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श्री साईं तत्त्व-रत्नावली
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1. बाबा! जो अमृत वर्षा आप करते हैं, उसका अब तक हम केवल अनुमान ही लगा सकते थे। इसका वृतांत तो दास गणु महाराज ने अपनी पुस्तक "भक्त लीलामृत" में कलमबद्घ किया है परन्तु आप हमें यह बताने की कृपा करें कि हम इस पर नियमित रूप से ध्यान कैसे लगाये?
2. हे गुरुराया! हम तो सांसारिक जीव है और संसार की यात्रा दुष्टता से पूर्ण है। जीवन यापन के लिए स्त्रियों और पुरुषों को दिन रात मेहनत करनी पड़ती है।
3. गुरु महाराज ने करुणापूर्ण शब्दों में उत्तर द
िया: तुम चिंता क्यों करते हो? मेरे द्वारा उच्चारित अमृत वचनों के तत्त्व पर विचार करते रहने से ही तुम्हें सांसारिक बन्धनों से मुक्ति मिल जायेगी।
4. ऐसा कहते हुए गुरु बोलते गए और उन ज्ञानपूर्ण शब्दों को मैंने अपने अंतःकरण में उतार लिया और उन्हें मोतियों की माला में गूँथ लिया। हे भक्तगण इस माला को श्रद्धापूर्वक एवं प्रेमपूर्वक धारण करो।
5. इश्वर की सत्ता है और वो सब जगह व्याप्त है तुम इस सत्य में पूर्ण विश्वास रखो। इश्वर नहीं है इस विचार को नकार दो। और यह अवश्य ही जान लो कि इश्वर से बड़ा भी कोई नहीं है। (इश्वर है इस कथन को सत्य मानो और इश्वर नहीं है इस कथन को असत्य मानो। पूर्ण रूपेण विश्वास रखो कि इश्वर से बड़ा भी कोई नहीं है।)
6. इश्वर ही उत्पत्तिकर्ता है और वही संचालनकर्ता भी है। इश्वर ही उबारते (उठाते) है और इश्वर ही वह लोक ले जाते है जहाँ मृत्यु का वास है (मृत्युलोक में)।
7. इश्वर की इच्छा बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। सबूरी (धैर्य) रखो और इश्वर की इच्छा से संतोष रखो (संतोषपूर्वक उस स्थिति में रहो जिस में इश्वर की इच्छा हो)।
8. इश्वर की महिमा अपरम्पार है और तर्क का इसमें कोई स्थान नहीं है। इश्वर की अद्वितीय लीलाओं को केवल एक अनन्य भक्त ही समझता है।
9. केवल इश्वर से ही डरो और शुद्ध आचरण का पथ कभी मत छोड़ो। विवेक के द्वारा भलाई और बुराई के प्रति सदैव सजग रहो।
10. अपना कर्त्तव्य सदैव निभाओ और कर्तापन की भावना से उत्तपन हुए अभिमान को कभी मन में मत पनपने दो। सदैव विशवास रखो कि इश्वर ही कर्ता है और समस्त कार्यों का फल हमेशा इश्वर को अर्पण करो तब कर्मों के बंधन में नहीं बंधोगे और जन्म और मरण का भय नहीं सताएगा (जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाओगे)।
11. तब ऋणानुबंध (पूर्व जन्मों के कर्मों का बंधन जिनके कारण वर्तमान जन्म में सुख और दुःख की अनुभूति होती है) का पतन हो जायेगा और तुम सदा के लिए मुक्त हो जाओगे।
12. सब जगह इश्वर का ही वास है और सब में (ह्रदय) इश्वर ही व्याप्त (छिपे) है। अक्षरशः (अवश्य में) इश्वर ही सब जीव-जंतुओं में समाये हुए हैं इसलिए उनके प्रति अपने ह्रदय में करुणा रखो।
13. प्रत्येक के साथ सद्भावपूर्ण (मैत्रीपूर्ण) व्यवहार रखो और वाद-विवाद में मत पड़ो (वाद-विवाद से सदा दूर रहो)। ना तो किसी की बुराई करो और ना ही किसी से (एक दूसरे से) मुकाबला ही करो।
14. सदैव सबकी बात शांति और ध्यानपूर्वक सुनो। कभी भी उन बातों से मत घबराओ क्योंकि उनके शब्द कभी भी तुम्हारे शरीर को भेद नहीं सकते।
15. अपना कर्त्तव्य ध्यानपूर्वक निभाओ और दूसरे क्या करते हैं उस पर ध्यान मत दो। दूसरों के विषय में सोच विचार कर हम अपनी रातों की नींद क्यों खराब करें?
16. जो जैसा बोता है अवश्य ही वह वैसा ही फल पाता है इसलिए क्यों कोई चिंता करे (महसूस करे)? कर्त्तव्य के क्षेत्र में शरीर विघटित हो जाता है इसलिए खाली बैठकर (और ऐश्वर्य में) समय बर्बाद मत करो।
17. हर समय इश्वर के नाम का स्मरण करते रहो और पवित्र ग्रंथों का पठन पाठन (अध्ययन) सदा करते रहो। सुस्वादु भोजन और यात्राओं से दूर रहो और अपना ध्यान सदैव इश्वर पर केन्द्रित करो।
18. जो भक्त इसका नित्य प्रति पाठ करेगा और इसे अपने आचरण में लाएगा अवश्य ही इश्वर की उस पर अपार कृपा रहेगी और इश्वर उसकी सदैव रक्षा करेंगे। गुरु को प्रणाम।