Shirdi Sai
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श्री साई सच्चरित्र अध्याय 28
अध्याय 28
चिडियों का शिरडी को खींचा जाना – लक्ष्मीचंद, बुरहानपुर की महिला, मेघा का निर्वाण।
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प्राक्कथन
श्री साई अनंत है । वे एक चींटी से लेकर ब्रह्मांडपर्यन्त सर्व भूतों में व्याप्त है । वेद और आत्मविज्ञान में पूर्ण पारंगत होने के कारण वे सदगुरु कहलाने के सर्वथा योग्य है । चाहे कोई कितना ही विद्वान क्यों न हो, परन्तु यदि वह अपने शिष्य की जागृति कर उसे आत्मस्वरुप का दर्शन न करा सके तो उसे सदगुरु के नाम से कदापि सम्बोधित नहीं किया जा सकता । साधारणतः पिता केवल इस नश्वर शरीर का ही जन्मदाता है, परन्तु सदगुरु तो जन्म और मृत्यु दोनों से ही मुक्ति करा देने वाले है । अतः वे अन्य लोगों से अधिक दयावन्त है ।
श्री साईबाबा हमेशा कहा करते थे कि "मेरा भक्त चाहे एक हजार कोस की दूरी पर ही क्यों न हो, वह शिरडी को ऐसा खिंचता चला आता है, जैसे धागे से बँधी हुई चिडियाँ खिंच कर स्वयं ही आ जाती है ।" इस अध्याय में ऐसी ही तीन चिडियों का वर्णन है ।
1. लाला लक्ष्मीचंद
ये महानुभाव बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस में नौकरी करते थे । वहाँ से नौकरी छोड़कर वे रेलवे विभाग में आए और फिर वे मेसर्स रैली ब्रदर्स एंड कम्पनी में मुन्शी का कार्य करने लगे । उनका सन् 1910 में श्री साईबाबा से सम्पर्क हुआ । बड़े दिन (क्रिसमस) से लगभग एक या दो मास पहले सांताक्रुज में उन्होंने स्वप्न में एक दाढ़ीवाले वृदृ को देखा, जो चारों ओर से भक्तों से घिरा हुआ खड़ा था । कुछ दिनों के पश्चात् वे अपने मित्र श्री. दत्तात्रेय मंजुनाथ बिजूर के यहाँ दासगणू का कीर्तन सुनने गये । दासगणू का यह नियम था कि वे कीर्तन करते समय श्रोताओं के सम्मुख श्री साईबाबा का चित्र रख लिया करते थे । लक्ष्मीचन्द को यह चित्र देखकर महान् आश्चर्य हुआ, क्योंकि स्वप्न में उन्हें जिस वृदृ के दर्शन हुए थे, उनकी आकृति भी ठीक इस चित्र के अनुरुप ही थी । इससे वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्वप्न में दर्शन देने वाले स्वयं शिरडी के श्री साईनाथ समर्थ के अतिरिक्त और कोई नहीं है । चित्र-दर्शन, दासगणू का मधुर कीर्तन और उनके संत तुकाराम पर प्रवचन आदि का कुछ ऐसा प्रभाव उन पर पड़ा कि उन्होंने शिरडी-यात्रा का दृढ़ संकल्प कर लिया । भक्तों को चिरकाल से ही ऐसा अनुभव होता आया है कि जो सदगुरु या अन्य किसी आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में निकलता है, उसकी ईश्वर सदैव ही कुछ न कुछ सहायता करते है । उसी रात्रि को लगभग आठ बजे उनके एक मित्र शंकरराव ने उनका द्वार खटखटाया और पूछा कि क्या आप हमारे साथ शिरडी चलने को तैयार है? लक्ष्मीचन्द के हर्ष का पारावार न रहा और उन्होंने तुरन्त ही शिरडी चलने का निश्चय किया । एक मारवाड़ी से पन्द्रह रुपये उधार लेकर तथा अन्य आवश्यक प्रबन्ध कर उन्होंने शिरडी को प्रस्थान कर दिया । रेलगाड़ी में उन्होंने अपने मित्र के साथ कुछ देर भजन भी किया । उसी डिब्बे में चार यवन यात्री भी बैठे थे, जो शिरडी के समीप ही अपने-अपने घरों को लौट रहे थे । लक्ष्मीचन्द ने उन लोगों से श्री साईबाबा के सम्बन्ध में कुछ पूछताछ की । तब लोगों ने उन्हें बताया कि श्री साईबाबा शिरडी में अनेक वर्षों से निवास कर रहे है और वे एक पहुँचे हुए संत है । जब वे कोपरगाँव पहुँचे तो बाबा को भेंट देने के लिए कुछ अमरुद खरीदने का उन्होंने विचार किया । वे वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्यमय दृश्य देखने में कुछ ऐसे तल्लीन हुए कि उन्हें अमरुद खरीदने की सुधि ही न रही । परन्तु जब वे शिरडी के समीप आये तो यकायक उन्हें अमरुद खरीदने की स्मृति हो आई । इसी बीच उन्होंने देखा कि एक वृद्घा टोकरी में अमरुद लिये ताँगे के पीछे-पीछे दौड़ती चली आ रही है । यह देख उन्होंने ताँगा रुकवाया और उनमें से कुछ बढिया अमरुद खरीद लिये । तब वह वृद्घा उनसे कहने लगी कि कृपा कर ये शेष अमरुद भी मेरी ओर से बाबा को भेंट कर देना । यह सुनकर तत्क्षण ही उन्हें विचार आया कि मैंने अमरुद खरीदने की जो इच्छा पहले की थी और जिसे मैं भूल गया था, उसी की इस वृद्घा ने पुनः स्मृति करा दी । श्री साईबाबा के प्रति उसकी भक्ति देख वे दोनों बड़े चकित हुए । लक्ष्मीचंद ने यह सोचकर कि हो सकता है कि स्वप्न में जिस वृदृ के दर्शन मैंने किये थे, उनकी ही यह कोई रिश्तेदार हो, वे आगे बढ़े । शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्हें दूर से ही मस्जिद में फहराती ध्वजाये दीखने लगी, जिन्हें देख प्रणाम कर अपने हाथ में पूजन-सामग्री लेकर वे मस्जिद पहुँचे और बाबा का यथाविधि पूजन कर वे द्रवित हो गये । उनके दर्शन कर वे अत्यन्त आनन्दित हुए तथा उनके शीतल चरणों से ऐसे लिपटे, जैसे एक मधुमक्खी कमल के मकरन्द की सुगन्ध से मुग्ध होकर उससे लिपट जाती है । तब बाबा ने उनसे जो कुछ कहा, उसका वर्णन हेमाडपंत ने अपने मूल ग्रन्थ में इस प्रकार किया है "साले, रास्ते में भजन करते और दूसरे आदमी से पूछते है । क्या दूसरे से पूछना? सब कुछ अपनी आँखों से देखना । काहे को दूसरे आदमी से पूछना? सपना क्या झूठा है या सच्चा? कर लो अपना विचार आप । मारवाड़ी से उधार लेने की क्या जरुरत थी? हुई क्या मुराद पूरी?" ये शब्द सुनकर उनकी सर्वव्यापकता पर लक्ष्मीचन्द को बड़ा अचम्भा हुआ । वे बड़े लज्जित हुए कि घर से शिरडी तक मार्ग में जो कुछ हुआ, उसका उन्हें सब पता है । इसमें विशेष ध्यान देने योग्य बात केवल यह है कि बाबा यह नहीं चाहते थे कि उनके दर्शन के लिये कर्ज लिया जाय या तीर्थ यात्रा में छुट्टी मनायें ।
साँजा (उपमा)दोपहर के समय जब लक्ष्मीचंद भोजन को बैठे तो उन्हें एक भक्त ने साँजे का प्रसाद लाकर दिया, जिसे पाकर वे बड़े प्रसन्न हुए । दूसरे दिन भी वे साँजा की आशा लगाये बैठे रहे, परन्तु किसी भक्त ने वह प्रसाद न दिया, जिसके लिये वे अति उत्सुक थे । तीसरे दिन दोपहर की आरती पर बापूसाहेब जोग ने बाबा से पूछा कि नैवेद्य के लिये क्या बनाया जाए? तब बाबा ने उनसे साँजा लाने को कहा । भक्तगण दो बडे बर्तनों में साँजा भर कर ले आये । लक्ष्मीचंद को भूख भी अधिक लगी थी । साथ ही उनकी पीठ में दर्द भी था । बाबा ने लक्ष्मीचंद से कहा – (हेमाडपंत ने मूल ग्रन्थ में इस प्रकार वर्णन किया है) "तुमको भूख लगी है, अच्छा हुआ । कमर में दर्द भी हो । लो, अब साँजे की ही करो दवा ।" उन्हें पुनः अचम्भा हुआ कि मेरे मन के समस्त विचारों को उन्होंने जान लिया है । वस्तुतः वे सर्वज्ञ है ।
कुदृष्टिइसी यात्रा में एक बार उनको चावड़ी का जुलूस देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हो गया । उस दिन बाबा कफ से अधिक पीड़ित थे । उन्हें विचार आया कि इस कफ का कारण शायद किसी की नजर लगी हो । दूसरे दिन प्रातःकाल जब बाबा मस्जिद को गये तो शामा से कहने लगे कि, "कल जो मुझे कफ से पीड़ा हो रही थी, उसका मुख्य कराण किसी की कुदृष्टि ही है । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि किसी की नजर लग गई है, इसलिये यह पीड़ा मुझे हो गई है ।" लक्ष्मीचन्द के मन में जो विचार उठ रहे थे, वही बाबा ने भी कह दिये । बाबा की सर्वज्ञता के अनेक प्रमाण तथा भक्तों के प्रति उनका स्नेह देखकर लक्ष्मीचंद बाबा के चरणों पर गिर पड़े और कहने लगे कि "आपके प्रिय दर्शन से मेरे चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई है । मेरा मन-मधुप आपके चरण कमल और भजनों में ही लगा रहे । आपके अतिरिक्त भी अन्य कोई ईश्वर है, इसका मुझे ज्ञान नहीं । मुझ पर आप सदा दया और स्नेह करें और अपने चरणों के दीन दास की रक्षा कर उसका कल्याण करें । आपके भवभयनाशक चरणों का स्मरण करते हुये मेरा जीवन आनन्द से व्यतीत हो जाये, ऐसी मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है ।"बाबा से आर्शीवाद तथा उदी लेकर वे मित्र के साथ प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर मार्ग में उनकी कीर्ति का गुणगान करते हुए घर वापस लौट आये और सदैव उनके अनन्य भक्त बने रहे । शिरडी जाने वालों के हाथ वे उनको हार, कपूर और दक्षिणा भेजा करते थे ।
2. बुरहानपुर की महिला
अब हम दूसरी चिड़िया (भक्त) का वर्णन करेंगे । एक दिन बुरहानपुर में एक महिला से स्वप्न में देखा कि श्री साईबाबा उसके द्वार पर खड़े भोजन के लिये खिचड़ी माँग रहे है । उसने उठकर देखा तो द्वारपर कोई भी न था । फिर भी वह प्रसन्न हुई और उसने यह स्वप्न अपने पति तथा अन्य लोगों को सुनाया । उसका पति डाक विभाग में नौकरी करता था । वे दोनों ही बड़े धार्मिक थे । जब उसका स्थानान्तरण अकोला को होने लगा तो दोनों ने शिरडी जाने का भी निश्चय किया और एक शुभ दिन उन्होंने शिरडी को प्रस्थान कर दिया । मार्ग में गोमती तीर्थ होकर वे शिरडी पहुँचे और वहाँ दो माह तक ठहरे । प्रतिदिन वे मस्जिद जाते और बाबा का पूजन कर आनन्द से अपना समय व्यतीत करते थे । यद्यपि दम्पति खिचड़ी का नैवेद्य भेंट करने को ही आये थे, परन्तु किसी कारणवश उन्हें 14 दिनों तक ऐसा संयोग प्राप्त न हो सका । उनकी स्त्री इस कार्य में अब अधिक विलम्ब न करना चाहती थी । इसीलिये जब 15वें दिन दोपहर के समय वह खिचड़ी लेकर मस्जिद में पहुँची तो उसने देखा कि बाबा अन्य लोगों के साथ भोजन करने बैठ चुके है । परदा गिर चुका था, जिसके पश्चात् किसी का साहस न था कि वह अन्दर प्रवेश कर सके । परन्तु वह एक क्षण भी प्रतीक्षा न कर सकी और हाथ से परदा हटाकर भीतर चली आई । बडे आश्चर्य की बात थी कि उसने देखा कि बाबा की इच्छा उस दिन प्रथमतः खिचड़ी खाने की ही थी, जिसकी उन्हें आवश्यकता थी । जब वह थाली लेकर भीतर आई तो बाबा को बड़ा हर्ष हुआ और वे उसी में से खिचड़ी के ग्रास लेकर खाने लगे । बाबा की ऐसी उत्सुकता देख प्रत्येक को बड़ा आश्चर्य हुआ और जिन्होंने यह खिचड़ी की वार्ता सुनी, उन्हें भक्तों के प्रति बाबा का असाधारण स्नेह देख बड़ी प्रसन्नता हुई ।
मेघा का निर्वाण
अब तृतीय महान् पक्षी की चर्चा सुनिये । बिरमगाँव का रहने वाला मेघा अत्यन्त सीधा और अनपढ़ व्यक्ति था । वह रावबहादुर ह.वि. साठे के यहाँ रसोइया का काम किया करता था । वह शिवजी का परम भक्त था, और सदैव पंचाक्षरी मंत्र "नमः शिवाय" का जप किया करता था । सन्ध्योपासना आदि का उसे कुछ भी ज्ञान न था । यहाँ तक कि वह संध्या के मूल गायत्रींमंत्र को भी न जानता था । रावबहादुर साठे का उस पर अत्यन्त स्नेह था । इसलिये उन्होंने उसे सन्ध्या की विधि तथा गायत्रीमंत्र सिखला दिया । साठेसाहेब ने श्री साईबाबा को शिवजी का साक्षात् अवतार बताकर उसे शिरडी भेजने का निश्चय किया । किन्तु साठेसाहेब से पूछने पर उन्होंने बताया कि श्री साईबाबा तो यवन है । इसलिये मेघा ने सोचा कि शिरडी में एक यवन को प्रणाम करना पड़े, यह अच्छी बात नहीं है । भोला-भाला आदमी तो वह था ही, इसलिये उसके मन में असमंजस पैदा हो गया । तब उसने अपने स्वामी से प्रार्थना की कि कृपा कर मुजे वहाँ न भेजे । परन्तु साठेसाहेब कहाँ मानने वाले थे? उनके सामने मेघा की एक न चली । उन्होंने उसे किसी प्रकार शिरडी भेज ही दिया तथा उसके द्वारा अपने ससुर गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर को, जो शिरडी में ही रहते थे-एक पत्र भेजा कि मेघा का परिचय बाबा से करा देना । शिरडी पहुँचने पर जब वह मस्जिद मे घुसा तो बाबा अत्यन्त क्रोधित हो गये और उसे उन्होंने मस्जिद में आने की मनाही कर दी । वे गर्जना कर कहने लगे कि "इसे बाहर निकाल दो ।" फिर मेघा की ओर देखकर कहने लगे कि "तुम तो एक उच्च कुलीन ब्रह्मण हो और मैं निमन जाति का एक यवन । तुम्हारी जाति भ्रष्ट हो जायेगी । इसलिये यहाँ से बाहर निकल जाओ । ये शब्द सुनकर मेघा काँप उठा । उसे बड़ा विस्मय हुआ कि जो कुछ उसके मन में विचार उठ रहे थे, उन्हें बाबा ने कैसे जान लिया? किसी प्रकार वह कुछ दिन वहाँ ठहरा और अपनी इच्छानुसार सेवा भी करता रहा, परन्तु उसकी इच्छा तृप्त न हुई । फिर वह घर लौट आया और वहाँ से त्रिंबक (नासिक जिला) को चला गया । वर्ष भरके पश्चात् वह पुनः शिरडी आया और इस बार दादा केलकर के कहने से उसे मस्जिद में रहने का अवसर प्राप्त हो गया । साईबाबा मौखिक उपदेश द्वारा मेघा की उन्नति करने के बदले उसका आंतरिक सुधार कर रहे थे । उसकी स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन हो कर यथेष्ट प्रगति हो चुकी थी और अब तो वह श्री साईबाबा को शिवजी का ही साक्षात् अवतार समझने लगा था । शिवपूजन ममें बिल्व पत्रों की आवश्यकता होती है । इसलिये अपने शिवजी (बाबा) का पूजन करने के हेतु बिल्वपत्रों की खोज मे वह मीलों दूर निकल जाया करता था । प्रतिदिन उसने ऐसा नियम बना लिया था कि गाँव में जितने भी देवालय थे, प्रथम वहाँ जाकर वह उनका पूजन करता और इसके पश्चात् ही वह मस्जिद में बाबा को प्रणाम करता तथा कुछ देर चरण-सेवा करने के पश्चात् ही चरणामृत पान करता था । एक बार ऐसा हुआ कि खंडोबा के मंदिर का द्वार बन्द था । इस कारण वह बिना पूजन किये ही वहाँ से लौट आया और जब वह मस्जिद में आया तो बाबा ने उसकी सेवा स्वीकार न की तथा उसे पुनः वहाँ जाकर पूजन कर आने को कहा और उसे बतलाया कि अब मंदिर के द्वार खुल गये है । मेघा ने जाकर देखा कि सचमुच मंदिर के द्वार खुल गये है । जब उसने लौटकर यथाविधि पूजा की, तब कहीं बाबा ने उसे अपना पूजन करने की अनुमति दी ।
गंगास्नानएक बार मकर संक्रान्ति के अवसर पर मेघा ने विचार किया कि बाबा को चन्दन का लेप करुँ तथा गंगाजल से उन्हें स्नान कराऊँ । बाबा ने पहले तो इसके लिए अपनी स्वीकृति न दी, परन्तु उसकी लगातार प्रार्थना के उपरांत उन्होंने किसी प्रकार स्वीकार कर लिया । गोवावरी नदी का पवित्र जल लाने के लिए मेघा को आठ कोस का चक्कर लगाना पड़ा । वह जल लेकर लौट आया और दोपहर तक पूर्ण व्यवस्था कर ली । तब उसने बाबा को तैयार होने की सूचना दी । बाबा ने पुनः मेघा से अनुरोध किया कि, "मुझे इस झंझट से दूर ही रहने दो । मैं तो एक फकीर हूँ, मुझे गंगाजल से क्या प्रयोजन?" परन्तु मेघा कुछ सुनता ही न था । मेघा की तो यह दृढ़ा धारणा थी कि शिवजी गंगाजल से अधिक प्रसन्न होते है । इसीलिये ऐसे शुभ पर्व पर अपने शिवजी को स्नान कराना हमारा परम कर्तव्य है । अब तो बाबा को सहमत होना ही पड़ा और नीचे उतर कर वे एक पीढ़े पर बैठ गये तथा अपना मस्तक आगे करते हुए कहा कि, "अरे मेघा! कम से कम इतनी कृपा तो करना कि मेरे केवल सिर पर ही पानी डालना । सिर शरीर का प्रधान अंग है और उस पर पानी डालना ही पूरे शरीर पर डालने के सदृश है ।" मेघा ने "अच्छा अच्छा" कहते हुए बर्तन उठाकर सिर पर पानी डालना प्रारम्भ कर दिया । ऐसा करने से उसे इतनी प्रसन्नता हुई कि उसने उच्च स्वर में "हर हर गंगे" की ध्वनि करते हुए समूचे बर्तन का पानी बाबा के सम्पूर्ण शरीर पर उँडेल दिया और फिर पानी का बर्तन एक ओर रखकर वह बाबा की ओर निहारन लगा । उसने देखा कि बाबा का तो केवल सिर ही भींगा है और शेष भाग ज्यों का त्यों बिल्कुल सूखा ही है । यह देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ ।
त्रिशूल और पिंडीमेघा बाबा को दो स्थानों पर स्नान कराया करता था । प्रथम वह बाबा को मस्जिद में स्नान कराता और फिर वाड़े में नानासाहेब चाँदोरकर द्वारा प्राप्त उनके बड़े चित्र को । इस प्रकार यह क्रम 12 मास तक चलता रहा ।बाबा ने उसकी भक्ति तथा विश्वास दृढ़ करने के लिये उसे दर्शन दिये । एक दिन प्रातःकाल मेघा जब अर्द्घ निद्रावस्था में अपनी शैया पर पड़ा हुआ था, तभी उसे उनके श्री दर्शन हुए । बाबा ने उसे जागृत जानकर अक्षत फेंके और कहा कि "मेघा! मुझे त्रिशूल लगाओ ।" इतना कहकर वे अदृश्य हो गये । उनके शब्द सुनकर उसने त्रिशूल लगाओ । इतना कहकर वे अदृश्य हो गये । उनके शब्द सुनकर उसने उत्सुकता से अपनी आँखें खोलीं, परन्तु देखा कि वहाँ कोई नहीं है, केवल अक्षत ही यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े है । तब वह उठकर बाबा के पास गया और उन्हें अपना स्वप्न सुनाने के पश्चात् उसने उन्हें त्रिशूल लगाने की आज्ञा माँगी । बाबा ने कहा कि "क्या तुमने मेरे शब्द नहीं सुने कि मुझे त्रिशूल लगाओ । वह कोई स्वप्न तो नही, वरन् मेरी प्रत्यक्ष आज्ञा थी । मेरे शब्द सदैव अर्थपूर्ण होते है, थोथे-पोचे नहीं ।" मेघा कहने लगा कि आपने दया कर मुझे निद्रा से तो जागृत कर दिया है, परन्तु सभी द्वार पूर्ववत् ही बन्द देखकर मैं मूढ़मति भ्रमित हो उठा हूँ कि कहीं स्वप्न तो नहीं देख रह था । बाबा ने आगे कहा कि "मुझे प्रवेश करने के लिए किसी विशेष द्वार की आवश्यकता नहीं है । न मेरा कोई रुप ही है और न कोई अन्त ही । मैं सदैव सर्वभूतों में व्याप्त हूँ । जो मुझ पर विश्वास रखकर सतत मेरा ही चिन्तन करता है, उसके सब कार्य मैं स्वयं ही करता हूँ और अन्त में उसे श्रेष्ठ गति देता हूँ ।" मेघा वाड़े को लौट आया और बाबा के चित्र के समीप ही दीवाल पर एक लाल त्रिशूल खींच दिया । दूसरे दिन एक रामदासी भक्त पूने से आया । उसने बाबा को प्रणाम कर शंकर की एक पिंडी भेंट की । उसी समय मेघा भी वहाँ पहुँचे । तब बाबा उनसे कहने लगे कि देखो, शंकर भोले आ गये है । अब उन्हें सँभालो । मेघा ने पिंडी पर त्रिशूल लगा देखा तो उसे महान् विस्मय हुआ । वह वाड़े में आया । इस समय काकासाहेब दीक्षित स्नान के पश्चात् सिर पर तौलिया डाले 'साई' नाम का जप कर रहे थे । तभी उन्होंने ध्यान में एक पिंडी देखी, जिससे उन्हें कौतूहल-सा हो रहा था । उन्होंने सामने से मेघा को आते देखा । मेघा ने बाबा द्वारा प्रदत्त वह पिंडी काकासाहेब दीक्षित को दिखाई । पिंडी ठीक वैसी ही थी, जैसी कि उन्होंने कुछ घड़ी पूर्व ध्यान में देखी थी । कुछ दिनों में जब त्रिशूल का खींचना पूर्ण हो गया तो बाबा ने बड़े चित्र के पास (जिसका मेघा नित्य पूजन करता था ) ही उस पिंडी की स्थापना कर दी । मेघा को शिव-पूजन से बड़ा प्रेम था । त्रिपुंड खींचने का अवसर देकर तथा पिंडी की स्थापना कर बाबा ने उसका विश्वास दृढ़ कर दिया ।इस प्रकार कई वर्षों तक लगातार दोपहर और सन्ध्या को नियमित आरती तथा पूजा कर सन् 1912 में मेघा परलोकवासी हो गया । बाबा ने उसके मृत शरीर पर अपना हाथ फेरते हुए कहा कि, "यह मेरा सच्चा भक्त था ।" फिर बाबा ने अपने ही खर्च से उसका मृत्यु-भोज ब्राहमणों को दिये जाने की आज्ञा दी, जिसका पालन काकासाहेब दीक्षित ने किया ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
मूर्ख कौन आप और ज्योतिषी
ज्योतिष पवित्र-विज्ञान है लेकिन पवित्र-ज्योतिष विज्ञान अज्ञान से आवृत है! ज्योतिष विज्ञान, अज्ञान से आवृत होने के कारण हम अंधविश्वास को बढावा दे रहे हैं और हम अपने मूल-कर्म व् धर्म से हट कर स्वयं ही पथभ्रष्ट हो रहे हैं! ज्योतिषी लोग अपने कार्य में बहुत ही निपुण, चतुर, कार्यकुशल, प्रवीन होते हैं! इन के पास शब्दों का भण्डार होता है!
हम जब इनके पास जाते हैं तो यह पूछते हैं बताओ क्या बात या क्या दुःख है! तब हम स्वयं ही अपनी स्मस्य ज्योतिषियों को बता देते हैं! ज्योतिषी लोग ग्रहों के फल कहना शुरू कर देते हैं! ज्योतिषी ने पहले ही आप से जान लिया था कि आप कि क्या स्मस्य है! ज्योतिषी अच्छी तरह से जानता है कि जीवन में सिर्फ १२ बातें ही हैं जिनके लिये मनुष्य दुखी या सुखी होता है!
१, तन-सुख, २ धन-सुख, ३ पराक्रम-सुख, ४ घर-सुख, ५ संतान-सुख, ६ रोग-दुःख-सुख, ७, स्त्री-सुख, ८ आयु-सुख,९ भाग्य-सुख, १० कर्म-सुख, ११ लाभ-सुख और १२ हानि!
इन्हीं १२ बातों से तल्लुक ही बातें होती हैं ,१३वीं बात नहीं होती!
हम अपनी मूर्खता के कारण १२ बातें ज्योतिषी को बता देते हैं और अपने ही बुने जाल में फंस जाते हैं, जिसका लाभ ज्योतिषी उठाते हैं और फिर ज्योतिषी के जाल में फंस जाते हैं!
अब स्वयं सोचें कि आप को मूर्ख कौन बना रहा है! आप स्वयं मूर्ख हैं या ज्योतिषी आप को मूर्ख बना रहा है?
ज्योतिषी को कभी भी अपना प्रश्न मत बतलाओ!
ज्योतिषी यदि ज्ञानी है तो वह स्वयं ही उस बात को जान लेगा कि आप क्या स्मस्य है!
प्रत्येक मनुष्य में 100 % बातें एक जैसी होती हैं, अंतर सिर्फ इतना होता है कि समय का अंतर होने पर कुछ कि बातें पहले घटित हो जाती हैं, कुछ कि बातें बाद में घटित होती हैं!
अब यह प्रश्न है कि जैसे स्त्री का प्रश्न है! प्रश्न किया, तलाक तो सभी का नहीं होता फिर एक जैसी कैसे हुई? बस ईतना याद रखना बात ७ भाव[सुख-दुःख] की ही है! बस पहचान करनी होती है कि बात किस भाव से तल्लुक रखती है!
आप से फिर द्वारा बता रहा हूँ कि ज्योतिषी को अपना प्रश्न मत बतलाना! अगर बतला दिया तो आप ज्योतिषी के जाल में फंस जाओगे और पथभ्रष्ट होकर अंधविश्वास में पड़ जाओगे!
अपने कर्म को पहचानो, फिर अपना कर्म करो!
जो भी कर्म करना हो उसे वैदिक रीती के अनुसार करो, लौकिक रीती के अनुसार मत करो! ऐसा ही भगवान श्री कृष्ण जी ने गीता में कहा है! जो लोग भगवान के कथन की अवेहलना करते हैं वह सदैव दुःख भरा जीवन ही व्यतीत करते हैं!
आप मूर्ख मत बनो! जागो मानुष जागो, ईश्वर की पहचान करो, ईश्वर का नाम लो फिर देखो दुःख अपने आप भाग जायेंगे और प्रभु का आशीर्वाद भी पाओगे!
ज्योतिष हमें मूल-कर्म व् धर्म से दूर करता है!
भूलकर भी ऐसे उपाये मत करो जो न तो अपने हित में हों और न ही प्रभु प्राप्ति के हित में हों! आप का लौकिक किया उपाये आप के किये कुछ समय तक शुभ हो सकता है, लेकिन यह आप के किसी घर के स्दस्य को हानि दे सकता है! जिससे आप नये संकट में आ सकते हैं!
उदाहरण;- जैसे लाल-किताब के उपाये! टूना-टोटका करना! लाल-किताब के सभी उपाये टूना-टोटका हैं!
यदि अब भी न समझें तो ........फिर मूर्ख कौन होगा...........मूर्ख कौन बना .... मूर्ख किस ने बनाया..........आदि आदि .........
ग्रहों का सुख पाने के लिये ईश्वर की शरण में जाओ, वही सब दुखों कि दवा है! इस से अच्छी दवा संसार नें कोंई नहीं है! झूठ और पाखंड से बचो!
"ज्योतिषियों को अपना प्रश्न और अपनी बातें मत बतलाओ!"
Pawan Talhan
Wednesday, May 22, 2013
राहुकेतु आवरणपूजा
राहुकेतु आवरणपूजा
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ॐ राहवे नमः ।
ॐ केतवे नमः ।
ॐ भौमाय नमः ।
ॐ बुधाय नमः ।
ॐ गुरवे नमः ।
ॐ शुक्राय नमः ।
ॐ शनैश्चराय नमः ।
ॐ वरुणसुतेभ्यो नमः ।
ॐ सूर्यसुतेभ्यो नमः ।
ॐ अग्निपुत्रेभ्यो नमः ।
ॐ कुबेरपुत्रेभ्यो नमः ।
ॐ वायुपुत्रेभ्यो नमः ।
ॐ कटुरसाय नमः ।
ॐ आम्लरसाय नमः ।
ॐ क्षाररसाय नमः ।
ॐ कषायरसाय नमः ।
ॐ स्वादुरसाय नमः ।
ॐ षष्ठिसहस्रमन्दे हारुणी राक्षसेभ्यो नमः ।
ॐ मेषादिद्वादशराशिभ्यो नमः ।
ॐ अश्विन्यादिसप्तविंशतिनक्षत्रेभ्यो नमः ।
ॐ विष्कुम्भादिसप्तविंशतियोगेभ्यो नमः ।
ॐ बबादि करणेभ्यो नमः ।
ॐ सप्तद्वीपेभ्यो नमः ।
ॐ ऋग्वेदादिचतुर्वेदेभ्यो नमः ।
ॐ भूरादिसप्तलोकेभ्यो नमः ।
ॐ सप्तसागरेभ्यो नमः ।
ॐ ध्रुवाय नमः ।
ॐ सप्तर्षिभ्यो नमः ।
ॐ एकोनपञ्चाशन्मरुद्भ्यो नमः ।
ॐ षडृतुभ्यो नमः ।
ॐ द्वादशमासेभ्यो नमः ।
ॐ द्वयनाभ्यां नमः ।
ॐ पञ्चदशतिथिभ्यो नमः ।
ॐ षष्ठिसंवत्सरेभ्यो नमः ।
ॐ सुपर्णेभ्यो नमः ।
ॐ नागेभ्यो नमः ।
ॐ यक्षेभ्यो नमः ।
ॐ गन्धर्वेभ्यो नमः ।
ॐ विद्याधरेभ्यो नमः ।
ॐ अप्सरेभ्यो नमः ।
ॐ अक्षोभ्यो नमः ।
ॐ ब्रह्मणे नमः ।
ॐ विष्णवे नमः ।
ॐ रुद्राय नमः ।
ॐ सत्वाय नमः ।
ॐ रजसे नमः ।
ॐ तमसे नमः ।
ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः ।
ॐ वज्राय नमः ।
ॐ शक्तये नमः ।
ॐ दण्डाय नमः ।
ॐ खड्गाय नमः ।
ॐ पाशाय नमः ।
ॐ अङ्कुशाय नमः ।
ॐ गदायै नमः ।
ॐ त्रिशूलाय नमः ।
ॐ पद्माय नमः ।
ॐ चक्राय नमः ।
ॐ ऐरावताय नमः ।
ॐ पुण्डरीकाय नमः ।
ॐ वामनाय नमः ।
ॐ कुमुदाय नमः ।
ॐ अञ्जनाय नमः ।
ॐ पुष्पदन्ताय नमः ।
ॐ सार्वभौमाय नमः
। ॐ दामिन्यै नमः ।
ॐ छायायै नमः ।
ॐ अभीष्टसिद्धिं मे देही ।
ॐ समस्तावरणार्चनदेवेभ्यो नमः ।
ॐ राहुकेतुभ्यां नमः ।
Pawan Talhan
Pawan Talhan
तुलसी के राम
दिन-दिन दूनो देखि दारिदु,
दुकालु, दुखु, दुरितु,
दुराजू सुख-सकृत सकोच!
मागें पैनत पावत पचारि पातकी प्रचंड,
कालकी करालता, भले को हॉट पोच है!!
आपनें तौ एकु अब्लंबू अंब डिंभ ज्यों,
समर्थ सीतानाथ सब संकट बिमोच है!
तुलसी की साहसी सराहिए कृपाल राम!
नामकें भरोसें परिणाम को निसोच है!!८१!!
दिनों दिन दरिद्रता, दुःख, पाप और कुराज्य को दूना होता देख कर सुख और सुकृत संकुचित हो रहे हैं! समय ऐसा भयंकर आ गया है कि बड़े २ डांटडपट कर माँगने से अपना दांव पा लेते हैं और भले आदमी का बुरा हो जाता है! जैसे बालक को एक मात्र मांका ही सहारा होता है वैसे ही अपने तो एक मात्र सहारा सर्वसंकटों से छुडाने वाले और समर्थ श्री सीतानाथ ही हैं! हे कृपालु राम जी ! तुलसी के साहस सराहना कीजिये कि वह [आपके] नाम के भरोसे परिणाम की ओर से निश्चिन्त हो गया है!
Pawan Talhan
ब्रह्मा विष्णु शिव
"सदाशिवात ईश्वर:, ईश्वराद रूद्र:, रुद्राद विष्णु: विष्णोर्ब्रह्येति !!"
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शिव [ शक्तिमान ] और शक्ति के लीलायित तत्त्व के साथ त्रिदेवक्रम में लीला-व्याप्ति -हेतु सदाशिव से ईश्वर, ईश्वर से रूद्र, रूद्र से विष्णु, विष्णु से ब्रह्मा का रूप निर्वाचित है! इनके द्वारा सृजन, नियमन
[ रक्षण ] और संहार की लीला चलती रहती है !!
Tuesday, May 21, 2013
Monday, May 20, 2013
Sunday, May 19, 2013
Saturday, May 18, 2013
Thursday, May 16, 2013
श्री साई सच्चरित्र अध्याय 27
अध्याय 27
भागवत और विष्नुसहस्त्रनाम प्रदान कर अनुगृहीत करना, गीता रहस्य, दादासाहेब खापर्डे ।
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इस अध्याय में बतलाया गया है कि श्री साईबाबा ने किस प्रकार धार्मिक ग्रन्थों को करस्पर्श से पवित्र कर अपने भक्तों को पारायण के लिये देकर अनुगगृहीत किया तथा और भी अन्य कई घटनाओं का उल्लेख किया गया है ।
प्रारम्भ
जन-साधारण का ऐसा विश्वास है कि समुद्र में स्नान कर लेने से ही समस्त तीर्थों तथा पवित्र नदियों में स्नान करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है । ठीक इसी प्रकार सदगुरु के चरणों का आश्रय लेने मात्र से तीनों शक्तियों (ब्रह्मा, विष्णु, और महेश) और परब्रह्म को नमन करने का श्रेय सहज ही प्राप्त हो जाता है । श्री सच्चिदानंद साई महाराज की जय हो । वे तो भक्तों के लिये कामकल्पतरु, दया के सागर और आत्मानुभूति देने वाले है । हे साई ! तुम अपनी कथाओं के श्रवण में मेरी श्रद्घा जागृत कर दो । घनघोर वर्षा ऋतु में जिस प्रकार चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र की केवल एक बूँद का पान कर प्रसन्न हो जाता है, उसी प्रकार अपनी कथाओं के सारसिन्धु से प्रगटित एक जल कण का सहस्त्रांश दे दो, जिससे पाठकों और श्रोताओं के हृदय तृप्त होकर प्रसन्नता से भरपूर हो जाये । शरीर से स्वेद प्रवाहित होने लगे, आँसुओं से नेत्र परिपूर्ण हो जाये, प्राण स्थिरता पाकर चित्त एकाग्र हो जाये और पल-पल पर रोमांच हो उठे, ऐसा सात्विक भाव सभी में जागृत कर दो । पारस्परिक वैमनस्य तथा वर्ग-अपवर्ग का भेद-भाव नष्ट कर दो, जिससे वे तुम्हारी भक्ति में सिसके, बिलखें और कम्पित हो उठें । यदि ये सब भाव उत्पन्न होने लगे तो इसे गुरु-कृपा के लक्षण जानो । इन भावों को अन्तःकरण में उदित देखकर गुरु अत्यन्त प्रसन्न होकर तुम्हें आत्मानुभूति की ओर अग्रसर करेंगे । माया से मुक्त होने का एकमात्र सहज उपाय अनन्य भाव से केवल श्री साईबाबा की शरण जाना ही है । वेद –वेदान्त भी मायारुपी सागर से पार नहीं उतार सकते । यह कार्य तो केवल सदगुरु द्वारा ही संभव है । समस्त पप्राणियों और भूतों में ईश्वर-दर्णन करने के योग्य बनाने की क्षमता केवल उन्हीं में है ।
पवित्र ग्रन्थों का प्रदान
गत अध्याय में बाबा की उपदेश-शैली की नवीनता ज्ञात हो चुकी है । इस अध्याय में उसके केवल एक उदाहरण का ही वर्णन करेंगे । भक्तों को जिस ग्रन्थविशेष का पारायण करना होता था, उसे वे बाबा के कर कमलों में भेंट कर देते थे और यदि बाबा उसे अपने करकमलों से स्पर्श कर लौटा देते तो वे उसे स्वीकार कर लेते थे । उनकी ऐसी भावना हो जाती थी कि ऐसे ग्रन्थ का यदि नित्य पठन किया जायेगा तो बाबा सदैव उनके साथ ही होंगे । एक बार काका महाजनी श्री एकनाथी भागवत लेकर शिरडी आये । शामा ने यह ग्रन्थ अध्ययन के लिये उनसे ले लिया और उसे लिये हुए वे मस्जिद में पहुँचे । तब बाबा ने ग्रन्थ शामा से ले लिया और उन्होंने उसे स्पर्श कर कुछ विशेष पृष्ठों को देखकर उसे सँभालकर रखने की आज्ञा देकर वापस लौटा दिया । शामा ने उन्हें बताया कि यह ग्रन्थ तो काकासाहेब का है और उन्हें इसे वापस लौटाना है । तब बाबा कहने लगे कि, "नही, नही, यह ग्रन्थ तो मैं तुम्हें दे रहा हूँ । तुम इसे सावधानी से अपने पास रखो । यह तुम्हें अत्यन्त उपयोगी सिदृ होगा । कुछ दिनों के पश्चात काका महाजनी पुनः श्री एकनाथी भागवत की दूसरी प्रति लेकर आये और बाबा के करकमलों में भेंट कर दी, जिसे बाबा ने प्रसाद-स्वरुप लौटाकर उन्हें भी उसे सावधानी से सँभाल कर रखने की आज्ञा दी । साथ ही बाबा ने उन्हें आश्वासन दिया कि यह तुम्हें उत्तम स्थिति में पहुँचाने में सहायक सिदृ होगा । काका ने उन्हें प्रणाम कर उसे स्वीकार कर लिया ।
शामा और विष्नुसहस्त्रनाम
शामा बाबा के अंतरंग भक्त थे । इस कारण बाबा उन्हें एक विचित्र ढंग से 'विष्णुसहस्त्रनाम' प्रसादरुप देने की कृपा करना चाहते थे । तभी एक रामदासी आकर कुछ दिन शिरडी में ठहरा । वह नित्य नियमानुसार प्रातःकाल उठता और हाथ मुँह धोने के पश्चात् स्नान कर भगवा वस्त्र धारण करता तथा शरीर पर भस्म लगाकर विष्णुसहस्त्रनाम का जाप किया करता था । वह अध्यात्मरामायण का भी श्रद्घापूर्वक नित्य पाठ किया करता था और बहुधा इन्हीं ग्रन्थों को ही पढ़ा करता था । कुछ दिनों के पश्चात् बाबा ने शामा को भी 'विष्णुसहस्त्रनाम' से परिचित कराने का विचार कर रामदासी को अपने समीप बुलाकर उससे कहा कि मेरे उदर में अत्यन्त पीड़ा हो रही है और जब तक मैं सोनामुखी का सेवन न करुँगा, तब तक मेरा कष्ट दूर न होगा । तब रामदासी ने अपना पाठ स्थगित कर दिया और वह औषधि लाने बाजार चला गया । उसी प्रकार बाबा अपने आसन से उठे और जहाँ वह पाठ किया करते थे, वहाँ जाकर उन्होंने विष्णुसहस्त्रनाम की वह पुस्तिका उठाई और पुनः अपने आसन पर विराजमान होकर शामा से कहने लगे कि, "यह पुस्तक अमूल्य और मनोवांछित फल देने वाली है । इसलिये मैं तुम्हें इसे प्रदान कर रहा हूँ, ताकि तुम इसका नित्य पठन करो । एक बार जब मैं अधिक रुग्ण था तो मेरा हृदय धड़कने लगा । मेरे प्राणपखेरु उड़ना ही चाहते थे कि उसी समय मैंनें इस सदग्रन्थ को अपने हृदय पर रख लिया । कैसा सुख पहुँचाया इसने ? उस समय मुझे ऐसा ही भान हुआ, मानों अल्लाह ने स्वयं ही पृथ्वी पर आकर मेरी रक्षा की । इस कारण यह ग्रन्थ मैं तुम्हें दे रहा हूँ । इसे थोड़ा धीरे-धीरे, कम से कम एक श्लोक प्रतिदिन अवश्य पढ़ना, जिससे तुम्हारा बहुत भला होगा ।" तब शामा कहने लगे कि, "मुझे इस ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं क्योंकि इस का स्वामी रामदासी एक पागल, हठी और अतिक्रोधी व्यक्ति है, जो व्यर्थ ही अभी आकर लड़ने को तैयार हो जायेगा । अल्पशिक्षित होने के नाते, मैं संस्कृत भाषा में लिखित इस ग्रन्थ को पढ़ने में भी असमर्थ हूँ ।" शामा की धारणा थी कि बाबा मेरे और रामदासी के बीच मनमुटाव करवाना चाहते थे । इसलिये यह नाटक रचा है । बाबा का विचार उनके प्रति क्या था, यह उनकी समझ में न आया । बाबा 'येन केन प्रकारेण' विष्णुसहस्त्रनाम उसके कंठ में उतार देना चाहते थे । वे तो अपने एक अल्पशिक्षित अंतरंग भक्त को सांसारिक दुःखों से मुक्त कर देना चाहते थे । ईश्वर-नाम के जाप का महत्व तो सभी को विदित ही है, जो हमें पापों से बचाकर कुवृत्तियों से हमारी रक्षा कर, जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से छुड़ा देता है । यह आत्मशुद्घि के लिये एक उत्तम साधन है, जिसमें न किसी सामग्री की आवश्यकता हौ और न किसी नियम के बन्धन की । इससे सुगम और प्रभावकारी साधन अन्य कोई नहीं । बाबा की इच्छा तो शामा से यह साधना कराने की थी, परन्तु शामा ऐसा न चाहते थे, इसीलिये बाबा ने उनपर दबाव डाला । ऐसा बहुधा सुनने में आया है कि बहुत पहले श्री एकनाथ महाराज ने भी अपने एक पड़ोसी ब्राह्मण से विष्णुसहस्त्रनाम का जाप करने के लिये आग्रह कर उसकी रक्षा की थी । विष्णुसहस्त्रनाम का जाप चित्तशुद्घि के लिये एक श्रेष्ठ तथा स्पष्ट मार्ग है । इसलिये बाबा ने शामा को अनुरोधपूर्वक इसके जाप में प्रवृत्त किया । रामदासी बाजार से तुरन्त सोनामुखी लेकर लौट आया । अण्णा चिंचणीकर, जो वहीं उपस्थित थे, प्रायः पूरे 'नारद मुनि' ही थे और उन्होंने उक्त घटना का सम्पूर्ण वृत्तांत रामदासी को बता दिया ।
रामदासी क्रोधावेश में आकर शामा की ओर लपका और कहने लगे कि "यह तुम्हारा ही कार्य है, जो तुमने बाबा के द्वारा मुझे उदर पीड़ा के बहाने औषधि लेने को भेजा । यदि तुमने पुस्तक न लौटाई तो मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूँगा ।" शामा ने उसे शान्तिपूर्वक समझाया, परन्तु उनक कहना व्यर्थ ही हुआ । तब बाबा प्रेमपूर्वक बोले कि, " अरे रामदासी, यह क्या बात हैं? क्यों उपद्रव कर रहे हो? क्या शामा अपना बालक नहीं है? तुम उसे व्यर्थ ही क्यों गाली दे रहे हो? मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी प्रकृति ही उपद्रवी है । क्या तुम नम्र और मृदुल वाणी नहीं बोल सकते? तुम नित्य प्रति इन पवित्र ग्रन्थों का पाठ किया करते हो और फिर भी तुम्हारा चित्त अशुदृ ही है? जब तुम्हारी इच्छायें ही तुम्हारे वश में नहीं है तो तुम रामदासी कैसे? तुम्हें तो समस्त वस्तुओं से अनासक्त (वैराग्य) होना चाहिये । कैसी विचित्र बात है कि तुम्हें इस पुस्तक पर इतना अधिक मोह है? सच्चे रामदासी को तो ममता त्याग कर समदर्शी होना चाहिये । तुम तो अभी बालक शामा से केवल एक छोटी सी पुस्तक के लिये झगड़ा कर रहे थे । जाओ, अपने आसन पर बैठो । पैसों से पुस्तकें तो अनेक प्राप्त हो सकती है, परन्तु मनुष्य नहीं । उत्तम विचारक बनकर विवेकशील होओ । पुस्तक का मूल्य ही क्या है और उससे शामा को क्या प्रयोजन? मैंने स्वयं उठकर वह पुस्तक उसे दी थी, यह सोचकर कि तुम्हें तो यह पुस्तक पूणर्तः कंठस्थ है । शामा को इसके पठन से कुछ लाभ पहुँचे, इसलिये मैंने उसे दे दी ।" बाबा के ये शब्द कितने मृदु और मार्मिक तथा अमृततुल्य है । इनका प्रभाव रामदासी पर पड़ा । वह चुप हो गया और फिर शामा से बोला कि मैं इसके बदले में पंचरत्नी गीता की एक प्रति स्वीकार कर लूँगा । तब शामा भी प्रसन्न होकर कहने लगे कि "एक ही क्यो, मैं तो तुम्हें उसके बदले में 10 प्रतियाँ देने को तैयार हूँ ।"
इस प्रकार यह विवाद तो शान्त हो गया, परन्तु अब प्रश्न यह आया कि रामदासी नें पंचरत्नी गीता के लिये - एक ऐसी पुस्तक जिसका उसे कभी ध्यान भी न आया था, इतना आग्रह क्यों किया और जो मस्जिद में हर दिन धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करता हो, वह बाबा के समक्ष ही इतना उत्पात करने पर क्यों उतारु हो गया? हम नहीं जानते कि इस दोष का निराकरण कैसे करें और किसे दोषी ठहरावें? हम तो केवल इतना ही जान सके कि यदि इस प्रणाली का अनुसरण न किया गया होता तो विषय का महत्व और ईश्वर नाम की महिमा तथा शामा को विष्णुसहस्त्रनाम के पठन का शुभ अवसर ही प्राप्त न होता । इससे यही प्रतीत होता है कि बाबा के उपदेश की शैली और उसकी प्रकि्या अद्वितीय है । शामा ने धीरे-धीरे इस ग्रन्थ का इतना अध्ययन कर लिया और उन्हें इस विषय का इतना ज्ञान हो गया कि वह श्रीमान् बूटीसाहेब के दामाद प्रोफेसर जी.जी. नारके, एम.ए. (इंजीनियरिंग कालेज, पूना) को भी उसका यथार्थ अर्थ समझाने में पूर्ण सफल हुए ।
गीता रहस्य
ब्रह्मविद्या (अध्यात्म) का जो भक्त अध्ययन करते, उन्हें बाबा सदैव प्रोत्साहित करते थे । इसका एक उदाहरण है कि एक समय बापूसाहेब जोग का एक पार्सल आया, जिसमें श्री. लोकमान्य तिलक कृत गीता-भाष्य की एक प्रति थी, जिसे काँख में दबाये हुये वे मस्जिद में आये । जब वे चरण-वन्दना के लिये झुके तो वह पार्सल बाबा के श्री-चरणों पर गिर पड़ा । तब बाबा उनसे पूछने लगे कि इसमें क्या है? श्री. जोग ने तत्काल ही पार्सल से वह पुस्तक निकालकर बाबा के कर—कमलों में रख दी । बाबा ने थोड़ी देर उसके कुछ पृष्ठ देखकर जेब से एक रुपया निकाला और उसे पुस्तक पर रखकर जोग को लौटा दिया और कहने लगे कि, "इसका ध्यानपूर्वक अध्ययन करते रहो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा ।"
श्रीमान् और श्रीमती खापर्डे
एक बार श्री. दादासाहेब खापर्डे सहकुटुम्ब शिरडी आये और कुछ मास वहीं ठहरे उनके ठहरने के नित्य कार्यक्रम का वर्णन श्रीसाईलीला पत्रिका के प्रथम भाग में प्रकाशित हुआ है । दादा कोई सामान्य व्यक्ति न थे । वे एक धनाढ्य और अमरावती (बरार) के सुप्रसिदृ वकील तथा केन्द्रीय धारा सभा (दिल्ली) के सदस्य थे । वे विद्वान और प्रवीण वक्ता भी थे । इतने गुणवान् होते हुए भी उन्हें बाबा के समक्ष मुँह खोलने का साहस न होता था । अधिकाँश भक्तगण तो बाबा से हर समय अपनी शंका का समाधान कर लिया करते थे । केवल तीन व्यक्ति खापर्डे, नूलकर और बूटी ही ऐसे थे, जो सदैव मौन धारण किये रहते तथा अति विनम्र और उत्तम प्रकृति के व्यक्ति थे । दादासाहेब, विद्यारण्य स्वामी द्वारा रचित पंचदशी नामक प्रसिदृ संस्कृत ग्रन्थ, जिसमें अद्वैतवेदान्त का दर्शन है, उसका विवरण दूसरों को तो समझाया करते थे, परन्तु जब वे बाबा के समीप मस्जिद में आये तो वे एक शब्द का भी उच्चारण न कर सके । यथार्थे में कोई व्यक्ति, चाहे वह जितना वेदवेदान्तों में पारन्गत क्यों न हो, परन्तु ब्रह्मपद को पहुँचे हुए व्यक्ति के समक्ष उसका शुष्क ज्ञान प्रकाश नहीं दे सकता । दादा चार मास तथा उनकी पत्नी सात मास वहाँ ठहरी । वे दोनों अपने शिरडी-प्रवास से अत्यन्त प्रसन्न थे । श्री मती खापर्डे श्रद्घालु तथा पूर्ण भक्त थी, इसलिये उनका साई चरणों में अत्यन्त प्रेम था । प्रतिदिन दोपहर को वे स्वयं नैवेद्य लेकर मस्जिद को जाती और जब बाबा उसे ग्रहण कर लेते, तभी वे लौटकर अपना भोजन किया करती थी । बाबा उनकी अटल श्रद्घा की झाँकी का दूसरों को भी दर्शन कराना चाहते थे । एक दिन दोपहर को वे साँजा, पूरी, भात, सार, खीर और अन्य भोज्य पदार्थ लेकर मस्जिद में आई ।
और दिनों तो भोजन प्रायः घंटों तक बाबा की प्रतीक्षा में पड़ा रहता था, परन्तु उस दिन वे तुरंत ही उठे और भोजन के स्थान पर आकर आसन ग्रहण कर लिया और थाली पर से कपड़ा हटाकर उन्होंने रुचिपूर्वक भोजन करना आरम्भ कर दिया । तब शामा कहने लगे कि, "यह पक्षपात क्यों? दूसरो की थालियों पर तो आप दृष्टि तक नहीं डालते, उल्टे उन्हें फेंक देते है, परन्तु आज इस भोजन को आप बड़ी उत्सुकता और रुचि से खा रहे है । आज इस बाई का भोजन आपको इतना स्वादिष्ट क्यों लगा? यह विषय तो हम लोगों के लिये एक समस्या बन गया है ।" तब बाबा ने इस प्रकार समझाया -
"सचमुच ही इस भोजन में एक विचित्रता है । पूर्व जन्म में यह बाई एक व्यापारी की मोटी गाय थी, जो बहुत अधिक दूध देती थी । पशुयोनि त्यागकर इसने एक माली के कुटुम्ब में जन्म लिया । उस जन्म के उपरान्त फिर यह एक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हई और इसका ब्याह एक व्यापारी से हो गया । दीर्घ काल के पश्चात् इनसे भेंट हुई है । इसलिये इनकी थाली में से प्रेमपूर्वक चार ग्रास तो खा लेने दो ।" ऐसा बतला कर बाबा ने भर पेट भोजन किया और फिर हाथ मुँह धोकर और तृप्ति की चार-पाँच डकारें लेकर वे अपने आसन पर पुनः आ विराजे । फिर श्रीमती खापर्डे ने बाबा को नमन किया और उनके पाद-सेवन करने लगी । बाबा उनसे वार्तालाप करने लगे और साथ-साथ उनके हाथ भी दबाने लगे । इस प्रकार परस्पर सेवा करते देख शामा मुस्कुराने लगा और बोला कि, "देखो तो, यह एक अदभुत दृश्य है कि भगवान और भक्त एक दूसरे की सेवा कर रहे है ।" उनकी सच्ची लगन देखकर बाबा अत्यन्त कोमल तथा मृदु शब्दों मे अपने श्रीमुख से कहने लगे कि, "अब सदैव "राजाराम, राजाराम" का जाप किया करो और यदि तुमने इसका अभ्यास क्रमबदृ किया तो तुम्हे अपने जीवन के ध्येय की प्राप्ति अवश्य हो जायेगी । तुम्हें पूर्ण शान्ति प्राप्त होकर अत्यधिक लाभ होगा । आध्यात्मिक विषयों से अपरिचित व्यक्तियों के लिये यह घटना साधारण-सी प्रतीत होगी, परन्तु शास्त्रीय भाषा में यह 'शक्तिपात' के नाम से विदित है, अर्थात् गुरु द्वारा शिष्य में शक्तिसंचार करना । बाबा के वे शब्द कितने शक्तिशाली और प्रभावकारी थे, जो एक क्षण में ही हृदय-कमल में प्रवेश कर गये और वहाँ अंकुरित हो उठे । यह घटना गुरु-शिष्य सम्बन्ध के आदर्श की द्योतक है । गुरु-शिष्य दोनों एक दूसरे को अभिन्न् जानकर प्रेम और सेवा करनी चाहिये, क्योंकि उन दोनों में कोई भेद नहीं है । वे दोनों अभिन्न और एक ही है, जो कभी पृथक् नहीं हो सकते । शिष्य गुरुदेव के चरणों पर मस्तक रख रहा है, यह तो केवल बाहृ दृश्यमान है । आन्तरिक दृष्टि से दोनों अभिन्न और एक ही है तथा जो उनमें भेद समझता है, वह अभी अपरिपक्क और अपूर्ण ही है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
Wednesday, May 15, 2013
Tuesday, May 14, 2013
श्री साईं वचन
"मैं अपने भक्तों को दिए वचन पूर्ण करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दूंगा,मेरे वचन कभी भी झूठे नहीं निकलेंगे "
श्री कालिकाष्टकम
श्री कालिकाष्टकम
इस पाठ को जपने से महानता प्राप्त होती है और साधक के घर में आठों सिद्धियाँ वर्तमान रहती हैं! यह पाठ मच्छशंकराचार्य विरचित है!
!!अथ कालिकाष्टकम!!
ध्यान----
गलद रक्त मुंडावली कंठ माला!
महा घोर रावा सु दंष्ट्रा कराला!!
विवस्त्रा श्मशानालया मुक्त केशी!
महाकाल कामाकुला कालिकेयम!!
भुजे वाम युग्मे शिरोsसिं दधाना!
वर्ण वक्ष युग्मेsभयं वाई तथैव !!
सु मध्यापि तुंग स्तना भार नम्रा!
लसद रक्त सृक्क द्वया सु स्मितास्या!!
शव द्वन्द्व कर्णावतंसा सु केशी!
लसत प्रेत पाणिं प्रयुक्तैक कान्ची!!
शवाकार मंचाधि रुढ़ा!
शिवाभिश्चातुर्दीक्षु शब्दायमानाभि रेजे!!
!!अथ स्तुति!!
विरंच्यादि देवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन!
समाराध्य कालीं प्रधाना बभूवु:!!
अनादिं सुरादिं विन्दन्ति भवादिं!
स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:!!१!!
जगन्मोहनीय तू वाग्वादिनीयम!
सुहृद पौषिणी शत्रु संहारणीयम!!
वाच स्तम्भनीयम किमुच्चाटनीयम!
स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:!!२!!
इयं स्वर्ग दात्री पुन: कल्प वल्ली!
मनोजान्स्तु कामां यथार्थं प्रकुर्यात!!
तथा ते क्रतार्थ भवंतीति नित्यं!
स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:!!३!!
सुरा पान मत्ता सु भक्तानुरक्ता!
लास्ट पूत चित्ते सदा,,विर्भवते!!
जप ध्यान पूजा सूधा धौत पनका!
स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:!!४!!
चिदानंद कांड हसन मंद मन्दं!
शरच्चन्द्र कोटि प्रभा पुंज बिम्बं !!
मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं !
स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:!!५!!
महा मेघ काली सु रक्तापि शुभ्रा!
कदाचिद विचित्रा कृतिर्योग माया!!
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि!
स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:!!६!!
क्षमास्वापराधं महा गुट भावं!
मया लोक मध्ये प्रकाशी कृतं यत!!
तव ध्यान पूतें चापल्य भावात!
स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:!!७!!
यदि ध्यान युक्तं पठेद यो!
मनुष्यस्तदा सर्व लोके विशालो भवेच्च!!
गृहे चाष्ट सिद्धिर्मृते चापि!
मुक्तिस्स्वरूपं त्वदीयं न विदन्ति देवा:!!८!!
Monday, May 13, 2013
Sunday, May 12, 2013
Saturday, May 11, 2013
Thursday, May 9, 2013
श्री साई सच्चरित्र अध्याय 26
अध्याय 26
भक्त पन्त, हरिश्चन्द्र पितले और गोपाल आंबडेकर की कथाएँ
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इस सृष्टि में स्थूल, सूक्ष्म, चेतन और जड़ आदि जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब एक ब्रह्म है और इसी एक अद्वितीय वस्तु ब्रह्म को ही हम भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित करते तथा भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखते है । जिस प्रकार अँधेरे में पड़ी हुई एक रस्सी या हार को हम भ्रमवश सर्प समझ लेते है, उसी प्रकार हम समस्त पदार्थों के केवल ब्रह्म स्वरुप को ही देखते है, न कि उनके सत्य स्वरुप को । एकमात्र सदगुरु ही हमारी दृष्टि से माया का आवरण दूर कर हमें वस्तुओं के सत्यस्वरुप का यथार्थ में दर्शन करा देने में समर्थ है । इसलिये आओ, हम श्री सदगुरु साई महाराज की उपासना कर उनसे सत्य का दर्शन कराने की प्रार्थना करे, जो कि ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।
आन्तरिक पूजन
श्री. हेमाडपंत उपासना की एक सर्वथा नवीन पद्घति बताते है । वे कहते है कि सदगुरु के पादप्रक्षालन के निमित्त आनन्द-अश्रु के उष्ण जल का प्रयोग करो । उन्हें सत्यप्रेमरुपी चन्दन का लेप कर, दृढ़विश्वासरुपी वस्त्र पहिनाओ तथा कोमल और एकाग्र चित्तरुपी फल उन्हें अर्पित करो । भावरुपी बुक्का उनके श्री मस्तक पर लगा, भक्ति की कछनी बाँध, अपना मस्तक उनके चरणों पर रखो । इस प्रकार श्री साई को समस्त आभूषणों से विभूषित कर, उन्हें अपना सर्वस्व निछावर कर दो । उष्णता दूर करने के लिये भाव की सदा चँवर डुलाओ । इस प्रकार आनन्ददायक पूजन कर उनसे प्रार्थना करो –
"हे प्रभु साई ! हमारी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी बना दो । सत्य और असत्य का विवेक दो तथा सांसारिक पदार्थों से आसक्ति दूर कर हमें आत्मानुभूति प्रदान करो । हम अपनी काया और प्राण आपके श्री चरणों में अर्पित करते है । हे प्रभु साई! मेरे नेत्रों को तुम अपने नेत्र बना लो, ताकि हमें सुख और दुःख का अनुभव ही न हो । हे साई ! मेरे शरीर और मन को तुम अपनी इच्छानुकूल चलने दो तथा मेरे चंचल मन को अपने चरणों की शीतल छाया में विश्राम करने दो ।"
भक्त पन्त
एक समय एक भक्त, जिनका नाम पंत था और जो एक अन्य सदगुरु के शिष्य थे, उन्हें शिरडी पधारने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उनकी शिरडी आने की इच्छा तो न थी, परन्तु "मेरे मन कछु और है, विधाता के कुछ और" वाली कहावत चरितार्थ हुई । वे रेल (पश्चिम रेल्वे) द्वारा यात्रा कर रहे थे, जहाँ उनके बहुत से मित्र व सम्बन्धियों से अचानक ही भेंट हो गई, जो कि शिरडी यात्रा को ही जा रहे थे । उन लोगों ने उनसे शिरडी तक साथ-साथ चलने का प्रस्ताव किया । पंत यह प्रस्ताव अस्वीकार न कर सके । तब वे सब लोग बम्बई में उतरे और इसी बीच पन्त विरार में उतर अपने सदगुरु से शिरडी प्रस्थान करने की अनुमति लेकर तथा आवश्यक खर्च आदि का प्रबन्ध कर, सब लोगों के साथ रवाना हो गये । वे प्रातःकाल वहाँ पहुँच गये और लगभग 11 बजे मस्जिद को गये । वहाँ पूजनार्थ भक्तों का एकत्रित समुदाय देख सब को अति प्रसन्नता हुई, परन्तु पन्त को अचानक ही मूर्च्छा आ गई और वे बेसुध होकर वहीं गिर पड़े । तब सब लोग भयभीत होकर उन्हें स्वस्थ करने के समस्त उपचार करने लगे । बाबा की कृपा से और मस्तक पर जल के छींटे देने से वे स्वस्थ हो गये और ऐसे उठ बैठे, जैसे कि कोई नींद से जगा है । त्रिकालज्ञ बाबा ने यह सब जानकर कि यह अन्य गुरु का शिष्य है, उन्हें अभय-दान देकर उनके गुरु में ही उनके विश्वास को दृढ़ करते हुए कहा कि, "कैसे भी आओ, परन्तु भूलो नही, अपने ही स्तंभ को दृढ़तापूर्वक पकड़कर सदैव स्थिर हो उनसे अभिन्नता प्राप्त करो ।" पन्त तुरन्त इन शब्दों का आशय् समझ गये और उन्हें उसी समय अपने सदगुरु की स्मृति हो आई । उन्हें बाबा के इस अनुग्रह की जीवन भर स्मृति बनी रही ।
हरिश्चन्द्र पितले
बम्बई में एक श्री. हरिश्चन्द्र पितले नामक सदगृहस्थ थे । उनका पुत्र मिर्गी रोग से पीड़ित था । उन्होंने अनेक प्रकार की देशी व विदेशी चिकित्सायें कराई, परन्तु उनसे कोई लाभ न हुआ । अब केवल यही उपाय शेष रह गया था कि किसी सन्त के चरण-कमलों की शरण ली जाय । 15वें अध्याय में बतलाया जा चुका है कि श्री. दासगणू के सुमधुर कीर्तन से साईबाबा की कीर्ति बम्बई में अधिक फैल चुकी थी । पितले ने भी सन् 1910 में उनका कीर्तन सुना और उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री साईबाबा के केवल कर-स्पर्श तथा दृष्टिमात्र से ही असाध्य रोग समूल नष्ट हो जाते है । तब उनके मन में भी श्री साईबाबा के प्रिय दर्शन की तीव्र इच्छा जागृत हुई । यात्रा का प्रबन्ध कर भेंट देने हेतु फलों की टोकरी लेकर स्त्री और बच्चों सहित वे शिरडी पधारे । मस्जिद पहुँचकर उन्होंने चरण-वंदना की तथा अपने रोगी पुत्र को उनके श्री-चरणों में डाल दिया । बाबा की दृष्टि उस पर पड़ते ही उसमें एक विचित्र परिवर्तन हो गया । बच्चे ने आँखें फेर दी और बेसुध हो कर गिर पड़ा । उसके मुँह से झाग निकलने लगी तथा शरीर पसीने से भीग गया और ऐसी आशंका होने लगी कि अब उसके प्राण निकलने ही वाले है । यह देखकर उसके माता-पिता अत्यंत निराश होकर घबराने लगे । बच्चे को बहुधा थोड़ी मूर्च्छा तो अवश्य आ जाया करती थी, परन्तु यह मूर्च्छा दीर्घ काल तक रही । माता की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी और वह दुःखग्रसित हो आर्तनाद करने लगी कि 'मैं ऐसी स्थिति में हूँ, जैसे कि एक व्यक्ति, चोरों के डर से भाग कर किसी घर में प्रविष्टि हो जाय और वह घर ही उसके ऊपर गिर पड़े, या एक भक्त मन्दिर में पूजन के लिये जाय और वह मन्दिर में ही उसके ऊपर गिर पड़े या एक गाय शेर के डर से भागकर किसी कसाई के हाथ लग जाय, या एक स्त्री सूर्य के ताप से व्यथित होकर वृक्ष की छाया में जाये और वह वृक्ष ही उसके ऊपर गिर पड़े ।' तब बाबा ने सान्त्वना देते हुये कहा कि "इस प्रकार प्रलाप न कर, धैर्य धारण करो । बच्चे को अपने निवासस्थान पर ले जाओ । वह आधा घण्टे के पश्चात् ही होश में आ जायेगा ।" तब उन्होंने बाबा के आदेश का तुरन्त पालन किया । बाबा के वचन सत्य निकले । जैसे ही उसे वाड़े में लाये कि बच्चा स्वस्थ हो गया और पितले परिवार – पति, पत्नी व अन्य सब लोगों को महान् हर्ष हुआ और उनका सन्देह दूर हो गया । श्री. पितले अपनी धर्मपत्नी सहित बाबा के दर्शनो को आये और अति विनम्र होकर आदरपूर्वक चरण-वन्दना कर पादसेवन करने लगे । मन ही मन वे बाबा को धन्यवाद दे रहे थे । तब बाबा ने मुस्कराकर कहा कि, "क्या तुम्हारे समस्त विचार और शंकायें मिट गई? जिन्हें विश्वास और धैर्य है, उनकी रक्षा श्री हरि अवश्य करेंगे ।" श्री. पितले एक धनाढ्य व्यक्ति थे, इसलिये उन्होंने अधिक मात्रा में मिठाई बाँटी और उत्तम फल तथा पान बीड़े बाबा को भेंट किये । श्रीमती पितले सात्विक वृत्ति की महिला थी । वे एक स्थान पर बैठकर बाबा की ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से निहारा करती थी । उनकी आँखों से प्रसन्नता के आँसू गिरते थे । उनका मृदु और सरल स्वभाव देखकर बाबा अति प्रसन्न हुए । ईश्वर के समान ही सन्त भी भक्तों के अधीन है । जो उनकी शरण में जाकर उनका अनन्य भाव से पूजन करते है, उनकी रक्षा सन्त करते है । शिरडी में कुछ दिन सुखपूर्वक व्यतीत कर पितले परिवार बाबा के समीप मस्जिद में गया और चरण-वन्दना कर शिरडी से प्रस्थान करने की अनुमति माँगी । बाबा ने उन्हें उदी देकर आर्शीवाद दिया । पितले को पास बुलाकर वे कहने लगे । "बापू ! पहले मैंने तुम्हें दो रुपये दिये थे और अब मैं तुम्हे तीन रुपये देता हूँ । इन्हें अपने पूजन में रखकर नित्य इनका पूजन करो । इससे तुम्हारा कल्याँण होगा ।" श्री. पितले ने उन्हें प्रसादस्वरुप ग्रहण कर, बाबा को पुनः साष्टांग नमस्कार किया तथा आशीष के लिये प्रार्थना की । उन्हें एक विचार भी आया कि प्रथम अवसर होने के कारण मैं इसका अर्थ समझने में असमर्थ हूँ कि दो रुपये मुझे पहले कब दिये थे?
वे इस बात का स्पष्टीकरण चाहते थे, परन्तु बाबा मौन ही रहे । बम्बई पहुँचने पर उन्होंने अपनी वृद्ध माता को शिरडी की विस्तृत वार्ता सुनाई और उन दो रुपयों की समस्या भी उनसे कही । उनकी माता को भी पहले-पहल तो कुछ समझ में न आया, परन्तु पूरी तरह विचार करने पर उन्हें एक पुरातन घटना की स्मृति हो आई, जिसने यह समस्या हल कर दी । उनकी वृद्ध माता कहने लगी कि "जिस प्रकार तुम अपने पुत्र को लेकर श्री साईबाबा के दर्शनार्थ गये थे, ठीक उसी प्रकार तुम्हें लेकर तुम्हारे पिता अनेक वर्षों पहले अक्कलकोट महाराज के दर्शनार्थ गये थे । महाराज पूर्ण सिदृ, योगी, त्रिकालज्ञ और बड़े उदार थे । तुम्हारे पिता परम भक्त थे । इस कारण उनकी पूजा स्वीकार हुई । तब महाराज ने उन्हें पूजनार्थ दो रुपये दिये थे, जिनकी उन्होंने जीवनपर्यन्त पूजा की । उनके पश्चात् उनकी पूजा यथाविधि न हो सकी और वे रुपये खो गये । कुछ दिनों के उपरान्त उनकी पूर्ण विसमृति भी हो गई । तुम्हारा सौभाग्य है, जो श्री अक्कलकोट महाराज ने साईस्वरप में तुम्हें अपने कर्तव्यों और पूजन की स्मृति कराकर आपत्तियों से मुक्त कर दिया । अब भविष्य में जागरुक रहकर समस्त शंकाएँ और सोच विचार छोड़कर अपने पूर्वजों को स्मरण कर रिवाजों का अनुसरण कर, उत्तम प्रकार का आचरण अपनाओ । अपने कुलदेव तथा इन रुपयों की पूजा कर उनके यथार्थ स्वरुप को समझो और सन्तों का आर्शीवाद ग्रहण करने में गर्व मानो । श्री साई समर्थ ने दया कर तुम्हारे हृदय में भक्ति का बीजारोपण कर दिया है और अब तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उसकी वृद्घि करो ।" माता के मधुर वचनामृत का पान कर श्री. पितले को अत्यन्त हर्ष हुआ । उन्हे बाबा की सर्वकालज्ञता विदित हो गई और उनके श्री दर्शन का भी महत्व ज्ञात हो गया । इसके पश्चात वे अपने व्यवहार में अधिक सावधान हो गये ।
श्री. आंबडेकर
पूने के श्री. गोपाल नारायण आंबडेकर बाबा के परम भक्तों में से एक थे, जो ठाणे जिला और जव्हार स्टेट के आबकारी विभाग में दस वर्षों से कार्य करते थे । वहाँ से सेवानिवृत होने पर उन्होंने अन्य नौकरी ढूँढी, परन्तु वे सफल न हुए । तब उन्हें दुर्भाग्य ने चारों ओर से घेर लिया, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और भी अधिक दयनीय हो गई । ऐसी परिस्थिति में उन्होंने सात वर्ष व्यतीत किये । वे प्रति वर्ष शिरडी जाते और अपनी दुःखदायी कथा वार्ता बाबा को सुनाया करते थे । सन् 1916 में तो उनकी स्थिति और भी अधिक चिन्ताजनक हो गई । तब उन्होंने शिरडी जाकर आत्महत्या करने की ठानी । इसलिये वे अपनी पत्नी को साथ लेकर शिरडी आये और वहाँ दो मास तक ठहरे । एक रात्रि को दीक्षितवाड़े के सामने एक बैलगाड़ी पर बैठे-बैठे उन्होंने कुएँ में गिर कर प्राणान्त करने का और साथ ही बाबा ने उनकी रक्षा करने का निश्चय किया । वहीं समीप ही एक भोजनालय के मालिक श्री. सगुण मेरु नायक ठीक उसी समय बाहर आकर उनसे इस प्रकार वार्तालाप करने लगे कि, "क्या आपने कभी श्री अक्कलकोट महाराज की जीवनी पढ़ी है ?" सगुण से पुस्तक लेकर उन्होंने पढ़ना प्रारम्भ कर दिया । पुस्तक पढ़ते-पढ़ते वे एक ऐसी कथा पर पहुँचे, जो इस प्रकार थी – श्री अक्कलकोट महाराज के जीवन काल में एक व्यक्ति असाध्य रोग से पीड़ित था । जब वह किसी प्रकार भी कष्ट सह न सका तो वह बिलकुल निराश हो गया और एक रात्रि को कुएँ में कूद पड़ा । तत्क्षण ही महाराज वहाँ पहुँच गये और उन्होंने स्वयं अपने हाथों से उसे बाहर निकाला । वे उसे समझाने लगे कि, "तुम्हें अपने शुभ अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना चाहिए । यदि भोग अपूर्ण रह गया तो पुनर्जन्म धारण करना पड़ेगा, इसलिये मृत्यु से यह श्रेयस्कर है कि कुछ काल तक उन्हें सहन कर पूर्व जन्मों के कर्मों का भोग समाप्त कर सदैव के लिये मुक्त हो जाओ ।"
यह सामयिक और उपयुक्त कथा पढ़कर आम्बडेकर को महान् आश्चर्य हुआ और वे द्रवित हो गये ।
यदि इस कथा द्वारा उन्हें बाबा का संकेत प्राप्त न होता तो अभी तक उनका प्राणान्त ही हो गया होता । बाबा की व्यापकता और दयालुता देखकर उनका विश्वास दृढ़ हो गया और वे बाबा के परम भक्त बन गये । उनके पिता श्री अक्क्लकोट महाराज के शिष्य थे और बाबा की इच्छा भी उन्हें उन्हीं के पद-चिन्हों का अनुसरण कराने की थी । बाबा ने उन्हें आर्शीवाद दिया और अब उनका भाग्य चमक उठा । उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन में निपुणता प्राप्त कर उसमें बहुत उन्नति कर ली और बहुत-सा धन अर्जित करके अपना शेष जीवन सुख और शान्तिपूर्वक व्यतीत किया ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
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