सव में दही मिश्रित पौहा एक मिट्टी के बर्तन में लटका दिया जाता है और कीर्तन समाप्त होने पर वह बर्तन फोड़ दिया जाता है, और प्रसाद के रुप में वह पौहा सब को वितरित कर दिया जाता है, जिस प्रकार कि श्री कृष्ण ने ग्वालों के साथ किया था । रामनवमी उत्सव इसी तरह दिन भर चलता रहा । दिन के समय दो ध्वजों जुलूस और रात्रि के समय चन्दन का जुलूस बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ निकाला गया । इस समय के पश्चात ही उरुस का उत्सव रामनवमी के उत्सव में परिवर्तित हो गया । अगले वर्ष (सन् 1912) से रामनवमी के कार्यक्रमों की सूची में वृदिृ होने लगी । श्रीमती राधाकृष्णमाई ने चैत्र की प्रतिपदा से नामसप्ताह प्रारम्भ कर दिया । (लगातार दिन रात 7 दिन तक भगवत् नाम लेना नामसप्ताह कहलाता है) सब भक्त इसमें बारी-बारी से भागों से भाग लेते थे । वे भी प्रातःकाल सम्मिलित हो जाया करते थीं । देश के सभी भागों में रामनवमी का उत्सव मनाया जाता है । इसलिये अगले वर्ष हरिदास के मिलने की कठिनाई पुनः उपस्थित हुई, परन्तु उत्सव के पूर्व ही यह समस्या हल हो गई । पाँच-छः दिन पूर्व श्री महाजनी की बाला बुवा से अकस्मात् भेंट हो गी । बुवासाहेब अधुनिक तुकाराम के नाम से प्रसिदृ थे और इस वर्ष कीर्तन का कार्य उन्हें ही सौंपा गया । अगले वर्ष सन् 1913 में श्री हरिदास (सातारा जिले केबाला बुव सातारकर) बृहद्सिदृ कवटे ग्राम में प्लेग का प्रकोप होने के कारण अपने गाँव में हरिदास का कार्य नहीं कर सकते थे । इस इस वर्ष वे शिरडी में आये । काकासाहेब दीक्षित ने उनके कीर्तन के लिये बाबा से अनुमति प्राप्त की । बाबा ने भी उन्हें यथेष्ट पुरस्कार दिया । सन् 1914 से हरिदास की कठिनाई बाबा ने सदैव के लिये हल कर दी । उन्होंने यह कार्य स्थायी रुप से दासगणू महाराज के सौंप दिया । तब से वे इस कार्य को उत्तम रीति से सफलता और विदृतापूर्वक पूर्ण लगन से निभाते रहे । सन् 1912 से उत्सव के अवसर पर लोगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृदि होने लगी । चैत्र शुक्ल अष्टमी से दृदशी तक शिरडी में लोगों की संख्या में इतनी अधिक वृदि हो जाया करती थी, मानो मधुमक्खी का छत्ता ही लगा हो । दुकानों की संख्या में बढ़ती हो गई । प्रसिदृ पहलवानों की कुश्तियाँ होने लगी । गरीबों को वृहद् स्तर पर भोजन कराया जाने लगा । राधाकृष्णमाई के घोर परिश्रम के फलस्वरुप शिरडी को संस्थान का रुप मिला । सम्पत्ति भी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी । एक सुन्दर घोड़ा, पालकी, रथ ओर चाँदी के अन्य पदार्थ, बर्तन, पात्र, शीशे इत्याति भक्तों ने उपहार में भेंट किये । उत्सव के अवसर पर हाथी भी बुलाया जाता था । यघपि सम्पत्ति बहुत बढ़ी, परन्तु बाबा उल सब से सदा साधारण वेशभूषा घारण करते थे । यह ध्यान देने योग्य है कि जुलूस तथा उत्सव में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही साथ-साथ कार्य करते थे । परन्तु आज तक न उनमें कोई विवाद हुआ और न कोई मतभेद ही । पहनेपहन तो लोगों की संख्या 5000-7000 के लगभग ही होता थी । परन्तु किसी-किसी वर्ष तो यह संख्या 75000 तक पहुँच जाती थी । फिर भी न कभी कोई बीमारी फैली और न कोई दंगा ही हुआ । 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

श्री साई सच्चरित्र



श्री साई सच्चरित्र

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श्री साई सच्चरित्र अध्याय 1

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 2


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Sai Aartian साईं आरतीयाँ