Saturday, September 29, 2012

shirdi sai baba teachings

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तेंडुलकर कुटुम्ब
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बम्बई के पास बान्द्रा में एक तेंडुलकर कुटुम्ब रहता था, जो बाबा का पूरा भक्त था । श्रीयुत् रघुनाथराव तेंडुलकर ने मराठी भाषा में श्रीसाईनाथ भजनमाला नामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमें लगभग आठ सौ अभंग और पदों का समावेश तथा बाबा की लीलाओं का मधुर वर्णन है । यह बाबा के भक्तों के पढ़ने योग्य पुस्तक है । उनका ज्येष्ठ पुत्र बाबू डाँक्टरी परीक्षा में बैठने के लिये अनवरत अभ्यास कर रहा था । उसने कई ज्योतिषियों को अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, परन्तु सभी ने बतलाया कि इस वर्ष उसके ग्रह उत्तम नहीं है किन्तु अग्रिम वर्ष परीक्षा में बैठने से उसे अवश्य सफलता प्राप्त होगी । इससे उसे बड़ी निराशा हुई और वह अशांत हो गया । थोड़े दिनों के पश्चात् उसकी माँ शिरडी गई और उसने वहाँ बाबा के दर्शन किये । अन्य बातों के साथ उसने अपने पुत्र की निराशा तथा अशान्ति की बात भी बाबा से कही । उनके पुत्र को कुछ दिनों के पश्चात् ही परीक्षा में बैठना था । बाबा कहने लगे कि अपने पुत्र से कहो कि मुझ पर विश्वास रखे । सब भविष्यकथन तथा ज्योतिषियों द्घारा बनाई कुंडलियों को एक कोने में फेंक दे और अपना अभ्यास-क्रम चालू रख शान्तचित्त से परीक्षा में बैठे । वह अवश्य ही इस वर्ष उत्तीर्ण हो जायेगा । उससे कहना कि निराश होने की कोई बात नहीं है । माँ ने घर आकर बाब का सन्देश पुत्र को सुना दिया । उसने घोर परिश्रम किया और परीक्षा में बैठ गया । सब परचों के जवाब बहुत अच्छे लिखे थे । परन्तु फिर भी संशयग्रस्त होकर उसने सोचा कि सम्भव है कि उत्तीर्ण होने योग्य अंक मुझे प्राप्त न हो सकें । इसीलिये उसने मौखिक परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया । परीक्षक तो उसके पीछे ही लगा था । उसने एक विघार्थी द्घारा सूचना भेजी कि उसे लिखित परीक्षा में तो उत्तीर्ण होने लायक अंक प्राप्त है । अब उसे मौखिक परीक्षा में अवश्य ही बैठना चाहिये । इस प्रकार प्रोत्साहन पाकर वह उसमें भी बैठ गया तथा दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गया । उस वर्ष उसकी ग्रह-दशा विपरीत होते हुए भी बाबा की कृपा से उसने सफलता पायी । यहाँ केवल इतनी ही बात ध्यान देने योग्य है कि कष्ट और संशय की उत्पत्ति अन्त में दृढ़ विश्वास में परिणत हो जाती है । जैसी भी हो, परीक्षा तो होती ही है, परन्तु यदि हम बाबा पर दरृढ़ विश्वास और श्रद्घा रखकर प्रयत्न करते रहे तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी । इसी बालक के पिता रघुनाथराव बम्बई की एक विदेशी व्यवसायी फर्म में नौकरी करते थे । वे बहुत वृदृ हो चुके थे और अपना कार्य सुचारु रुप से नहीं कर सकते थे । इसलिये वे अब छुट्टी लेकर विश्राम करना चाहते थे । छुट्टी लेने पर भी उनके शारीरिक स्वास्थ्य में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ । अब यह आवश्यक था कि सेवानिवृतत्ति की पूर्वकालिक छुट्टी ली जाय । एक वृदृ और विश्वासपात्र नौकर होने के नाते प्रधान मैनेजर ने उन्हें पेन्शन देर सेवा-निवृत्त करने का निर्णय किया । पेन्शन कितनी दी जाय, यह प्रश्न विचाराधीन था । उन्हें 150 रुपये मासिक वेतन मिलता था । इस हिसाब से पेन्शन हुई 75 रुपये, जो कि उनके कुटुम्ब के निर्वाह हेतु अपर्याप्त थी । इसलिये वे बड़े चिन्तित थे । निर्णय होने के पन्द्रह दिन पूर्व ही बाबा ने श्रीमती तेंडुलकर को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मेरी इच्छा है कि पेन्शन 100 रुपये दी जाय । क्या तुम्हें इससे सन्तोष होगा । श्रीमती तेंडुलकर ने कहा कि बाबा मुझ दासी से आप क्या पूछते है हमें तो आपके श्री-चरणों में पूर्ण विश्वास है । यघपि बाबा ने 100 रुपये कहे थे, परन्तु उसे विशेष प्रकरण समझकर 10 रुपये अधिक अर्थात् 110 रुपये पेन्शन निश्चित हुई । बाबा अपने भक्तों के लिये कितना अपरिमित स्नेह और कितनी चिन्ता रखते थे । 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 29

shirdi sai teachings



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं
साईं नाम के पान से, आधी व्याधि टल जाये |
दुःख चिंता कुछ ना रहे, सुख में रहे समाये ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Friday, September 28, 2012

shirdi sai teachings आश्चर्यजनक दर्शन



आश्चर्यजनक दर्शन 
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इसी प्रकार दिन बीतते गये । एक दिन रात्रि में उसके पति को एक विचित्र स्वप्न आया । उसने देखा कि एक बड़े शहर में पुलिस ने गिरफ्तार कर डोरी से बाँधकर उसे कारावास में डाल दिया है । तत्पश्चात् ही उसने देखा कि बाबा शान्त मुद्रा में सींकचों के बाहर उसके समीप खड़े है । उन्हें अपने समीप खड़े देखकर वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपकी कीर्ति सुनकर ही मैं आपके श्रीचरणों में आया हूँ । फिर आपके इतने निकट होते हुए भी मेरे ऊपर यह विपत्ति क्यों आई । 
तब वे बोले कि तुम्हें अपने बुरे कर्मों का फल अवश्य भुगतना चाहिये । वह पुनः बोला कि इस जीवन में मुझे अपने ऐसे कर्म की स्मृति नही, जिसके कारण मुझे ये दुर्दिन देखने का अवसर मिला । बाबा ने कहा कि यदि इस जन्म में नहीं तो गत जन्म की कोई स्मृति नहीं, परन्तु यदि एक बार मान भी लूँ कि कोई बुरा कर्म हो भी गया होगा तो अपने यहाँ होते हुए तो उसे भस्म हो जाना चाहिये, जिस प्रकार सूखी घास अग्नि द्घारा शीघ्र भस्म हो जाती है । बाबा ने पूछा, क्या तुम्हारा सचमुच ऐसा दृढ़ विश्वास है । उसने कहा – हाँ । बाबा ने उससे अपनी आँखें बन्द करने को कहा और जब उसने आँखें बन्द की, उसे किसी भारी वस्तु के गिरने की आहट सुनाई दी । आँखें खोलने पर उसने अपने को कारावास से मुक्त पाया । पुलिस वाला नीचे गिरा पड़ा है तथा उसके शरीर से रक्त प्रवाहित हो रहा है, यह देखकर वह अत्यन्त भयभीत दृष्टि से बाबा की ओर देखने लगा । तब बाबा बोले कि बच्चू । अब तुम्हारी अच्छी तरह खबर ली जायेगी । पुलिस अधिकारी अभी आवेंगे और तुम्हें गिरफ्तार कर लेंगे । तब वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपके अतिरिक्त मेरी रक्षा और कौन कर सकता है । मुझे तो एकमात्र आपका ही सहारा है । भगवान् मुझे किसी प्रकार बचा लीजिये । तब बाबा ने फिर उससे आँखें बन्द करने को कहा । आँखे खोलने पर उसने देखा कि वह पूर्णतः मुक्त होकर सींकचों के बाहर खड़ा है और बाबा भी उसके समीप ही कड़े है । तब वह बाबा के श्रीचरणों पर गिर पड़ा । बाबा ने पूछा कि मुझे बताओ तो, तुम्हारे इस नमस्कार और पिछले नमस्कारों में किसी प्रकार की भिन्नता है या नहीं । इसका उत्तर अच्छी तरह सोच कर दो । वह बोला कि आकाश और पाताल में जो अन्तर है, वही अंतर मेरे पहले और इस नमस्कारा में है । मेरे पूर्व नमस्कार तो केवल धन-प्राप्ति की आशा से ही थे, परन्तु यह नमस्कार मैंने आपको ईश्वर जानकर ही किया है । पहले मेरी धारणा ऐसी थी कि यवन होने के नाते आप हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट कर रहे है । बाबा ने पूछा कि क्या तुम्हारा यवन पीरों में विश्वास नहीं । प्रत्युत्तर में उसने कहा – जी नहीं । तब वे फिर पुछने लगे कि क्या तुम्हारे घर में एक पंजा नही । क्या तुम ताबूत की पूजा नहीं करते । तुम्हारे घर में अभी भी एक काडबीबी नामक देवी है, जिसके सामने तुम विवाह तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर कृपा की भीख माँगा करते हो । अन्त में जब उसने स्वीकार कर लिया तो वे बोले कि इससे अधिक अब तुम्हे क्या प्रमाण चाहिये । तब उनके मन में अपने गुरु श्रीरामदास के दर्शनों की इच्छा हुई । बाबा ने ज्यों ही उससे पीछे घूमने को कहा तो उसने देखा कि श्रीरामदास स्वामी उसके सामने खड़े है और जैसे ही वह उनके चरणों पर गिरने को तत्पर हुआ, वे तुन्त अदृश्य हो गये । तब वह बाबा से कहने गला कि आप तो वृदृ प्रतीत होते है । क्या आपको अपनी आयु विदित है । बाबा ने पूछा कि तुम क्या कहते हो कि मैं बूढ़ा हूँ । थोड़ी दूर मेरे साथ दौड़कर तो देखो । ऐसा कहकर बाबा दौड़ने लगे और वह भी उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा । दौड़ने से पैरों द्घारा जो धूल उड़ी, उसमें बाबा लुप्त हो गये और तभी उसकी नींद भी खुल गई । जागृत होते ही वह गम्भीरतापूर्वक इस स्वप्न पर विचार करने लगा । उसकी मानसिक प्रवृत्ति में पूर्ण परिवर्तन हो गया । अब उसे बाबा की महानता विदित हो चुकी थी । उसकी लोभी तथा शंकालु वृत्ति लुप्त हो गयी और हृदय में बाबा के चरणों के प्रति सच्ची भक्ति उमड़ पड़ी । वह था तो एक स्वप्न मात्र ही, परन्तु उसमें जो प्रश्नोत्तर थे, वे अधिक महत्वपूर्ण थे । दूसरे दिन जब सब लोग मसजिद में आरती के निमित्त एकत्रित हुए, तब बाबा ने उसे प्रसाद में लगभग दो रुपये की मिठाई और दो रुपये नगद अपने पास से देकर आर्शीवाद दिया । उसे कुछ दिन और रोककर उन्होंने आशीष देते हुए कहा कि अल्ला तुम्हें बहुत देगा और अब सब अच्छा ही करेगा । बाबा से उसे अधिक द्रव्य की प्राप्ति तो न हुई, परन्तु उनकी कृपा उसे अवश्य ही प्राप्त हो गई, जिससे उसका बहुत ही कल्याण हुआ । मार्ग में उनको यथेष्ठ द्रव्य प्राप्त हुआ और उनकी यात्रा बहुत ही सफल रही । उन्हें यात्रा में कोई कष्ट या असुविधा न हुई और वे अपने घर सकुशल पहुँच गये । उन्हें बाबा के श्रीवचनों तथा आर्शीवाद और उनकी कृपा से प्राप्त उस आनन्द की सदैव स्मृति बनी रही । इस कथा से विदित होता है कि बाबा किस प्रकार अपने भक्तों के समीप पधारकर उन्हें श्रेयस्कर मार्ग पर ले आते थे और आज भी ले आते है । 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।। 
श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 29 

shirdi sai teachings श्री साईं-कथा आराधना



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श्री साईं-कथा आराधना (भाग -13)
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

किस काम में भक्तों का भला साईं ही जानते
हर भक्त को सदा इसलिए वो ही काम कराते
भक्तों के लिए कल्पतरू हैं श्री साईंनाथ
असंभव को संभव बनाते श्री साईंनाथ
शामा श्री साईं का अनन्य भक्त था
बाबा की कृपादृष्टि से वो भरा-पूरा था
बाबा की लीलाएं किसी की समझ में न आईं
शामा हेतु रामदास की पोथी चुराई
रामदास हठी था, वो शामा से भिड़ गया
बाबा के समझाने पर वह शांत हो गया
निज पोथी के बदले पंचरत्नी गीता थी पाई
दोनों के लिए क्या सही, ये जानते थे साईं

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

जब कष्ट अधिक देने लगी नासूर की पीड़ा
तब पिल्लई जी दुखी हो गए और अति अधीरा
वे मन ही मन बाबा से विनती करने लगे
जहां में तुम सा कोई नहीं कहने ये लगे
बाबा ने अचानक उसे मस्ज़िद में बुलाया
और अब्दुल को ही उसका चिकित्सक था बनाया
फिर अब्दुल का पैर घाव पे पड़ गया
समझाने-बुझाने का तो वक्त ही निकल गया
पहले पिल्लई चिल्लाए, फिर शांत हो गए
और गाने की मस्ती में वो खो गए
जहां में नुमायां तेरी ही शान है
तू ही दीनों आलम का सुल्तान है

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए.......

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श्री साईं-कथा आराधना (भाग-12)
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

संजीवनी समान ऊदी देते साईंनाथ
माथे पे सबके लगा दुआ देते साईंनाथ
ऊदी ने ऐसे-ऐसे चमत्कार दिखाए
जैसे साईं से सारा जग जीवन है पाए
जब एक बार मैना की प्रसव-पीड़ा बढ़ गयी
तब बाबा की ऊदी उसकी रक्षक बन गयी
स्वयं साईं ही गाड़ी ले जामनेर थे आए
पर अपनी इस लीला को थे सबसे छुपाये
ऊदी का घोल पीने से सब ठीक हो गया
मैना के सुत से हर दिल प्रसन्न हो गया
कोई ना जान सका था प्रभु की ये माया
भक्तों की खातिर बाबा ने हर रूप बनाया

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

मेधा का भ्रम दूर करने की चाह में
सपने में साईं ने उसे त्रिशूल था दिया
शिव चरणों में फिर अपनी प्रीत के कारण
मेधा ने बाबा को शिव-शंकर ही मान लिया
साईं का न कोई रूप था और न कोई अंत
सर्वभूतों में व्याप्त श्री साईं थे अनंत
साईं साईं साईं साईं जिसने जप लिया
भव के सागर से वो तो पार उतर गया
जो भी श्री साईं का नित स्तुति है गाता
बिन मांगे वो सब ही शीघ्र है पाता
मेधा की मौत पे साईं ने शोक जताया
और उसको अपना सच्चा भक्त बताया

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए.......


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श्री साईं-कथा आराधना (भाग - 11 )
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

शिर्डी में एक बार भजन मंडली आई
भजनों से धन कमाने का संग लक्ष्य भी लाई
मंडली बहुत ही सुन्दर भजन गाती थी
उनमें से एक स्त्री बाबा पे श्रद्धा रखती थी
साईं उसकी भक्ति से उस पर प्रसन्न हो गए
श्री राम रूप में उसे दर्शन भी देदिए
निज ईष्ट के दर्शन से वह द्रवित हो गई
आँखों से उसके आंसुओं की धारा बह गई
वो प्रेम में डूब-डूब नाचने लगी
खुश हो-हो कर ताली बजाने लगी
श्री साईं के चरणों में फिर ऐसी दृष्टि गड़ गई
मन से वह शांत, स्थिर और संतृप्त हो गई

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

शिर्डी आना-जाना सब साईं के वश में
भक्तों की चाह को वो पूरी करते हैं पल में
उनकी इच्छा बिना न कोई शिर्डी से जा सका
साईं की मर्ज़ी के बिना ना शिर्डी ही आ सका
काका जी एक बार आना चाहते थे शिर्डी
बाबा की इच्छा से ही शामा संग आ गए शिर्डी
बाबा की छवि देख काका तृप्त हो गए
लीलाएं उनकी सुनकर शरणागत ही हो गए
ठीक ऐसे ही बाबा ने रामलाल को कहा
सपने में उसके शिर्डी आने को कहा
गद्गद् हो कर रामलाल शिर्डी आ गया
फिर शिर्डी से कहीं और नहीं वो गया

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए...........

shirdi sai teachings



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
साईं पद रज मस्तक धरे, जो जन श्रद्धा धार |
ज्ञान चक्षु खुल जात है, नाशे सकल विकार ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Thursday, September 27, 2012

shirdi sai teachings



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
साईं नाथ को देखिये, कितना हृदय विशाल |
रहते जिसके पास में, कर दें माला माल ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Wednesday, September 26, 2012

shirdi sai teachings



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं
हल होंगे फिर आपके, सारे सुनो सवाल |
छोटी सी तरकीब है, जपो "श्री साईं" नाम ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Tuesday, September 25, 2012

shirdi sai teachings श्री साईं-कथा आराधना(भाग-10 )



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श्री साईं-कथा आराधना(भाग-10 )
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

अंतर्यामी साईं ने उसका अहं जान लिया
एक झटके में उसका सारा धन समेट लिया
निर्धन फिर बन गया कांशी भाई
अपनी ही चतुराई उसके काम न आई
कांशीराम अहं पे अपने लज्जित हो गया
बाबा के चरणों में वो आकर गिर गया
श्री साईं को उस पे फिर दया आ गई
लीला रच के लौटा दी उसकी सारी कमाई
इस जग में कौन दाता है, कौन भिखारी,
कांशीराम का ये बातें फिर समझ हैं आईं
साईं बाबा में है सारी दुनिया समाई
बाबा की लीलाएं किसी की समझ न आई

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

श्री साईं भक्तों क इच्छा का मान थे रखते
किसी एक में दूजे की मर्ज़ी सहन न करते
कभी भक्तों से विनोदपूर्ण हास्य भी करते
कभी उनके क्रोध से भक्त थे डरते
सभी भक्त मिल साईं से प्रार्थना करते
चरणों में उनके सब अपना अर्पण करते
हे प्रभु साईं, प्रवृति को हमारी अंतर्मुखी बना दो
सत्य और असत्य का हम में विवेक जगा दो
बाबा की दृष्टि से सब रोग नष्ट हो जाते
मरणासन्न रोगी भी जीवनदान पा जाते
व्रत और उपवास कुछ भी जब काम ना आता
तो साईं-साईं ही प्रभु से भेंट कराता

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए.....

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गंगास्नान
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एक बार मकर संक्रान्ति के अवसर पर मेघा ने विचार किया कि बाबा को चन्दन का लेप करुँ तथा गंगाजल से उन्हें स्नान कराऊँ । बाबा ने पहले तो इसके लिए अपनी स्वीकृति न दी, परन्तु उसकी लगातार प्रार्थना के उपरांत उन्होंने किसी प्रकार स्वीकार कर लिया । गोवावरी नदी का पवित्र जल लाने के लिए मेघा को आठ कोस का चक्कर लगाना पड़ा । वह जल लेकर लौट आया और दोपहर तक पूर्ण व्यवस्था कर ली । तब उसने बाबा को तैयार होने की सूचना दी । बाबा ने पुनः मेघा से अनुरोध किया कि मुझे इस झंझट स
े दूर ही रहने दो । मैं तो एक फकीर हूँ, मुझे गंगाजल से क्या प्रयोजन । परन्तु मेघा कुछ सुनता ही न था । मेघा की तो यह दृढ़ा धारणा थी कि शिवजी गंगाजल से अधिक प्रसन्न होते है । इसीलिये ऐसे शुभ पर्व पर अपने शिवजी को स्नान कराना हमारा परम कर्तव्य है । अब तो बाबा को सहमत होना ही पड़ा और नीचे उतर कर वे एक पीढ़े पर बैठ गये तथा अपना मस्तक आगे करते हुए कहा कि अरे मेघा । कम से कम इतनी कृपा तो करना कि मेरे केवल सिर पर ही पानी डालना । सिर शरीर का प्रधान अंग है और उस पर पानी डालना ही पूरे श
रीर पर डालने के सदृश है । मेघा ने अच्छा अच्छा कहते हुए बर्तन उठाकर सिर पर पानी डालना प्रारम्भ कर दिया । ऐसा करने से उसे इतनी प्रसन्नता हुई कि उसने उच्च स्वर में हर हर गंगे की ध्वनि करते हुए समूचे बर्तन का पानी बाबा के सम्पूर्ण शरीर पर उँडेल दिया और फिर पानी का बर्तन एक ओर रखकर वह बाबा की ओर निहारन लगा । उसने देखा कि बाबा का तो केवल सिर ही भींगा हौ और शेष भाग ज्यों का त्यों बिल्कुल सूखा ही है । यह देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 28)

shirdi sai teachings



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
स्वार्थ रूप में ही सही, जपो साईं का नाम |
होगी नव अनुभूतियाँ, जीवन है सौगात ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Monday, September 24, 2012

Shirdi Sai Teachings-- कुदृष्टि



कुदृष्टि
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इसी यात्रा में एक बार उनको चावड़ी का जुलूस देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हो गया । उस दिन बाबा कफ से अधिक पीड़ित थे । उन्हें विचार आया कि इस कफ का कारण शायद किसी की नजर लगी हो । दूसरे दिन प्रातःकाल जब बाबा मसजिद को गये तो शामा से कहने लगे कि कल जो मुझे कफ से पीड़ा हो रही थी, उसका मुख्य कराण किसी की कुदृष्टि ही है । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि किसी की नजर लग गई है, इसलिये यह पीड़ा मुझे हो गई है । लक्ष्मीचन्द के मन में जो विचार उठ रहे थे, वही बाबा ने भी कह दिये । बाबा की सर्वज्ञता के अनेक प्रमाण तथा भक्तों के प्रति उनका स्नेह देखकर लक्ष्मीचंद बाबा के चरणों पर गिर पड़े और कहने लगे कि आपके प्रिय दर्शन से मेरे चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई है । मेरा मन-मधुप आपके चरण कमल और भजनों में ही लगा रहे । आपके अतिरिक्त भी अन्य कोई ईश्वर है, इसका मुझे ज्ञान नहीं । मुझ पर आप सदा दया और स्नेह करें और अपने चरणों के दीन दास की रक्षा कर उसका कल्याण करें । आपके भवभयनाशक चरणों का स्मरण करते हुये मेरा जीवन आनन्द से व्यतीत हो जाये, ऐसी मेरी आपसे विनम्र प्
रार्थना है ।
बाबा से आर्शीवाद तथा उदी लेकर वे मित्र के साथ प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर मार्ग में उनकी कीर्ति का गुणगान करते हुए घर वापस लौट आये और सदैव उनके अनन्य भक्त बने रहे । शिरडी जाने वालों के हाथ वे उनको हार, कपूर और दक्षिणा भेजा करते थे ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 28)

श्री साईं-कथा आराधना (भाग - 9 )



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श्री साईं-कथा आराधना (भाग - 9 )
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

कभी कृष्ण बन कर रिझाते थे साईं,
कभी घुंघरू बांध नाचते थे साईं
कभी उन्होंने चंडी का रूप धर लिया,
कभी शिव भोला बन जाते थे साईं
श्री साईं बाबा सदा आत्मलीन रहते थे
सुखों की कभी न कोई चाह करते थे
उनके लिए अमीर-गरीब एक समान थे
बाबा हर भक्त का रखते ध्यान थे
वे सदा एक आसन पर बैठे रहते थे
भक्तों के कल्याण में ही लगे रहते थे
अल्लाह मालिक सदा ही उनके होठों पे रहता
वो संत पूर्ण ब्रह्मज्ञानी प्रतीत-सा होता

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

श्री साईं खुद को मालिक का दास कहते थे,
भक्तों की सारी विपदाएं अपने ऊपर लेते थे
बाबा दया के सागर थे और धाम करुणा के,
वो ही हरते थे दुःख सारे जग के
जिनके हृदय में बस गए श्री साईंनाथा,
उनका कोई अमंगल करने ना पाता
कांशीराम नाम का एक साईं भक्त था
वो बाबा को हमेशा ही दक्षिणा देता था
बाबा उन पैसों को औरों को बांटते
दक्षिणा ले के दान का सही मर्म बताते
कांशीराम के दिल में एक दिन बात ये आई
मेरा ही धन औरों में बांटने से इनकी कौन बड़ाई

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए........

Shirdi Sai Teachings



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
जन्म जन्म का हूँ पतित,
हूँ अवगुण की खान,
"बाबा" आया हूँ तब शरण में,
"बख्शनहारा" जान
श्री साईं जी अपनी शरण में ले लो जी

Sunday, September 23, 2012

Shirdi Sai Teachings



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
कृपासिन्धु "साईं" नाम है, मो पे होऊ कृपाल |
जैसा तैसा हूँ बाबा, मेरी करो संभाल ||
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Shirdi Sai Teachings श्री साईं-कथा



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श्री साईं-कथा आराधना (भाग-8 )
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

जो काम, क्रोध, अहंकार में है दब गया,
वो इंसान जीते जी मानों मर गया
उस व्यक्ति को ब्रह्मज्ञान प्राप्त कैसे हो सकता,
जो इंसान मोह-माया में उलझ गया
बाबा के पास ऐसा ही एक व्यक्ति आया,
वो ब्रह्मज्ञान चाहता पर उससे छूटी न माया
बाबा ने उसे जेब की ब्रह्मरूपि माया को दिखाया
साईं की सर्वज्ञाता से वह द्रवित हो गया
साईं के चरणों में गिरकर वो माफ़ी मांगने लगा
रोने लगा और गिड़गिड़ाने भी लगा
बाबा की शिक्षा का उसपे फिर असर पड़ गया
संतोषपूर्वक वो अपने घर को लौट गया

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

साईं ने हेमांड से जो था लिखाया,
जिसने भी आत्मसात् किया, मुक्ति पा गया
फिर दासगणु को भी आशीष दे दिया
वो भी साईं चरणों में जगह पा गया
बाबा का यश फिर चारों और फैल गया
और देखते ही देखते शिर्डी तीर्थ बन गया
साईं दोनों हाथों से ऊदी को देते
भक्तों के कल्याण हेतु शिक्षा भी देते
बाबा की छवि थी सारे जग से ही न्यारी
लीलाएं उनकी अनंत थी, बड़ी चमत्कारी
साईं के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था,
जो उसका हो गया, वो बड़ा खुशनसीब था

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए.......

Saturday, September 22, 2012

Sai Vachan


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श्री साईं-कथा आराधना(भाग - 7)
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

बाबा की चरणकमलों में सारे धाम हैं बसे
उनमें ही राम-श्याम हैं, रहमान हैं बसे,
उनमें ही गीता, बाइबिल, उनमें कुरान है
उनमें ही सारे वेद, सारे पुराण हैं
इंसानियत के धर्म का प्रतीक थे साईं
धूनी जला के लोगों की पीड़ा थी मिटाई
काका ने जब गीता का था श्लोक सुनाया
तब साईं ने ही उसका सही अर्थ बताया
बाबा के गीता-ज्ञान से हैरान थे सभी
बाबा की लीलाओं से अनजान थे सभी
साईं हर भक्त की पीड़ा खुद पे लेते
और बदले में उसको सुख-शांति देते

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

एक बार भीमा जी को क्षयरोग हो गया,
तब साईं भक्त नाना ने उसको बताया
अब एक मार्ग शेष है बस साईं चरण का
उनकी कृपा से ही जाएगा रोग तन का
भीमा जी पहुंचे शिर्डी और बाबा से कहा
मुझपे दया करो मैं आया हूं यहां
इस विनती से बाबा का दिल पिघल गया,
की ऐसी दया उस पर रोग नष्ट हो गया
साईं ने सपने में हृदय पर पाषाण घुमाया
और पल भर में क्षयरोग को मार भगाया
आनंदित हो भीमा जी निज गाँव आ गया
फिर उसने नया सत्य साईं व्रत चलाया

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए.......

Sai Vachan


ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
"साईं जी"
दास मांगे नाम का दान 
बक्शो नाम ए कृपानिधान
दीजो दाता यही वरदान
करता रहूँ मैं "साईं" गुणगान 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे 
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श्रीसाईनाथ-स्तवनमंजरी 
भाग-3
आता चैतन्यप्रत । मी-तू म्हणणे ना उचित ।।
का की जेथे न संभवते द्वैत । तेचि चैतन्य निश्चये ।।
आणि व्याप्ति चैतन्याची । अवघ्या जगाठायी साची ।।
मग मी-तू या भावनेची । संगत कैशी लागते ।।
Therefore, to distinguish that pure consciousness
In terms of "you and me" is not proper!
Because, where there is no possibility of duality
That is definitely the pure consciousness.
And since the pure consciousness.
Truly encompasses the whole world, 
Then, the "you-me" duality concept,
How can it possibly exist?
(दासगणुकृत श्रीसाईनाथ-स्तवनमंजरी)

Friday, September 21, 2012

Shirdi Sai Teachings


श्रीमान् और श्रीमती खापर्डे
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एक बार श्री. दादासाहेब खापर्डे सहकुटुम्ब शिरडी आये और कुछ मास वहीं ठहरे उनके ठहरने के नित्य कार्यक्रम का वर्णन श्रीसाईलीला पत्रिका के प्रथम भाग में प्रकाशित हुआ है । दादा कोई सामान्य व्यक्ति न थे । वे एक धनाढ्य और अमरावती (बरार) के सुप्रसिदृ वकील तथा केन्द्रीय धारा सभा (दिल्ली) के सदस्य थे । वे विद्घान और प्रवीण वक्ता भी थे । इतने गुणवान् होते हुए भी उन्हें बाबा के समक्ष मुँह खोलने का साहस न होता था
 । अधिकाँश भक्तगण तो बाबा से हर समय अपनी शंका का समाधान कर लिया करते थे । केवल तीन व्यक्ति खापर्डे, नूलकर और बूटी ही ऐसे थे, जो सदैव मौन धारण किये रहते तथा अति विनम्र और उत्तम प्रकृति के व्यक्ति थे । दादासाहेब, विघारण्य स्वामी द्घारा रचित पंचदशी नामक प्रसिदृ संस्कृत ग्रन्थ, जिसमें अद्घैतवेदान्त का दर्शन है, उसका विवरण दूसरों को तो समझाया करते थे, परन्तु जब वे बाबा के समीप मसजिद में आये तो वे एक शब्द का भी उच्चारण न कर सके । यथार्थे में कोई व्यक्ति, चाहे वह जितना वेदवेदान्तों में पारन्गत क्यों न हो, परन्तु ब्रहृपद को पहुँचे हुए व्यक्ति के समक्ष उसका शुष्क ज्ञान प्रकाश नहीं दे सकता । दादा चार मास तथा उनकी पत्नी सात मास वहाँ ठहरी । वे दोनों अपने शिरडी-प्रवास से अत्यन्त प्रसन्न थे । श्री मती खापर्डे श्रद्घालु तथा पूर्ण भक्त थी, इसलिये उनका साई चरणों में अत्यन्त प्रेम था । प्रतिदिन दोपहर को वे स्वयं नैवेघ लेकर मसजिद को जाती और जब बाबा उसे ग्रहम कर लेते, तभी वे लौटकर आपना भोजन किया करती थी । बाबा उनकी अटल श्रद्घा की झाँकी का दूसरों को भी दर्शन कराना चाहते थे । एक दिन दोपहर को वे साँजा, पूरी, भात, सार, खीर और अन्य भोज्य पदार्थ लेकर मसजिद में आई । और दिनों तो भोजन प्रायः घंटों तक बाबा की प्रतीक्षा में पड़ा रहता था, परन्तु उस दिन वे तुरंत ही उठे और भोजन के स्थान पर आकर आसन ग्रहण कर लिया और थाली पर से कपड़ा हटाकर उन्होंने रुचिपूर्वक भोजन करना आरम्भ कर दिया । तब शामा कहने लगे कि यह पक्षपात क्यों । दूसरो की थालियों पर तो आप दृष्टि तक नहीं डालते, उल्टे उन्हें फेंक देते है, परन्तु आतज इस भोजन को आप बड़ी उत्सुकता और रुचि से खा रहे है । आज इस बाई का भोजन आपको इतना स्वादिष्ट क्यों लगा । यह विषय तो हम लोगों के लिये एक समस्या बन गया है । तब बाबा ने इस प्रकार समझाया । सचमुच ही इस भोजन में एक विचित्रता है । पूर्व जन्म में यह बाई एक व्यापारी की मोटी गाय थी, जो बहुत अधिक दूध देती थी । पशुयोलि त्यागकर इसने एक माली के कुटुम्ब में जन्म लिया । उस जन्म के उपरान्त फिर यह एक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हई और इसका ब्याह एक व्यापारी से हो गया । दीर्घए काल के पश्चात् इनसे भेंट हुई है । इसलिये इनकी थाली में से प्रेमपूर्वक चार ग्रास तो खा लेने दो । ऐसा बतला कर बाबा ने भर पेट भोजन किया और फिर हात मुँह धोकर और तृप्ति की चार-पाँच डकारें लेकर वे अपने आसन पर पुनः आ बिराजे । फिर श्रीमती खापर्डे ने बाबा को नमन किया और उनके पाद-सेवन करने ली । बाबा उनसे वार्तालाप करने लगे और साथ-साथ उनके हाथ भी दबाने लगे । इस प्रकार परस्पर सेवा करते देख शामा मुस्कुराने लगा और बोला कि देखो तो, यह एक अदभुत दृश्य है कि भगवान और भक्त एक दूसरे की सेवा कर रहे है । उनकी सच्ची लगन देखकर बाबा अत्यन्त कोमल तथा मृदु शब्दों मे अपने श्रीमुख से कहने लगे कि अब सदैव राजाराम, राजाराम का जप किया करो और यदि तुमने इसका अभ्यास क्रमबदृ किया तो तुम्हे अपने जीवन के ध्येय की प्राप्ति अवश्य हो जायेगी । तुम्हें पूर्ण शान्ति प्राप्त होकर अत्यधिक लाभ होगा । आध्यात्मिक विषयों से अपरिचित व्यक्तियों के लिये यह घटना साधारण-सी प्रतीत होगी, परन्तु शास्त्रीय भाषा में यह शक्तिपात के नाम से विदित है, अर्थात् गुरु द्घारा शिष्य में शक्तिसंचार करना । कितने शक्तिशाली और प्रभावकारी बाबा के वे शब्द थे, जो एक क्षण में ही हृदय-कमल में प्रवेश कर गये और वहाँ अंकुरित हो उठे । यह घटना गुरु-शिष्य सम्बन्ध के आदर्श की घोतक है । गुरु-शिष्य दोनों एक दूसरे को अभिन्न् जानकर प्रेम और सेवा करनी चाहिये, क्योंकि उन दोनों में कोई भेद नहीं है । वे दोनों अभिन्न और एक ही है, जो कभी पृथक् नहीं हो सकते । शिष्य गुरुदेव के चरणों पर मस्तक रख रहा है, यह तो केवल बाहृ दृश्यमान है । आन्तरिक दृष्टि से दोनों अभिन्न और एक ही है तथा जो उनमें भेद समझता है, वह अभी अपरिपक्क और अपूर्ण ही है ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 27)

श्रीसाईनाथ-स्तवनमंजरी



श्रीसाईनाथ-स्तवनमंजरी 
भाग-2
म्हणुन अजन्मा आपणां । मी म्हणत्से दयाघना ।।
अज्ञाननगाच्या कंदना । करण्या व्हावे वज्र तुम्ही ।।
ऐशा खांचा आजवर । बहुत झाल्या भूमीवर ।।
हल्ली अजून होणार । पुढेही कालावस्थेनें ।।
त्या प्रत्येक खाचेप्रत। निराले नावरूप मिळत ।।
जेणेकरुन जगतात । औलख त्यांची पटतसे ।।
Therefore, I call Thee Beginning-less
O merciful one.
To destroy the mountain of ignorance,
Please become the weapon of destruction.
Until now, such beings 
Have existed in large numbers, on this earth.
Many exist even now,
And, in the future, more will come.
Each such being 
Is given a separate name and appearance.
That is how, in this world,
Each one is identified.
(दासगणुकृत श्रीसाईनाथ-स्तवनमंजरी)


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श्री साईं-कथा आराधना (भाग - 6 )
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

साईं की लीला सुनकर लोग दौड़े आते थे ,
और उनके आगे बैठकर फरियाद सुनाते।
भिक्षा में मिले भोजन को साईं बाँट कर खाते ।
कुत्ते बिल्ली को देकर वो तृप्त हो जाते ।
बाबा ने कभी किसी से घृणा ही करी 
रोगी और अपाहिज की खुद सेवा ही करी ।
भागो जी की काया में जहाँ -तहां घाव थे भरे ।
वो कोढ़ से पीड़ित हो सह रहे थे कष्ट बड़े ।
साईं - कृपा से भागो जी कष्ट से मुक्ति पा गए 
और साईं सेवा करके तो धन्य ही हो गए ।
सचमुच करुणा के अवतार थे साईं ।
हर कष्ट , दुख से जिन्होंने मुक्ति दिलाई ।

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए 

साईं की शरण में जो एक बार आ गया ,
साईं -कृपा को वो तो पल भर में ही पा गया ।
ममता की मूरत बनकर साईं आये थे शिर्डी ।
आँचल की छाँव आज भी वही देती है शिर्डी ।
साईं जी ने दे दी थी कोढ़ी को भी काया ,
फिर भागो जी की सेवा ले के मान बढ़ाया ।
श्री साईं ने कभी दौलत से न कभी प्यार था किया ,
भिक्षा पर ही अपना जीवन बिता दिया ।
गर दक्षिणा जो लेते साईं कभी किसी से 
लौटाते उसको अपने हजार हाथों से ।
शिर्डी में एक दिन घोर झंझावत आया ।
बाबा उस पर गरजे और शांत कराया ।

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईं नाथ कहिए.......

Thursday, September 20, 2012

श्रीसाईनाथ-स्तवनमंजरी -1



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ह. भ. प. दासगणुकृत 
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श्रीसाईनाथ-स्तवनमंजरी 
भाग-1

श्रीगणेशाय नमः । हे सर्वाधारा मयुरेश्वरा ।।
सर्वसाक्षी गौरीकुमारा । हे अचिंत्य लंबोदरा पाहि मां श्री गणपते ।।
तू सकल गणाचा आदि ईश । म्हणूनि म्हणती गणेश ।।
तू समत सर्व शास्त्रांस । मंगलरूपा भालचन्द्रा ।।
हे शारदे वाग्विलासिनी । तू शब्दसृष्टीची स्वामिनी ।।
तुझे अस्तित्व म्हणूनी । व्यवहार चालती जगताचे ।।
तू ग्रन्थकाराची देवता । तू भूषण देशाचे सर्वथा ।।
तुझी अवध्यात अगाध सत्ता । नमो तुजसी जगदंबे ।।
हे पूर्णब्रह्मा संतप्रिया । हे सगुणरुपा पंढरीराया ।। 
कृपार्णवा परम सदया । पांडुरंगा नरहरे।।
तू अवध्यांचा सूत्रधार । तुझी व्याप्ति जगभर ।।
अवघी शास्त्रे विचार । करिती तुझ्या स्वरूपाचा ।।
पुस्तकज्ञानी जे जे कोणी । त्या तू न गवससी चक्रपाणी ।। 
त्या अवघ्या मुर्खानी । शब्दवाद करावा ।। 
तुला जाणती एक संत । बाकीचे होती कुंठित ।। 
तुला माझा दंडवत । आदरे हा अष्टांगी ।। 
हे पंचवक्त्रा शंकरा । हे नररुंडमाला धरा ।।
हे नीलकंठा दिगंबरा । ॐकाररुपा पशुपते ।।
तुझे नाम ज्याचे ओठी । त्याचे दैन्य जाय उठाउठी ।।
ऐसा आहे धुर्जटी । महिमा तुझ्या नावाचा ।।
तुझ्या चरणां वंदून । मी हे सतोत्र करितो लेखन ।।
यास करावे साह्य पूर्ण । तू सर्वदा नीलकंठा ।।
आता वंदू अत्रिसुता । इंदिरा कुलदेवता ।।
श्रीतुकारामादी सकल संता । तेवी अवघ्या भाविकांसी ।
जय जयाजी साईनाथा । पतितपावना कृपावंता ।।
तुझ्या पदी ठेवितो माथा । आता अभय असू दे ।।
तू पूर्णब्रह्मा सोख्यधामा । तुचि विष्णु नरोत्तमा ।।
अर्धांगी ती ज्याची उमा । तो कामारी तूच की ।।
तू नरदेहधारी परमेश्वर । तू ज्ञाननभीचा दिनकर ।।
तू दयेचा सागर । भवरोगा औषधी तू ।।
तू हीनदीना चिंतामणी । तू तव भक्ता सवर्धुनी ।।
तू बुडतियाना भव्य तरणी । तू भितांसी आश्रय ।।
जगाचें आद्य कारण । जें कां विमलचैतन्य ।।
तें तुम्हीच आहा दयाघन । विश्व हा विलास तुमचाचि ।।
आपण जन्मरहित । मृत्युही ना आपणाप्रत ।।
तेंच अखेर कलून येत । पूर्ण विचारे शोधितां ।।
खाचेत आले जीवन । म्हणूनी लाधले अभिधान ।।
झरा ऐसें तिजलागून । जलाभावीं खांचचि ।।
लागला आणि आटला । हे मुळी ठावें न जला ।।
कां कीं जलखांचेला । देत नव्हतें महत्त्व मुळी ।।
खाचेसी मात्र अभिमान । जीवननाचा परिपूर्ण ।।
म्हणुन ते आटता दारुण । दैन्यावस्था ये तिसी ।।
नरदेह ही खाच खरी । शुद्ध चैतन्य विमल वारी ।।
खाचा अनंत होती जरी । तरी न पालट तोयाचा ।।

Das Ganu's 
Shri Sainath Stavanamanjari
I bow down to Shri GANESH.
Oh,MAYURESHWARA ,You are the one on whom we depend,
Oh,son of GAURI, the all-knowing.
Oh,You inconceivable one.
with an immeasurable body.
Protect me,oh,Shri GANAPATI ….
You are the first and foremost of all the Ganas'
and of all the deities;
Therefore, you are called "GANESH"
You are acknowledged by all the "SHASTRAS" 
You of sacred countenance, oh,BHALACHANDRA! ….
Oh, SHARADA,Goddess of Speech !
You are the mistress of the realm of words;
Because of your existence,
the transactions of the world are carried on.
You are the deity of all authors!
You are eternally the ornament of this nation!
Your infinite power prevails everywhere.
I bow to you, O Jagadamba.
O, Supreme Spirit and beloved of the Saints!
O incarnation, in manifested form of Pandhariraya
YOu are the ocean of kindness and infinitely compassionate,
O Panduranga and Narahari.
You, who control the world like a puppeteer with his strings,
You are omnipresent!
All the sciences and sacred books are still delving
To plumb the essence of your nature.
Those who are pedagogues, 
To them, you are not revealed, O Chakrapani
All those foolish people 
Only indulge in the jugglery of words.
Only the Saints understand you,
Others remain baffled.
To you, my respectful obeisance,
With my whole body prostrate in veneration before you.
O you, five-headed Shankara!
O you, wearer of garland of skulls!
O you, blue-throated Digambara
O you, Aumkar-Rupa Pashupati!
One who recites your name all the time,
His worldly adversities are immediately removed,
Such is, O Dhurjati,
The power of your name!
With obeisance at your feet, 
I am writing this paean of praises!
Help me throughout to complete this mission, 
O you, Nilkantha- 
the blue-throated one!
Now, let me bow to the son of Atri.
To Indira the family deity!
To Tukaram, and all other saints,
So, also, to all the devotees.
Hail, hail to you Sainatha!
Redeemer of sinners and merciful one!
I lay my head down on your feet.
Now give me your protection.
You are the Supreme Spirit,
the abode of bliss!
You yourself are Vishnu,
the paragon among men!
You are also that enemy of Cupid
Whose consort is Uma!
You are God in human form!
You are the sun in the sky of knowledge!
You are the ocean of kindness!
You are the antidote for the malady of conditioned existence.
You are the Chintamani of the poor and the down-trodden!
You are the divine purifier of your devotees!
You are the raft for those drowning in worldliness!
You are the refuge of the terrified.
You are the primal cause of this creation!
That which is pure consciousness.
You are that very embodiment of compassion!
The world is only one of your manifestations.
You are not born!
Death also does not affect you!
This is the final conclusion
Which one arrives at, after deep thinking.
Water that springs up in a hollow bed,
Is, therefore, so described or named!
A "spring" becomes its proper name!
Without the water, it is only a hollow bed.
Whether it springs up or it dries up in the hollow bed,
This does not matter to the water!
Because the water
Gives no importance to the hollow bed.
It is only the hollow bed that is mistakenly proud.
When it is full of the life-giving water!
Therefore, when the water dries up 
It becomes pathetically impoverished.
The human body is really like the hollow bed,
The pure consciousness is like the pure clean water of the spring.
Although there are innumerable such hollow beds 
The essence is the same in every one.


Note :- MARATHI TEXT OF SHRI SAINATH STAVANAMANJARI BY 
DAS GANU
ENGLISH TRANSLATION WITH INTERNATIONAL PHONETICS BY ZARINE

Wednesday, September 19, 2012

Ganesh Chaturthi


Shirdi Sai Vachan



ॐ साईं श्री साईं ॐ श्री साईं 
बाबा के चरणों को छूकर देखें आप 
समझोगे आनंद को, कट जायेंगे पाप 
श्री साईं कृपा सदैव हम सब पर बनी रहे

Tuesday, September 18, 2012

शामा और विष्नुसहस्त्रनाम



शामा और विष्नुसहस्त्रनाम
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शामा बाबा के अंतरंग भक्त थे । अस कारण बाबा उन्हें एक विचित्र ढंग से बिष्णुसहस्त्रनाम प्रसादरुप देने की कृपा करना चाहते थे । तभी एक रामदासी आकर कुछ दिन शिरडी में ठहरा । वह नित्य नियमानुसार प्रातःकाल उठता और हाथ मुँह धोने के पश्चात् स्नान कर भगवा वस्त्र धारण करता तथा शरीर पर भस्म लगाकर विष्णुसहस्त्रनाम का जाप किया करता था । वह अध्यात्मरामायम का भी श्रद्घापूर्वक नित्य पाठ किया करता था और बहुधा इन्हीं ग्रन्थों को ही पढ़ा करता था । कुछ दिनों के पश्चात् बाबा ने शामा को भी विष्णुसहस्त्रनाम से परिचित कराने का विचार कर रामदासी को अपने समीप बुलाकर उससे कहा कि मेरे उदर में अत्यन्त पीड़ा हो ररही है और जब तक मैं सोलामुखी का सेवन न करुँगा, तब तक मेरा कष्ट दूर न होगा । तब रामदासी ने अपना पाठ स्थगित कर दिया और वह औषधि लाने बाजार चला गया । उसी प्रकार बाबा अपने आसन से उठे और जहाँ वह पाठ किया करते थे, वहाँ जाकर उन्होंने विष्णुसहस्त्रनाम की वह पुस्तिका उठाई और पुनः अपने आसन पर विराजमान होकर शामा से कहने लगे कि यह पुस्तक अमूल्य और मनोवांछित फल देने वाली है । इसलिये मैं तुम्हें इसे प्रदान कर रहा हूँ, ताकि तुम इसका नित्य पठन करो । एक बार जब मैं अधिक रुग्ण था तो मेरा हृदय धड़कने लगा । मेरे प्राणपखेरु उड़ना ही चाहते थे कि उसी समय मैंनें इस सदग्रन्थ को अपने हृदय पर रख लिया । कैसा सुख पहुँचाया इसने । उस समय मुझे ऐसा ही भान हुआ, मानों अल्लाह ने स्वयं ही पृथ्वी पर आकर मेरी रक्षा की । इस कारण यह ग्रन्थ मैं तुम्हें दे रहा हूँ । इसे थोड़ा धीरे-धीरे, कम से कम एक श्लोक प्रतिदिन अवश्य पढ़ना, जिससे तुम्हारा बहुत भला होगा । तब शामा कहने लगे कि मुझे इस ग्रन्थ की आवश्यकता नहीं क्योंकि इस का स्वामी रामदासी एक पागल, हठी और अतिक्रोधी व्यक्ति है, जो व्यर्थ ही अभी आकर लड़ने को तैयार हो जायेगा । अल्पशिक्षित होने के नाते, मैं संस्कृत भाषा में लिखित इस ग्रन्थ को पढ़ने में भी असमर्थ हूँ शामा की धारणा थी कि बाबा मेरे और रामदासी के बीच मनमुटाव करवाना चाहते थे । इसलिये यह नाटक रचा है । बाबा का विचार उनके प्रति क्या था, यह उनकी समझ में न आया । बाबा येन केन प्रकारेण विष्णुसहस्त्रनाम उसके कंठ में उतार देना चाहते थे । वे तो अपने एक अल्पशिक्षित अंतरंग भक्त को सांसारिक दुःखों से मुक्त कर देना चाहते थे । ईश्वर-नाम के जप का महत्व तो सभी को विदित हीहै, जो हमें पापों से बचाकर कुवृत्तियों से हमारी रक्षा कर, जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से छुड़ा देता है । यह आत्मशुद्घि के लिये एक उत्तम साधन है, जिसमें न किसी सामग्री की आवश्यकता हौ और न किसी नियम के बन्धन की । इससे सुगम और प्रभावकारी साधन अन्य कोई नहीं । बाबा की इच्छ तो शामा से यह साधना कराने की थी, परन्तु शामा ऐसा न चाहते थे, इसीलिये बाबा ने उनपर दबाव डाला । ऐसा बहुधा सुनने में आया है कि बहुत पहले श्री एकनाथ महाराज ने भी अपने एक पड़ोसी ब्राहमण से विष्णुसहस्त्रनाम का जप करने के लिये आग्रह कर उसकी रक्षा की थी । विष्णुसहस्त्रनाम का जप चित्तशुद्घि के लिये एक श्रेष्ठ तथा स्पष्ट मार्ग है । इसलिये बाबा ने शामा को अनुरोधपूर्वक इसके जप में प्रवृत्त किया । रामदासी बाजार से तुरन्त सोनामुखी लेकर लौट आया । अण्णा चिंचणीकर, जो वहीं उपस्थित थे, प्रयः पूरे नारद मुनि ही थे और उन्होंने उक्त घटना का सम्पूर्ण वृत्तांत रामदासी को बता दिया । मदासी क्रोधावेश में आकर शामा की ओर लपका और कहने लगे कि यह तुम्हारा ही कार्य है, जो तुमने बाबा के द्घारा मुझे उदर पीड़ा के बहाने औषधि लेने को भेजा । यदि तुमने पुस्तक न लौटाई तो मैं तुम्हारा सिर तोड़ दूँगा । शामा ने उसे शान्तुपूर्वक समझाया, परन्तु उनक कहना व्यर्थे ही हुआ । तब बाबा प्रेमपूर्वक बोले कि अरे रामदासी, यह क्या बात हैं । क्यों उपद्रव कर रहे हो । क्या शामा अपना बालक नहीं है । तुम उसे व्यर्थ ही क्यों गाली दे रहे हो । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी प्रकृति ही उपद्रवी है । क्या तुम नम्र और मृदुल वाणी नहीं बोल सकते । तुम नित्य प्रति इन पवित्र ग्रन्थों का पाठ किया करते हो और फिर भी तुम्हारा चित्त अशुदृ ही है । जब तुम्हारी इच्छायें ही तुम्हारे वश में नहीं है तो तुम रामदासी कैसे । तुम्हें तो समस्त वस्तुओं से अनासक्त (वैराग्य) होना चाहिये । कैसी विचित्र बात है कि तुम्हें इस पुस्तक पर इतना अधिक मोह है । सच्चे रामदासी को तो ममता त्याग कर समदर्शी होना चाहिये । तुम तो अभी बालक शामा से केवल एक छोटी सी पुस्तक के लिये झगड़ा कर रहे थे । जाओ, अपने आसन पर बैठो । पैसों से पुस्तकें तो अनेक प्राप्त हो सकती है, परन्तु मनुष्य नहीं । उत्तम विचारक बनकर विवेकशील होओ । पुस्तक का मूल्य ही क्या है और उससे शामा को क्या प्रयोजन । मैंने स्वयं उठकर वह पुस्तक उसे दी थी, यह सोचकर कि तुम्हें तो यह पुस्तक पूणर्तः कंठस्थ है । शामा को इसके पठन से कुछ लाभ पहुँचे, इसलिये मैंने उसे दे दी । बाबा के ये शब्द कितने मृदु और मार्मिक तथा अमृततुल्य है । इनका प्रभाव रामदासी पर पड़ा । वह चुप हो गया और फिर शामा से बोला कि मैं इसके बदले में पंचरत्नी गीता की एक प्रति स्वीकार कर लूँगा । तब शामा भी प्रसन्न होकर कहने लगे कि एक ही क्यो, मैं तो तुम्हें उसके बदले में 10 प्रतियाँ देने को तैयार हूँ । इस प्रकार यह विवाद तो शान्त हो गया, परन्तु अब प्रश्न यह आया कि रामदासी नें पंचरत्नी गीता के लिये-एक ऐसी पुस्तक जिसका उसे कभी ध्यान भी न आया था, इतना आग्रह क्यों किया और जो मसजिद में हर दिन धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करता हो, वह बाबा के समक्ष ही इतना उत्पात करने पर क्यों उतारु हो गया । हम नहीं जानते कि इस दोष का निराकरण कैसे करें और किसे दोषी ठहरावें । हम तो केवल इतना ही जान सके कि यदि इस प्रणाली काअनुसरण न किया गया होता तो विषय का महत्व और ईश्वर नाम की महिमा तथा शामा को विष्णुसहस्त्रनाम के पठन का शुभ अवसर ही प्राप्त न होता । इससे यही प्रतीत होता है कि बाबा के उपदेश की शैली और उसकी प्रकि्या अद्घितीय है । शामा ने धीरे-धीरे इस ग्रन्थ का इतना अध्ययन कर लिया और उन्हें इस विषय का इतना ज्ञान हो गया कि वह श्री मान् बूटीसाहेब के दामाद प्रोफेसर जी.जी. नारके, एम.ए. (इंजीनियरिंग कालेज, पूना) को भी उसका यथार्थ अर्थ समझाने में पूर्ण सफल हुए ।
।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।
(श्री साई सच्चरित्र, अध्याय 27)

श्री साईं-कथा आराधना (भाग-5)



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श्री साईं-कथा आराधना (भाग-5)
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श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

श्री साईं ने सब धर्मों का था भेद मिटाया
रामनवमी के संग-संग उर्स मनाया
सब ही धर्मों का मालिक एक है भाई
हर भक्त को येही शिक्षा देते थे साईं
जब जिसने जिस भाव में साईं को ध्याया
वैसे ही रूप में साईं ने खुद को दिखाया
कोई उन्हें अपने गुरु रूप में पाता
कोई उन्हें ईश मान सिर को झुकाता
साईं के प्रति सबके दिल में सम्मान था रहता
कोई उन्हें चन्दन, कोई इत्र लगाता
लाखों बार धन्य है वो धरती माता
प्रकटे जहाँ पे श्री शिर्डी के नाथा

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए

हर प्राणी में इश्वर का वास बताया,
सब जीवों से प्यार करो ये भी सिखाया
भूखे को दिए भोजन में स्वयं को तृप्त दिखाकर
इस सृष्टि में खुद होने का आभास कराया
दिखने में साईं एक सामान्य पुरुष थे
मात्र भक्तों के कल्याण की चिंता में रहते थे
वैराग्य, तप, ज्ञान, योग उनमें भरा था
वो सत्पुरुष एकदम आसक्ति रहित था
शरणागत भक्तों के साईं बने आश्रयदाता,
हर जन के वो प्रभु, सबके भाग्य विधाता
उनके भक्तों का उन पर अटूट प्रेम था
श्री साईं का दिव्य स्वरुप ऐसा ही था

श्री साईं गाथा सुनिए
जय साईंनाथ कहिए.........

श्री साई सच्चरित्र



श्री साई सच्चरित्र

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श्री साई सच्चरित्र अध्याय 1

श्री साई सच्चरित्र अध्याय 2


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Sai Aartian साईं आरतीयाँ