Tuesday, December 29, 2015

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 43 & 44


श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 43 & 44 
महासमाधि की ओर


पूर्व तैयारी-समाधि मन्दिर, ईट का खंडन, 72 घण्टे की समाधि, जोग का सन्यास, बाबा के अमृततुल्य वचन ।
इन 43 और 44 अध्यायों में बाबा के निर्वाण का वर्णन किया गया है, इसलिये वे यहाँ संयुक्त रुप से लिखे जा रहे है ।

पूर्व तैयारी - समाधि मन्दिर
हिन्दुओं में यह प्रथा प्रचलित है कि जब किसी मनुष्य का अन्तकाल निकट आ जाता है तो उसे धार्मिक ग्रन्थ आदि पढ़कर सुनाये जाते है । इसका मुख्य कारण केवल यही है कि जिससे उसका मन सांसारिक झंझटों से मुक्त होकर आध्यात्मिक विषयों में लग जाय और वह प्राणी कर्मवश अगले जन्म में जिस योनि को धारण करे, उसमें उसे सदगति प्राप्त हो । सर्वसाधारण को यह विदित ही है कि जब राजा परीक्षित को एक ब्रहृर्षि पुत्र ने शाप दिया और एक सप्ताह के पश्चात् ही उनका अन्तकाल निकट आया तो महात्मा शुकदेव ने उन्हें उस सप्ताह में श्री मदभागवत पुराण का पाठ सुनाया, जिससे उनको मोक्ष की प्राप्ति हुई । यह प्रथा अभी भी अपनाई जाती है । महानिर्वाण के समय गीता, भागवत और अन्य ग्रन्थों का पाठ किया जाता है । बाबा तो स्वयं अवतार थे, इसलिये उन्हें बाहृ साधनों की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु केवल दूसरों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने के हेतु ही उन्होंने इस प्रथा की उपेक्षा नहीं की । जब उन्हें विदित हो गया कि मैं अब शीघ्र इस नश्वर देह को त्याग करुँगा, तब उन्होंने श्री. वझे को रामविजय प्रकरण सुनाने की आज्ञा दी । श्री. वझे ने एक सप्ताह प्रतिदिन पाठ सुनाया । तत्पश्चात ही बाबा ने उन्हें आठों प्रहर पाठ करने की आज्ञा दी । श्री. वझे ने उस अध्याय की द्घितीय आवृति तीन दिन में पूर्ण कर दी और इस प्रकार 11 दिन बीत गये । फिर तीन दिन और उन्होंने पाठ किया । अब श्री. वझे बिल्कुल थक गये । इसलिये उन्हें विश्राम करने की आज्ञा हुई । बाबा अब बिलकुल शान्त बैठ गये और आत्मस्थित होकर वे अन्तिम श्रण की प्रतीक्षा करने लगे । दो-तीन दिन पूर्व ही प्रातःकाल से बाबा ने भिक्षाटन करना स्थगित कर दिया और वे मसजिद में ही बैठे रहने लगे । वे अपने अन्तिम क्षण के लिये पूर्ण सचेत थे, इसलिये वे अपने भक्तों को धैर्य तो बँधाते रहते, पर उन्होंने किसी से भी अपने महानिर्वाण का निश्चित समय प्रगट न किया । इन दिनों काकासाहेब दीक्षित और श्रीमान् बूटी बाबा के साथ मसजिद में नित्य ही भोज करते थे । महानिर्वाण के दिन (15 अक्टूबर को) आरती समाप्त होने के पश्चात् बाबा ने उन लोगों को भी अपने निवासस्थान पर ही भोजन करके लौटने को कहा । फिर भी लक्ष्मीबाई शिंदे, भागोजी शिंदे, बयाजी, लक्ष्मण बाला शिम्पी और नानासाहेब निमोणकर वहीं रह गये । शामा नीचे मसजिद की सीढ़ियों पर बैठे थे । लक्ष्मीबाई शिन्दे को 9 रुपये देने के पश्चात् बाबा ने कहा कि मुझे मसजिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिये मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहाँ मैं सुखपूर्वक रहूँगा । ये ही अन्तिम शब्द उनके श्रीमुख से निकले । इसी समय बाबा बयाजी के शरीर की ओर लटक गये और अन्तिम श्वास छोड़ दी । भागोजी ने देखा कि बाबा की श्वास रुक गई है, तब उन्होंने नानासाहेब निमोणकर को पुकार कर यह बात कही । नानासाहेब ने कुछ जल लाकर बाबा के श्रीमुख में डाला, जो बाहर लुढ़क आया । तभी उन्होंने जोर से आवाज लाई अरे । देवा । तब बाबा ऐसे दिखाई पड़े, जैसे उन्होंने धीरे से नेत्र खोलकर धीमे स्वर में ओह कहा हो । परन्तु अब स्पष्ट विदित हो गया कि उन्होंने सचमुच ही शरीर त्याग दिया है ।
बाबा समाधिस्थ हो गये – यह हृदयविदारक दुःसंवाद दावानल की भाँति तुरन्त ही चारों ओर फैल गया । शिरडी के सब नर-नारी और बालकगण मसजिद की ओर दौड़े । चारों ओर हाहाकार मच गया । सभी के हृदय पर वज्रपात हुआ । उनके हृदय विचलित होने लगे । कोई जोर-जोर से चिल्लाकर रुदन करने लगा । कोई सड़कों पर लोटने लगा और बहुत से बेसुध होकर वहीं गिर पड़े । प्रत्येक की आँखों से झर-जर आँसू गिर रहे थे । प्रलय काल के वातावरण में तांडव नृत्य का जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है, वही गति शिरडी के नर-नारियों के रुदन से उपस्थित हो गई । उनके इस महान् दुःख में कौन आकर उन्हें धैर्य बँधाता, जब कि उन्होंने साक्षात् सगुण परब्रहृ का सानिध्य खो दिया था । इस दुःख का वर्णन भला कर ही कौन सकता है ।
अब कुछ भक्तों को श्री साई बाबा के वचन याद आने लगे । किसी ने कहा कि महाराज (साई बाबा) ने अपने भक्तों से कहा था कि भविष्य में वे आठ वर्ष के बालक के रुप में पुनः प्रगट होंगे । ये एक सन्त के वचन है और इसलिये किसी को भी इन पर सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि कृष्णावतार में भी चक्रपाणि (भगवान विष्णु) ने ऐसी ही लीला की थी । श्रीकृष्ण माता देवकी के सामने आठ वर्ष की आयु वाले एक बालक के रुप में प्रगट हुये, जिनका दिव्य तेजोमय स्वरुप था और जिनके चारों हाथों में आयुध (शंख, चक्र, गटा और पदम) सुशोभित थे । अपने उस अवतार में भगवान श्रीकृष्ण ने भू-भार हलका किया था । साई बाबा का यह अवतार अपने बक्तों के उत्थान के लिये हुआ था । तब फिर संदेह की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है । सन्तों की कार्यप्रणाली अगम्य होती है । साई बाबा का अपने भक्तों के साथ यह संपर्क केवल एक ही पीढ़ी का नहीं, बल्कि यह उनका पिछले 72 जन्मों का संपर्क है । ऐसा प्रतीतत होता है कि इस प्रकार का प्रेम-सम्बन्ध विकसित करके महाराज (श्रीसाईबाबा) दौरे पर चले गये और भक्तों को दृढ़ विश्वास है कि वे शीघ्र ही पुनः वापस आ जायेंगें ।
अब समस्या उत्पन्न हुई कि बाबा के शरीर की अन्तिम क्रिया किस प्रकार की जाय । कुछ यवन लोग कहने लगे कि उनके शरीर को कब्रिस्तान में दफन कर उसके ऊपर एक मकबरा बना देना चाहिये । खुशालचन्द और अमीर शक्कर की भी यही धारणा थी, परन्तु ग्राम्य अधिकारी श्री. रामचन्द्र पाटील ने दृढ़ और निश्चयात्मक स्वर में कहा कि तुम्हारा निर्णय मुझे मान्य नहीं है । शरीर को वाड़े के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं रखा जायेगा । इस प्रकार लोगों में मतभेद उत्पन्न हो गया और वह वादविवाद 36 घण्टों तक चलता रहा ।
बुधवार के दिन प्रातःकाल बाबा ने लक्ष्मण मामा जोशी को स्वप्न दिया और उन्हें अपने हाथ से खींचते हुए कहा कि शीघ्र उठो, बापूसाहेब समझता है कि मैं मृत हो गया हूँ । इसलिये वह तो आयेगा नहीं । तुम पूजन और कांकड़ आरती करो । लक्ष्मण मामा ग्राम के ज्योतिषी, शामा के मामा तथा एक कर्मठ ब्राहृमण थे । वे नित्य प्रातःकाल बाबा का पूजन किया करते, तत्पश्चात् ही ग्राम देवियों और देवताओं का । उनकी बाबा पर दृढ़ निष्ठा थी, इसलिये इस दृष्टांत के पश्चात् वे पूजन की समस्त सामग्री लेकर वहाँ आये और ज्यों ही उन्होंने बाबा के मुख का आवरण हटाया तो उस निर्जीव अलौकिक महान् प्रदीप्त प्रतिभा के दर्शन कर वे स्तब्ध रह गये, मानो हिमांशु ने उन्हें अपने पाश में आबदृ करके जड़वत् बना दिया हो । स्वप्न की स्मृति ने उन्हें अपना कर्तव्य करने को प्रेरित कर दिया । फिर उन्होंने मौलवियों के विरोध की कुछ भी चिंता न कर विधिवत् पूजन और कांकड़ आरती की । दोपहर को बापूसाहेब जोन भी अन्य भक्तों के साथ आये और सदैव की भांति मध्याहृ की आरती की । बाबा के अन्तिम श्री-वचनों को आदरपूर्वक स्वीकार करके लोगों ने उनके शरीर को बूटी वाड़े में ही रखने का निश्चय किया और वहाँ का मध्य भाग खोदना आरम्भ कर दिया । मंगलवार की सन्ध्या को राहाता से सब-इन्स्पेक्टर और भिन्न-भिन्न स्थानो से अनेक लोग वहाँ आकर एकत्र हुए । सब लोगों ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया । दूसरे दिन प्रातःकाल बम्बई से अमीर भाई और कोपरगाँव से मामलेदार भी वहां आ पहुँचे । उन्होंने देखा कि लोग अभी भी एकमत नहीं है । तब उन्होंने मतदान करवाया और पाया कि अधिकांश लोगों का बहुमत वाड़े के पक्ष में ही है । फिर भी वे इस विषय में कलेक्टर की स्वीकृति अति आवश्यक समझते थे । तब काकासाहेब स्वयं अहमदनगर जाने को उघत् हो गये, परन्तु बाबा की प्रेरणा से विरक्षियों ने भी प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन सबने मिलकर अपना मत भी वाड़े के ही पक्ष में दिया । अतः बुधवार की सन्ध्या को बाबा का पवित्र शरीर बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ वाड़े मे लाया गया और विधिपूर्वक उस स्थान पर समाधि समाधि बना दी गई, जहाँ मुरलीधर की मूर्ति स्तापित होने को थी । सच तो यह है कि बाबा मुरलीधर बन गये और वाड़ा समाधि-मन्दिर तथा भक्तों का एक पवित्र देवस्थान, जहाँ अनेको भक्त आया जाया करते थे और अभी भी नित्य-प्रति वहाँ आकर सुख और शान्ति प्राप्त करते है । बालासाहेब भाटे और बाबा के अनन्य भक्त श्री. उपासनी ने बाबा की विधिवत् अन्तिम क्रिया की ।
जैसा प्रोफेसर नारके को देखने में आया, यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि बाबा का शरीर 36 घण्टे के उपरांत भी जड़ नहीं हुआ और उनके शरीर का प्रत्येक अवयव लचीला (Elastic) बना रहा, जिससे उनके शरीर पर से कफनी बिना चीरे हुए सरलता से निकाली जा सकी ।
ईंट का खण्डन
बाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक अपशकुन हुआ, जो इस घटना की पूर्वसूचना-स्वरुप था । मसजिद में एक पुरानी ईंट थी, जिस पर बाबा अपना हाथ टेककर रखते थे । रात्रि के समय बाबा उस पर सिर रखकर शयन करते थे । यह कार्यक्रम अने वर्षों तक चला । एक दिन बाबा की अनुपस्थिति में एक बालक ने मसजिद में झाड़ू लगाते समय वह ईंट अपने हाथ में उठाई । दुर्भाग्यवश वह ईंट उसके हाथ से गिर पड़ी और उसके दो टुकड़े हो गये । जब बाबा को इस बात की सूचना मिली तो उन्हें उसका बड़ा दुःख हुआ और वे कहने लगे कि यह ईंट नहीं फूटी है, मेरा भाग्य ही फूटकर छिन्न-भिन्न हो गया है । यह तो मेरी जीवनसंगिनी थी और इसको अपने पास रखकर मैं आत्म-चिंतन किया करता था । यह मुजे अपने प्राणों के समान प्रिय थी और उसने आज मेरा सात छोड़ दिया है । कुछ लोग यहाँ शंका कर सकते है कि बाबा को ईंट जैसी एक तुच्छ वस्तु के लिये इतना शोक क्यों करना चाहिये । इसका उत्तर हेमाडपंत इस प्रकार देते है कि सन्त जगत के उद्घार तथा दीन और अनाक्षितों के कल्याणार्थ ही अवतीर्ण होते है । जब वे नरदेह धारण करते है और जनसम्पर्कमें आते है तो वे इसी प्रकार आचरण किया करते है, अर्थात् बाहृ रुप से वे अन्य लोगों के समान ही हँसते, खेलते और रोते है, परन्तु आन्तरिक रुप से वे अपने अवतार-कार्य और उसके ध्येय के लिये सदैव सजग रहते है ।
72 घण्टे की समाधि
इसके 32 वर्ष पूर्व भी बाबा ने अपनी जीवन-रेखा पार करने का एक प्रयास किया था । 1886 में मार्गशीर्ष को पूर्णिमा के दिन बाबा कोदमा से अधिक पीड़ा हुई और इस व्याधि से छुटकारा पाने के लिये उन्होंने अपने प्राण ब्रहृमांड में चढ़ाकर समाधि लगाने का विचार किया । अतएव उन्होंने भगत म्हालसापति से कहा कि तुम मेरे शरीर की तीन दिन तक रक्षा करना और यदि मैं वापस लौट आया तो ठीक ही है, नहीं तो उस स्थान (एक स्थान को इंगित करते हुए) पर मी समाधि बना देना और दो ध्वजायें चिन्ह स्वरुप फहरा देना । ऐसा कहकर बाबा रात में लगभग दस बजे पृथ्वी पर लेट गये । उनका श्वासोच्छवास बन्द हो गया और ऐसा दिखाई देने लगा कि जैसे उनके शरीर में प्राण ही न हो । सभी लोग, जिनमें ग्रामवासी भी थे, वहाँ एकत्रित हुए और शरीर परीक्षण के पश्चात शरीर को उनके द्घारा बताये हुए स्थान पर समाधिस्थ कर देने का निश्चय करने लगे । परन्तु भगत म्हालसापति ने उन्हें ऐसा करने से रोका और उनके शरीर को अपनी गोद में रखकर वे तीन दिन तक उसकी रक्षा करते रहे । तीन दिन व्यतीत होने पर रात को लगभग तीन बजे प्राण लौटने के चिन्ह दिखलाई पड़ने लगे । श्वसोच्छ्वास पुनः चालू हो गया और उनके अंग-प्रत्यंग हिलने लगे । उन्होंने नेत्र खोल दिये और करवट लेते हुए वे पुनः चेतना में आ गये ।
इस प्रसंग तथा अन्य प्रसंगों पर दृष्टिपात कर अब हम यह पाठकों पर छोड़ते है कि वे ही इसका निश्चय करें कि क्या बाबा अन्य लोगों की भाँति ही साढ़े तीन हाथ लम्बे एक देहधारी मानव थे, जिस देह को उन्होंने कुछ वर्षों तक धारण करने के पश्चात् छोड़ दिया, या वे स्वयं आत्मज्योतिस्वरुप थे । पंच महाभूतों से शरीर निर्मित होने के कारण उसका नाश और अन्त तो सुनिश्चित है, परन्तु जो सद्घस्तु (आत्मा) अन्तःकरण में है, वही यथार्थ में सत्य है । उसका न रुप है, न अंत है और न नाश । यही शुदृ चैतन्य घन या ब्रहृ – इन्द्रियों और मन पर शासन और नियंत्रण रखने वाला जो तत्व है, वही साई है, जो संसार के समस्त प्राणियों में विघमान है और जो सर्वव्यापी है । अपना अवतार-कार्य पूर्ण करने के लिये ही उन्होंने देह-धारण किया था और वह कार्य पूर्ण होने पर उन्होंने उसे त्याग कर पुनः अपना शाश्वत और अनंत स्वरुप धारण कर लिया । श्री दत्तात्रेय के पूर्ण अवतार-गाणगापुर के श्रीनृसिंह सरस्वती के समान श्री साई भी सदैव वर्तमान है । उनका निर्वाण तो एक औपचारिक बात है । वे जड़ और चेतन सभी पदार्थों में व्याप्त है तथा सर्व भूतों के अन्तःकरण के संचालक और नियंत्रणकर्ता है । इसका अभी भी अनुभव किया जा सकता है और अनेकों के अनुभव में आ भी चुका है, जो अनन्य भाव से उनके शरणागत हो चुके है और जो पूर्ण अंतःकरण से उनके उपासक है ।
यघपि बाबा का स्वरुप अब देखने को नहीं मिल सकता है, फिर भी यदि हम शिरडी को जाये तो हमें वहाँ उनका जीवित-सदृश चित्र मसजिद (द्घारकामाई) को शोभायमान करते हुए अब भी देखने में आयेगा । यह चित्र बाबा के एक प्रसिदृ भक्त-कलाकार श्री. शामराव जयकर ने बनाया था । एक कल्पनाशील और भक्त दर्शक को यह चित्र अभी भी बाबा के दर्शन के समान ही सन्तोष और सुख पहुँचाता है । बाबा अब देह में स्थित नहीं है, परन्तु वे सर्वभूतों में व्याप्त है और भक्तों का कल्याण पूर्ववत् ही करते रहे है, करते रहेंगे, जैसा कि वे सदेह रहकर किया करते थे । बाबा सन्तों के समान अमर है, चाहे वे नरदेह धारण कर ले, जो कि एक आवरण मात्र है, परन्तु वे तो स्वयं भगवान श्री हरि है, जो समय-समय पर भूतल पर अवतीर्ण होते है ।
बापूसाहेब जोग का सन्यास
जोग के सन्यास की चर्चा कर हेमाडपंत यह अध्याय समाप्त करते है । श्री. सखाराम हरी उर्फ बापूसाहेब जोग पूने के प्रसिदृ वारकरी विष्णु बुवा जोग के काका थे । वे लोक कर्म विभाग (P.W.D.) में पर्यवेक्षक (Supervisor) थे । सेवानिवृति के पश्चात वे सपत्नीक शिरडी में आकर रहने लगे । उनके कोई सन्तान न थी । पति और पत्नी दोनों की ही साई चरणों में श्रद्घा थी । वे दोनों अपने दिन उनकी पूजा और सेवा करने में ही व्यतीत किया करते थे । मेघा की मृत्यु के पश्चात बापूसाहेब जोग ने बाबा की महासमाधि पर्यन्त मसजिद और चावड़ी में आरती की । उनको साठे बाड़ा में श्री ज्ञानेश्वरी और श्री एकनाथी भागवत का वाचन तथा उसका भावार्थ श्रोताओं को समझाने का कार्य भी दिया गया था । इस प्रकार अनेक वर्षों तक सेवा करने के पश्चात उन्होंने एक बार बाबा से प्रार्थना की कि – हे मेरे जीवन के एकमात्र आधार । आपके पूजनीय चरणों का दर्शन कर समस्त प्राणियों को परम शांति का अनुभव होता है । मैं इन श्री चरणों की अनेक वर्षों से निरंतर सेवा कर रहा हूँ, परन्तु क्या कारण है कि आपके चरणों की छाया के सन्निकट होते हुए भी मैं उनकी शीतलता से वंचित हूँ । मेरे इस जीवन में कौन-सा सुख है, यदि मेरा चंचल मन शान्त और स्थिर बनकर आपके श्रीचरणों में मग्न नहीं होता । क्या इतने वर्षों का मेरा सन्तसमागम व्यर्थ ही जायेगा । मेरे जीवन में वह शुभ घड़ी कब आयेगी, जब आपकी मुझ पर कृपा दृष्टि होगी ।
भक्त की प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई । उन्होंने उत्तर दिया कि थोड़े ही दिनों में अब तुम्हारे अशुभ कर्म समाप्त हो जायेंगे तथा पाप और पुण्य जलकर शीघ्र ही भस्म हो जायेंगे । मैं तुम्हें उस दिन ही भाग्यशाली समझूँगा, जिस दिन तुम ऐन्द्रिक-विषयों को तुच्छ जानकर समस्त पदार्थों से विरक्त होकर पूर्ण अनन्य भाव से ईश्वर भक्ति कर सन्यास धारण कर लोगे । कुछ समय पश्चात् बाबा के वचन सत्य सिदृ हुये । उनकी स्त्री का देहान्त हो जाने पर उनकी अन्य कोई आसक्ति शेष न रही । वे अब स्वतंत्र हो गये और उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व सन्यास धारण कर अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया ।
बाबा के अमृततुल्य वचन
दयानिधि कृपालु श्री साई समर्थ ने मस्जिद (द्घारिकामाई) में अनेक बार निम्नलिखित सुधोपम वचन कहे थे :-
जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता है, वह सदैव मेरा दर्शन पाता है । उसके लिये मेरे बिना सारा संसार ही सूना है । वह केवल मेरा ही लीलागान करता है । वह सतत मेरा ही ध्यान करता है और सदैव मेरा ही नाम जपता है । जो पूर्ण रुप से मेरी शरण में आ जाता है और सदा मेरा ही स्मरण करता है, अपने ऊपर उसका यह ऋण मैं उसे मुक्ति (आत्मोपलबव्धि) प्रदान करके चुका चुका दूँगा । जो मेरा ही चिन्तन करता है और मेरा प्रेम ही जिसकी भूख-प्यास है और जो पहले मुझे अर्पित किये बिना कुछ भी नहीं खाता, मैं उसके अधीन हूँ । जो इस प्रकार मेरी शरण में आता है, वह मुझसे मिलकर उसकी तरह एकाकार हो जाता है, जिस तरह नदियाँ समुद्र से मिलकर तदाकार हो जाती है । अतएव महत्ता और अहंकार का सर्वथा परित्याग करके तुम्हें मेरे प्रति, जो तुम्हारे हृदय में आसीन है, पूर्ण रुप से समर्पित हो जाना चाहिये ।
यह मैं कौन है ।
श्री साईबाबा ने अनेक बार समझाया कि यह मैं कौन है । इस मैं को ढ़ूँढने के लिये अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है । तुम्हारे नाम और आकार से परे मैं तुम्हारे अन्तःकरण और समस्त प्राणियों में चैतन्यघन स्वरुप में विघमान हूँ और यहीं मैं का स्वरुप है । ऐसा समझकर तुम अपने तथा समस्त प्राणियों में मेरा ही दर्शन करो । यदि तुम इसका नित्य प्रति अभ्यास करोगे तो तुम्हें मेरी सर्वव्यापकता का अनुभव शीघ्र हो जायेगा और मेरे साथ अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी ।
अतः हेमाडपन्त पाठकों को नमन कर उनसे प्रेम और आदरपूर्वक विनम्र प्रार्थना करते है कि उन्हें समस्त देवताओं, सन्तों और भक्तों का आदर करना चाहिये । बाबा सदैव कहा करते थे कि जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है, वह मेरे हृदय को दुःख देता है तथा मुझे कष्ट पहुँचाता है । इसके विपरीत जो स्वयं कष्ट सहन करता है, वह मुझे अधिक प्रिय है । बाबा समस्त प्राणयों में विघमान है और उनकी हर प्रकार से रक्षा करते है । समस्त जीवों से प्रेम करो, यही उनकी आंतरिक इच्छा है । इस प्रकार का विशुद्घ अमृतमय स्त्रोत उनके श्री मुख से सदैव झरता रहता था । अतः जो प्रेमपूर्वक बाबा का लीलागान करेंगे या उन्हें भक्तिपूर्वक श्रवण करेंगे, उन्हें साई से अवश्य अभिन्नता प्राप्त होगी ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

Humanity





Who is Shirdi Sai Baba?



Who is Shirdi Sai Baba?

Sai Baba, a Yogi, a great Indian Guru of modern times regarded by his devotees as a Saint. Hindu devotees see him as a Sadguru, an incarnation of Shiva or Dattathreya, while Muslim devotees see him as an enlightened Peer or Qutub. Baba's illustrious life as evidenced by well documented stories and miracles puts him in a unique place in the recent spiritual history of India. The first temple for Baba was built in Bhivpuri, Karjat. It is not uncommon to see at least one Shirdi Baba Mandir in every mid to large size city in present day India. In the United States and other countries, Baba Mandhir can be found in many major cities. Also you will find devotees in many parts of the globe and from different faiths, including Christians and Zoroastrians. 

The most important source of Baba's life comes from Shri Sai Satcharita, written in 1916 in Marathi, by Govindrao Raghunath Dabholkar, who Baba nicknamed Hemadpant. Another biographer, Ganesh Shrikrishna Khaparde described daily life of Baba. According to sources, very little is known about Baba's time and place of birth, family and early childhood. What is known is Baba grew to be a Fakir(meaning a member of Muslim holy sect, who lives by begging) among Fakirs, with his attire resembling that of a Fakir. Approximately at age 16, Baba came to the village of Shirdi (Ahmednagar district) of Maharashtra and spent most of his life in that area. In Shirdi, you will see Baba's grave (Samadhi) in the temple and also a mosque that he regularly visited. Around 1910, Baba's fame began to spread beyond the region, with people flocking from as far as Kolkatta. Baba took Samadhi (a state before nirvana in which there is no longer consciousness of self or of any object) on October 15, 1918.

What is unique about Baba?

Baba's uniqueness was in his practice of Advaitha Vedantha and Bhakthi Yoga, Jnana Yoga, and Karma Yoga and he shunned religious orthodoxy. His teachings included both Hinduism and Islam. For example, Baba named the mosque that he lived Dwarakamayi, and he often said "Sab ka Malik Ek," (One God governs All), and "Allah Malik"(God is King). Baba practiced an ascetic life and asked his followers to practice an ordinary family life. Important features in his teachings were: Shraddha (faith) and Saburi (patience) and performing one's duties without attachment to materialistic things and being content irrespective of situations. Baba emphasized a moral code: love, forgiveness, charity, contentment, inner peace, and devotion to God and Guru. In the mosque, Baba maintained a sacred fire that he referred to as "dhuni," from which came the custom of giving sacred ash "udhi" to visitors. 

Baba gave utmost importance to charity and act of sharing, and he said, "If any men or creature come to you, do not discourteously drive them away, receive them well and treat them with respect. Sri Hari will be certainly pleased if you give water to the thirsty, bread to the hungry, clothes to the naked, and your verandah to strangers to sit and rest." 

Baba's 11 Assurances to Devotees

No harm shall befall him who sets his foot on the soil of Shirdi.

He who comes to My Samadhi, his sorrow and suffering shall cease.

Though I be no more in flesh and blood, I shall ever protect My devotees.

Trust in Me and your prayer shall be answered.

Know that My Spirit is immortal. Know this for yourself.

Show unto Me he who sought refuge and been turned away.

In whatever faith men worship Me, even so do I render to them.

Not in vain is My Promise that I shall ever lighten your burden.

Knock, and the door shall open. Ask and ye shall be granted.

To him who surrenders unto Me totally I shall be ever indebted.

Blessed is he who has become one with Me.
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Monday, December 28, 2015

राधा कृष्ण की आरती


राधा कृष्ण की आरती 
ॐ जय श्री राधा जय श्री कृष्ण
श्री राधा कृष्णाय नमः .

घूम घुमारो घामर सोहे जय श्री राधा
पट पीताम्बर मुनि मन मोहे जय श्री कृष्ण 
जुगल प्रेम रस झम झम झमकै
श्री राधा कृष्णाय नमः .

राधा राधा कृष्ण कन्हैया जय श्री राधा
भव भय सागर पार लगैया जय श्री कृष्ण 
मंगल मूरति मोक्ष करैया
श्री राधा कृष्णाय नमः .
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ॐ नमो शिवाय


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Good Morning


Sunday, December 27, 2015

सत्यनारायण जी की आरती


सत्यनारायण जी की आरती  
जय लक्ष्मी रमणा, श्री लक्ष्मी रमणा।
सत्यनारायण स्वामी जन-पातक-हरणा।। जय..

रत्नजटित सिंहासन अद्भुत छबि राजै।
नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजै।। जय..

प्रकट भये कलि कारण, द्विज को दरस दियो।
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो।। जय...

दुर्बल भील कठारो, जिनपर कृपा करी।
चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी।। जय..

वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं।
सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं।। जय..

भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो।। जय..

ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी।
मनवांछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी।। जय..

चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा।
धूप-दीप-तुलसी से राजी सत्यदेवा।। जय..

श्री सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै।
तन-मन-सुख-सम्पत्ति मन-वांछित फल पावै।। जय..
जय लक्ष्मी रमणा....
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Sunday, December 20, 2015

श्री शिवरक्षा स्तोत्रम् (Shiv Raksha Stotram)


श्री शिवरक्षा स्तोत्रम् 
(Shiv Raksha Stotram)
। ॐ नमः शिवाय ।
अस्य श्रीशिवरक्षा-स्तोत्र-मन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः,
श्रीसदाशिवो देवता, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीसदाशिव-प्रीत्यर्थे शिवरक्षा-स्तोत्र-जपे विनियोगः ॥
चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् ।
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ॥ (१)
गौरी-विनायकोपेतं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नरः ॥ (२)
गङ्गाधरः शिरः पातु भालमर्द्धेन्दु-शेखरः ।
नयने मदन-ध्वंसी कर्णौ सर्प-विभूषणः ॥ (३)
घ्राणं पातु पुराराति-र्मुखं पातु जगत्पतिः ।
जिह्‍वां वागीश्‍वरः पातु कन्धरां शिति-कन्धरः ॥ (४)
श्रीकण्ठः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ विश्‍व-धुरन्धरः ।
भुजौ भूभार-संहर्त्ता करौ पातु पिनाकधृक् ॥ (५)
हृदयं शङ्करः पातु जठरं गिरिजापतिः ।
नाभिं मृत्युञ्जयः पातु कटी व्याघ्रजिनाम्बरः ॥ (६)
सक्थिनी पातु दीनार्त्त-शरणागत-वत्सलः ।
ऊरू महेश्‍वरः पातु जानुनी जगदीश्‍वरः ॥ (७)
जङ्घे पातु जगत्कर्त्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः ।
चरणौ करुणासिन्धुः सर्वाङ्गानि सदाशिवः ॥ (८)
एतां शिव-बलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स भुक्त्वा सकलान् कामान् शिव-सायुज्यमाप्नुयात् ॥ (९)
ग्रह-भूत-पिशाचाद्यास्त्रैलोक्ये विचरन्ति ये ।
दूरादाशु पलायन्ते शिव-नामाभिरक्षणात् ॥ (१०)
अभयङ्कर-नामेदं कवचं पार्वतीपतेः ।
भक्त्या बिभर्त्ति यः कण्ठे तस्य वश्यं जगत् त्रयम् ॥ (११)
इमां नारायणः स्‍वप्ने शिवरक्षां यथादिशत् ।
प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यस्तथालिखत् ॥ (१२)
(इति श्रीयाज्ञवल्क्य-प्रोक्तं शिवरक्षा-स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।)
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श्री राम स्तुति (Shri Ram Stuti)


श्री राम स्तुति 
(Shri Ram Stuti)

नमामि भक्त-वत्सलं, कृपालु-शील-कोमलम्। 
भजामि ते पदाम्बुजं, अकामिनां स्व-धामदम्।।1।। 
निकाम-श्याम-सुन्दरं, भवाम्बु-नाथ मन्दरम्। 
प्रफुल्ल-कंज-लोचनं, मदादि-दोष-मोचनम्।।2।। 
प्रलम्ब-बाहु-विक्रमं, प्रभो·प्रमेय-वैभवम्। 
निषंग-चाप-सायकं, धरं त्रिलोक-नायकम्।।3।। 
दिनेश-वंश-मण्डनम्, महेश-चाप-खण्डनम्। 
मुनीन्द्र-सन्त-रंजनम्, सुरारि-वृन्द-भंजनम्।।4।। 
मनोज-वैरि-वन्दितं, अजादि-देव-सेवितम्। 
विशुद्ध-बोध-विग्रहं, समस्त-दूषणापहम्।।5।। 
नमामि इन्दिरा-पतिं, सुखाकरं सतां गतिम्। 
भजे स-शक्ति सानुजं, शची-पति-प्रियानुजम्।।6।। 
त्वदंघ्रि-मूलं ये नरा:, भजन्ति हीन-मत्सरा:। 
पतन्ति नो भवार्णवे, वितर्क-वीचि-संकुले।।7।। 
विविक्त-वासिन: सदा, भजन्ति मुक्तये मुदा। 
निरस्य इन्द्रियादिकं, प्रयान्ति ते गतिं स्वकम्।।8।। 
तमेकमद्भुतं प्रभुं, निरीहमीश्वरं विभुम्। 
जगद्-गुरूं च शाश्वतं, तुरीयमेव केवलम्।।9।। 
भजामि भाव-वल्लभं, कु-योगिनां सु-दुलर्भम्। 
स्वभक्त-कल्प-पादपं, समं सु-सेव्यमन्हवम्।।10।। 
अनूप-रूप-भूपतिं, नतोऽहमुर्विजा-पतिम्। 
प्रसीद मे नमामि ते, पदाब्ज-भक्तिं देहि मे।।11।। 
पठन्ति से स्तवं इदं, नराऽऽदरेण ते पदम्। 
व्रजन्ति नात्र संशयं, त्वदीय-भक्ति-संयुता:।।12।।
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Saturday, December 19, 2015

श्री गणेशा पंचारातना स्तोत्रं – Sri Ganesha Pancharatna Stotram


श्री गणेशा पंचारातना स्तोत्रं 

मुदा करात्त मॊदकं सदा विमुक्ति साधकम् ।
कलाधरावतंसकं विलासिलॊक रक्षकम् ।
अनायकैक नायकं विनाशितॆभ दैत्यकम् ।
नताशुभाशु नाशकं नमामि तं विनायकम् ॥ 1 ॥
नतॆतराति भीकरं नवॊदितार्क भास्वरम् ।
नमत्सुरारि निर्जरं नताधिकापदुद्ढरम् ।
सुरॆश्वरं निधीश्वरं गजॆश्वरं गणॆश्वरम् ।
महॆश्वरं तमाश्रयॆ परात्परं निरन्तरम् ॥ 2 ॥
समस्त लॊक शङ्करं निरस्त दैत्य कुञ्जरम् ।
दरॆतरॊदरं वरं वरॆभ वक्त्रमक्षरम् ।
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करम् ।
मनस्करं नमस्कृतां नमस्करॊमि भास्वरम् ॥ 3 ॥
अकिञ्चनार्ति मार्जनं चिरन्तनॊक्ति भाजनम् ।
पुरारि पूर्व नन्दनं सुरारि गर्व चर्वणम् ।
प्रपञ्च नाश भीषणं धनञ्जयादि भूषणम् ।
कपॊल दानवारणं भजॆ पुराण वारणम् ॥ 4 ॥
नितान्त कान्ति दन्त कान्ति मन्त कान्ति कात्मजम् ।
अचिन्त्य रूपमन्त हीन मन्तराय कृन्तनम् ।
हृदन्तरॆ निरन्तरं वसन्तमॆव यॊगिनाम् ।
तमॆकदन्तमॆव तं विचिन्तयामि सन्ततम् ॥ 5 ॥
महागणॆश पञ्चरत्नमादरॆण यॊ‌உन्वहम् ।
प्रजल्पति प्रभातकॆ हृदि स्मरन् गणॆश्वरम् ।
अरॊगतामदॊषतां सुसाहितीं सुपुत्रताम् ।
समाहितायु रष्टभूति मभ्युपैति सॊ‌உचिरात् ॥
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श्री रामरक्षा स्तोत्र (Ramraksha Stotra)


श्री रामरक्षा स्तोत्र
श्री गणेशाय नमः
अस्य श्रीरामरक्षास्तोञ मंञस्य ।
बुधकौशिकऋषिः ।
अनुष्टुप छन्दः । सीता शक्तिः ।
श्रीमध्दनुमान् कीलकम् ।
श्रीरामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।
अथ ध्यानम् ।
ध्यायेदाजानबाहुं धृतशरधनुषं बध्दपद्मासनस्थं ।
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ।
वामाङ्कारुढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम् ॥
इति ध्यानम् ।
चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥
ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥२॥
सासीतूण धनुर्बाणपाणिं नक्तचरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत् त्रातु माविर्भूतमजं विभुम् ॥३॥
रामरक्षां पठेत् प्राज्ञः पापघ्नीं सर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघवः पातु भालं दशरथात्मजः ॥४॥
कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रियः श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सलः ॥५॥
जिव्हां विद्यानिधिःपातु कण्ठं भरतवन्दितः ।
स्कन्धौ दिव्यायुधःपातु भुजौ भग्नेशकार्मुकः ॥६॥
करौ सीतापतिःपातु हृदयं जामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः ॥७॥
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभुः ।
ऊरु रघूत्तमः पातु रक्षःकुल विनाशकृत ॥८॥
जानुनी सेतुकृत् पातु जङ्घे दशमुखान्तकः ।
पादौ बिभीषणश्रीदः पातु रामोऽखिलं वपुः ॥९॥
एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
सचिरायुः सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥१०॥
पातालभूतल व्योमचारिणश्छद्मचारिणः ।
न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥११॥
रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापै र्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥
जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् ।
यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था सर्व सिध्दयः ॥१३॥
वज्रपज्जरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम् ॥१४॥
आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः ।
तथा लिखितवान् प्रात प्रबुध्दो बुधकौशिकः ॥१५॥
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान् स नः प्रभुः ॥१६॥
तरुणौ रुपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥
शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्यताम् ।
रक्षः कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नौ रघूत्तमौ ॥१९॥
आत्तसज्य धनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसङ्गिनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥२०॥
संनध्दः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन् मनोरथोऽस्माकं रामः पातु स लक्ष्मणः ॥२१॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघुत्तमः ॥२२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।
जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥२३॥
इत्येतानि जपन् नित्यं मद्भक्तः श्रध्दयान्वितः ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशयः ॥२४॥
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिवैर्न ते संसारिणो नरः ॥२५॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेन्द्रं सत्यसन्धं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्तिं ।
वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥२६॥
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥२७॥
श्रीराम राम रघुनंदन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥
श्रीरामचंद्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचंद्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचंद्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचंद्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥
माता रामौ मत्पिता रामचंद्रः ।
स्वामी रामौ मत्सखा रामचंद्रः ।
सर्वस्वं मे रामचंद्रो दयालुर्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वंदे रघुनंदनम् ॥३१॥
लोकाभिरामं रणरङ्गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरुपं करुणाकरं तं श्रीरामचंद्र शरणं प्रपद्ये ॥३२॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेंद्रियं बुध्दिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकि कोकिलम् ॥३४॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥३५॥
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥३६॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्महं ।
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुध्दर ॥३७॥
रामरामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्त्रनामतत्त्युलं रामनाम वरानने ॥३८॥
इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ।
॥ श्रीसीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥
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शनि देवजी की आरती



शनि देवजी की आरती 

जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूरज के पुत्र प्रभु छाया महतारी॥ जय.॥

श्याम अंक वक्र दृष्ट चतुर्भुजा धारी।
नीलाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥ जय.॥

क्रीट मुकुट शीश रजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥ जय.॥

मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥ जय.॥

देव दनुज ऋषि मुनि सुमरिन नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी ॥जय.॥
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Friday, December 18, 2015

Saibaba



Saibaba always lives nearby ……...….. In our Hearts
Believe It or Not , Sai knows all that which happens
or is going to happen in our Life .

What our Tongue speaks , What our Ears Listen …..
Is the Holy grace of Sadguru Sai .
What we Breath …. Its blessings of Sai
.............How Our Heart beats …. Its Love of Sai


Whenever we get Let Down or Feel Tired in our Life
Sai is Our Strength Our Shelter Our Support 
Sai is those Caring hands of Mother.... 
..................Which always Cares for Us and guides 
the path of our Life .

Being Our Father .... Sai always lifts our Burdens of Life 
still We always think Ourselves to be the Doer 
Forgetting that the Only Doer of all that which happens 
around Us or in Our Life ........ Is Sadguru Sai .

The Leelas or The Presence of Saibaba is always Unseen 
Still everything happens as per His Holy Guidance 
Even a Leaf doesn"t Move unless Graced by Sadguru Sai

If we Leave aside Our Pride in our Life and Surrender before
the Sacred Feet of Sadguru Sai 
Sai will Grace Us by taking away the Instability of our Minds
thereby Blessing with Spiritual Feelings of Devotion in Us .

Let Us all Worship & Devote ourselves to
.............. the Holy Feet of Sadguru Sai ....... Offering our 
Faith and Patience in his Holy Grace 
.....................Sai will Remove all our Sins & Sorrows 
thereby bringing ............ Happiness in Our Life .

........................... omsairam ............................

WISHING ALL SAI DEVOTEES 
.....................................A BLESSED SADGURUS DAY

LET US ALL ENTER THE TEMPLE OF SAI
............................. THE PRESENCE OF OUR LOVING SAI 
BY LEAVING BEHIND 
........................ ANGER , PRIDE , HATRED & JEALOUSY
AND OFFER .............. ONLY OUR SHRADHHA & SABURI 
.................. BEFORE OUR LOVING SADGURU SAI
Rajiv Dube,

भुवनेश्वरी माता


!! भुवनेश्वरी माता की जय हो !!

प्राणी माया की अधीनता में रहकर उसके आज्ञानुसार ही चेष्टा करता है! वह माया परम तत्त्व के रूपमें सदा सम्मिलित रहती है! उस परम तत्त्व की आज्ञा पाकर प्राणियों को प्रेरित करना इसका नित्य का कार्य है! उस माया को सहचरी रूप में स्वीकार करनेवाली भगवती परमेश्वरी सदा साथ लिये रहती है! इसीलिए सच्चिदानन्दमय-विग्रह धारण करनेवाली उन भगवती को " मायेश्वरी " कहा जाता है! उनके ध्यान, पूजन, नमस्कार और जपमें सदा तत्पर रहना चाहिये! इससे अपनी दयालुता के कारण वे प्राणी को माया रहित बना देती है! अपनी अनुभूति प्रदान करके वे माया को हर लेती हैं! अतएव इन भगवती परमेश्वरी को " भुवनेशी " कहा गया है!!  मायिक गुणों से निवृत्त होने के लिये प्रसन्नतापूर्वक भगवती की उपासना करनी  चाहिये! 
जय माता की!!
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Thursday, December 17, 2015

Sadguru Sai


Sadguru Sai , If You would have not holded My hands 
I would have got Lost on ...... The Path of My Life .
Searching for a place of Loving Shelter 
I would have walked all My Life ..... Being Alone .


Sadguru Sai everyone knows ............
" EK PATTA BHI NAHI HILTA APKI RAZA KE BINA "
Sai without You ..... I would have always flown here & there 
like a Lonely Leaf 
Flying in search of a Resting Shelter 
....................... With Tears in My Eyes as My Only Companion .

Sadguru Sai if You would have not Blessed Me with Your
Loving Grace 
I would have got Lost ... Walking Lonely on Path of My Life .

Sadguru Sai I know You are always around Us
Sadguru Sai I know You are our Support & Shelter in Our Life
Sadguru Sai I know You are the Light in Darkness of Our Life 
Sadguru Sai I know You are the Grace of True Wisdom in Us
Sadguru Sai I know You only Taught Us to Live Selfless & Devoted Life
Sadguru Sai I know You only Guided Us to share Our Care & Concern

I HUMBLY BOW BEFORE MY LOVING SADGURU SAI AND PRAY
ALWAYS BLESS ME WITH A PLACE IN YOUR SACRED FEET

BLESSED IS THE ONE WHO HAS REALIZED 
...............................THE TRUE LOVE OF SADGURU SAI

.......................... omsairam ......................

Wishing You all a Devoted Togetherness With Sadguru Sai
Blessed Sadgurus Day to all Sai Devotees
Rajiv Dube

श्री साई सच्चरित्र



श्री साई सच्चरित्र

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श्री साई सच्चरित्र अध्याय 1

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 2


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Sai Aartian साईं आरतीयाँ